Monday, 24 October 2016

गेहूं (Wheat ; वैज्ञानिक नाम : Triticum spp.), मध्य पूर्व के लेवांत क्षेत्र से आई एक घास


गेहूं (Wheat ; वैज्ञानिक नाम : Triticum spp.), मध्य पूर्व के लेवांत क्षेत्र से आई एक घास है जिसकी खेती दुनिया भर में की जाती है। विश्व भर में, भोजन के लिए उगाई जाने वाली धान्य फसलों मे मक्का के बाद गेहूं दूसरी सबसे ज्यादा उगाई जाने वाले फसल है, धान का स्थान गेहूं के ठीक बाद तीसरे स्थान पर आता है।गेहूं के दाने और दानों को पीस कर प्राप्त हुआ आटा रोटी, डबलरोटी (ब्रेड), कुकीज, केक, दलिया, पास्ता, रस, सिवईं, नूडल्स आदि बनाने के लिए प्रयोग किया जाता है।गेहूं का किण्वन कर बियर, शराब, वोद्का और जैवईंधन बनाया जाता है। गेहूं की एक सीमित मात्रा मे पशुओं के चारे के रूप में प्रयोग किया जाता है और इसके भूसे को पशुओं के चारे या छत/छप्पर के लिए निर्माण सामग्री के रूप में इस्तेमाल किया जा सकता है।
हालांकि दुनिया भर मे आहार प्रोटीन और खाद्य आपूर्ति का अधिकांश गेहूं द्वारा पूरा किया जाता है, लेकिन गेहूं मे पाये जाने वाले एक प्रोटीन ग्लूटेन के कारण विश्व का 100 से 200 लोगों में से एक व्यक्ति पेट के रोगों से ग्रस्त है जो शरीर की प्रतिरक्षा प्रणाली की इस प्रोटीन के प्रति हुई प्रतिक्रिया का परिणाम है। (संयुक्त राज्य अमेरिका के आंकड़ों के आधार पर

महत्व

गेहूँ (ट्रिटिकम जाति) विश्वव्यापी महत्व की फसल है। यह फसल नानाविध वातावरणों में उगाई जाती है। यह लाखों लोगों का मुख्य खाद्य है। विश्व में कुल कृष्य भूमि के लगभग छठे भाग पर गेहूँ की खेती की जाती है यद्यपि एशिया में मुख्य रूप से धान की खेती की जाती है, तो भी गेहूँ विश्व के सभी प्रायद्वीपों में उगाया जाता है। यह विश्व की बढ़ती जनसंख्या के लिए लगभग २० प्रतिशत आहार कैलोरी की पूर्ति करता है। वर्ष २००७-०८ में विश्वव्यापी गेहूँ उत्पादन ६२.२२ करोड़ टन तक पहुँच गया था। चीन के बाद भारत गेहूँ दूसरा विशालतम उत्पादक है। गेहूँ खाद्यान्न फसलों के बीच विशिष्ट स्थान रखता है। कार्बोहाइड्रेट और प्रोटीन गेहूँ के दो मुख्य घटक हैं। गेहूँ में औसतन ११-१२ प्रतिशत प्रोटीन होता हैं। गेहूँ मुख्यत: विश्व के दो मौसमों, यानी शीत एवं वसंत ऋतुओं में उगाया जाता है। शीतकालीन गेहूँ ठंडे देशों, जैसे यूरोप, सं॰ रा॰ अमेरिका, आस्ट्रेलिया, रूस राज्य संघ आदि में उगाया जाता है जबकि वसंतकालीन गेहूँ एशिया एवं संयुक्त राज्य अमेरिका के एक हिस्से में उगाया जाता है। वसंतकालीन गेहूँ १२०-१३० दिनों में परिपक्व हो जाता है जबकि शीतकालीन गेहूँ पकने के लिए २४०-३०० दिन लेता है। इस कारण शीतकालीन गेहूँ की उत्पादकता वंसतकालीन गेहूँ की तुलना में अधिक हाती है।
गुणवत्ता को ध्यान में रखकर गेहूँ को दो श्रेणियों में विभाजित किया गया है: मृदु गेहूँ एवं कठोर गेहूँ।
ट्रिटिकम ऐस्टिवम (रोटी गेहूँ) मृदु गेहूँ होता है और ट्रिटिकम डयूरम कठोर गेहूँ होता है।
भारत में मुख्य रूप से ट्रिटिकम की तीन जातियों जैसे ऐस्टिवम, डयूरम एवं डाइकोकम की खेती की जाती है। इन जातियों द्वारा सन्निकट सस्यगत क्शेत्र क्रमश: ९५, ४ एवं १ प्रतिशत है। ट्रिटिकम ऐस्टिवम की खेती देश के सभी क्षेत्रों में की जाती है जबकि डयूरम की खेती पंजाब एवं मध्य भारत में और डाइकोकम की खेती कर्नाटक में की जाती है।

गेहूं की अधिक उपज देने वाली किस्में

अच्छी फसल लेने के लिए गेहूं की किस्मों का सही चुनाव बहुत महत्वपूर्ण है। विभिन्न अनुकूल क्षेत्रों में समय पर, तथा प्रतिकूल जलवायु, व भूमि की परिस्थितियों में, पक कर तैयार होने वाली, अधिक उपज देने वाली व प्रकाशन प्रभावहीन किस्में उपलब्ध हैं। उनमें से अनेक रतुआरोधी हैं। यद्यपि `कल्याण सोना' लगातार रोग ग्रहणशील बनता चला जा रहा है, लेकिन तब भी समय पर बुआई और सूखे वाले क्षेत्रों में जहां कि रतुआ नहीं लगता, अच्छी प्रकार उगाया जाता है। अब `सोनालिका' आमतौर पर रतुआ से मुक्त है और उन सभी क्षेत्रों के लिए उपयोगी है, जहां किसान अल्पकालिक (अगेती) किस्म उगाना पसन्द करते हैं। द्विगुणी बौनी किस्म `अर्जुन' सभी रतुओं की रोधी है और मध्यम उपजाऊ भूमि की परिस्थितियों में समय पर बुआई के लिए अत्यन्त उपयोगी है, परन्तु करनल बंटा की बीमारी को शीघ्र ग्रहण करने के कारण इसकी खेती, पहाड़ी पट्टियों पर नहीं की जा सकती। `जनक' ब्राऊन रतुआ रोधी किस्म है। इसे पूर्वी उत्तर प्रदेश और नेपाल में भी उगाने की सिफारिश की गई है। `प्रताप' पंजाब, हरियाणा, राजस्थान और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के वर्षा वाले क्षेत्रों में मध्यम उपजाऊ भूमि की परिस्थितियों में अच्छी प्रकार उगाया जाता है। `शेरा' ने मध्य भारत व कोटा और राजस्थान के उदयपुर मंडल में पिछेती, अधिक उपजाऊ भूमि की परिस्थितियों में, उपज का अच्छा प्रदर्शन किया है।
`राज ९११' मध्य प्रदेश, गुजरात, उत्तर प्रदेश के बुन्देलखण्ड क्षेत्र और दक्षिण-पूर्वी राजस्थान में सामान्य बुआई व सिंचित और अच्छी उपजाऊ भूमि की परिस्थिति में उगाना उचित है। `मालविका बसन्ती' बौनी किस्म महाराष्ट्र, कर्नाटक, आन्ध्र प्रदेश की अच्छी सिंचाई व उपजाऊ भूमि की परिस्थितियों के लिए अच्छी है। `यू पी २१५' महाराष्ट्र और दिल्ली में उगाई जा रही है। `मोती' भी लगातार प्रचलन में आ रही है। यद्यपि दूसरे स्थानों पर इसको भुलाया जा रहा है। पिछले कई वर्षों से `डबल्यू जी-३५७' ने बहुत बड़े क्षेत्र में कल्याण सोना व पी वी-१८ का स्थान ले लिया है। भिन्न-भिन्न राज्यों में अपनी महत्वपूर्ण स्थानीय किस्में भी उपलब्ध हैं। अच्छी किस्मों की अब कमी नहीं हैं। किसान अपने अनुभव के आधार पर, स्थानीय प्रसार कार्यकर्ता की सहायता से, अच्छी व अधिक पैदावार वाली किस्में चुन लेता है। अच्छी पैदावार के लिए अच्छे बीज की आवश्यकता होती है और इस बारे में किसी भी प्रकार का समझौता नहीं किया जा सकता।
भूमि का चुनाव: गेहूं की अच्छी पैदावार के लिए मटियार दुमट भूमि सबसे अच्छी रहती है, किन्तु यदि पौधों को सन्तुलित मात्रा में खुराक देने वाली पर्याप्त खाद दी जाए व सिंचाई आदि की व्यवस्था अच्छी हो तो हलकी भूमि से भी पैदावार ली जा सकती है। क्षारीय एवं खारी भूमि गेहूं की खेती के लिए अच्छी नहीं होती है। जिस भूमि में पानी भर जाता हो, वहां भी गेहूं की खेती नहीं करनी चाहिए

भूमि की तैयारी

खेत की मिट्टी को बारीक और भुरभुरी करने के लिए गहरी जुताई करनी चाहिए। बुआई से पहले की जाने वाली परेट (सिंचाई) से पूर्व तवेदार हल (डिस्क हैरो) से जोतकर पटेला चला कर, मिट्टी को समतल कर लेना चाहिए। बुआई से पहले २५ कि। ग्रा। प्रति हेक्टेयर के हिसाब से १० प्रतिशत बी। एच। सी। मिला देने से फसल को दीमक और गुझई के आक्रमण से बचाया जा सकता है। यदि बुआई से पहले खेत में नमी नहीं है तो एक समान अंकुरण के लिए सिंचाई आवश्यक है

Sunday, 23 October 2016

A botanical name is a formal scientific name conforming to the International Code of Nomenclature for algae, fungi, and plants



















A botanical name is a formal scientific name conforming to the International Code of Nomenclature for algae, fungi, and plants (ICN) and, if it concerns a plant cultigen, the additional cultivar and/or Group epithets must conform to the International Code of Nomenclature for Cultivated Plants (ICNCP). The code of nomenclature covers "all organisms traditionally treated as algae, fungi, or plants, whether fossil or non-fossil, including blue-green algae (Cyanobacteria), chytrids, oomycetes, slime moulds and photosynthetic protists with their taxonomically related non-photosynthetic groups (but excluding Microsporidia)."[1]
The purpose of a formal name is to have a single name that is accepted and used worldwide for a particular plant or plant group. For example, the botanical name Bellis perennis denotes a plant species which is native to most of the countries of Europe and the Middle East, where it has accumulated various names in many languages. Later, the plant was introduced worldwide, bringing it into contact with more languages. English names for this plant species include: daisy,[2] English daisy,[3] and lawn daisy.[4] The cultivar Bellis perennis 'Aucubifolia' is a golden-variegated horticultural selection of this species

Type specimens and circumscription

The botanical name itself is fixed by a type, which is a particular specimen (or in some cases a group of specimens) of an organism to which the scientific name is formally attached. In other words, a type is an example that serves to anchor or centralize the defining features of that particular taxon.
The usefulness of botanical names is limited by the fact that taxonomic groups are not fixed in size; a taxon may have a varying circumscription, depending on the taxonomic system, thus, the group that a particular botanical name refers to can be quite small according to some people and quite big according to others. For example, the traditional view of the family Malvaceae has been expanded in some modern approaches to include what were formerly considered to be several closely related families. Some botanical names refer to groups that are very stable (for example Equisetaceae, Magnoliaceae) while for other names a careful check is needed to see which circumscription is being used (for example Fabaceae, Amygdaloideae, Taraxacum officinale).

Forms of plant names

Depending on rank, botanical names may be in one part (genus and above), two parts (various situations below the rank of genus) or three parts (below the rank of species). The names of cultivated plants are not necessarily similar to the botanical names, since they may instead involve "unambiguous common names" of species or genera. Cultivated plant names may also have an extra component, bringing a maximum of four parts:
in one part
Plantae (the plants)
Marchantiophyta (the liverworts)
Magnoliopsida (class including the family Magnoliaceae)
Liliidae (subclass including the family Liliaceae)
Pinophyta (the conifers)
Fagaceae (the beech family)
Betula (the birch genus)
in two parts
Acacia subg. Phyllodineae (the wattles)
lchemilla subsect. Heliodrosium
Berberis thunbergii (Japanese barberry) a species name, i.e., a combination consisting of a genus name and one epithet
Syringa 'Charisma' – a cultivar within a genus
Hydrangea Lacecap Group – a genus name and Group epithet
Lilium Darkest Red Group – a genus name and Group epithet
Paphiopedilum Greenteaicecreamandraspberries grex
snowdrop 'John Gray' – an unambiguous common name for the genus Galanthus and a cultivar epithet
in three parts
Calystegia sepium subsp. americana (American hedge bindweed), a combination consisting of a genus name and two epithets
Crataegus azarolus var. pontica (a Mediterranean hawthorn)
Bellis perennis 'Aucubifolia' – a cultivar
Brassica oleracea Gemmifera Group – a species name and Group epithet
in four parts
Scilla hispanica var. campanulata 'Rose Queen' – a cultivar within a botanical variety
apart from cultivars, the name of a plant can never have more than three parts.

Components of plant names

A botanical name in three parts, i.e., an infraspecific name (a name for a taxon below the rank of species) needs a "connecting term" to indicate rank. In the Calystegia example above, this is "subsp.", for subspecies. In botany there are many ranks below that of species (in zoology there is only one such rank, subspecies, so that this "connecting term" is not used in zoology). A name of a "subdivision of a genus" also needs a connecting term (in the Acacia example above, this is "subg.", subgenus). The connecting term is not part of the name itself.
A taxon may be indicated by a listing in more than three parts: "Saxifraga aizoon var. aizoon subvar. brevifolia f. multicaulis subf. surculosa Engl. & Irmsch." but this is a classification, not a formal botanical name. The botanical name is Saxifraga aizoon subf. surculosa Engl. & Irmsch. (ICN Art 24: Ex 1).
Generic, specific, and infraspecific botanical names are usually printed in italics. The example set by the ICN is to italicize all botanical names, including those above genus, though the ICN preface states: "The Code sets no binding standard in this respect, as typography is a matter of editorial style and tradition not of nomenclature". Most peer-reviewed scientific botanical publications do not italicize names above the rank of genus, and non-botanical scientific publications do not, which is in keeping with two of the three other kinds of scientific name: zoological and bacterial (viral names above genus are italicized, a new policy adopted in the early 1990s).
For botanical nomenclature, the ICN prescribes a two-part name or binary name for any taxon below the rank of genus down to, and including the rank of species. Taxa below the rank of species get a three part (infraspecific name).
A binary name consists of the name of a genus and an epithet.
  • In the case of a species this is a specific epithet:
Bellis perennis is the name of a species, in which perennis is the specific epithet. There is no connecting term involved, to indicate the rank.
  • In the case of a subdivision of a genus (subgenus, section, subsection, series, subseries, etc.) the name consists of the name of a genus and a subdivisional epithet. A connecting term should be placed before the subdivisional epithet to indicate the rank:
Paraserianthes sect. Falcataria
In the case of cultivated plants, there is an additional epithet which is an often non-Latin part, not written in italics. For cultivars, it is always given in single quotation marks. The cultivar, Group, or grex epithet may follow either the botanical name of the species, or the name of the genus only, or the unambiguous common name of the genus or species. The generic name, followed by a cultivar name, is often used when the parentage of a particular hybrid cultivar is not relevant in the context, or is uncertain.

Monday, 12 September 2016

पशुप्रजनन (Animal breeding) के व्यापक अर्थ के अंतर्गत पशुओं के उत्पादन, उनके पालनपोषण तथा देखभाल संबंधी

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पशुप्रजनन (Animal breeding) के व्यापक अर्थ के अंतर्गत पशुओं के उत्पादन, उनके पालनपोषण तथा देखभाल संबंधी सभी प्रकार के कार्य आते हैं, किंतु सीमित अर्थ में इस शब्द का प्रयोग प्राय: पशुओं की आनुवंशिकता (heredity) में ऐसे सुधार करने से है जिससे मनुष्य की आवश्यकता तथा इच्छानुकूल उन्नत प्रकार के पशु उपलब्ध हो सकें।

पशुओं का सुधार

पशुओं का सुधार दो प्रकार से किया जा सकता है :
प्रथम उनके वातावरण में सुधार करने से तथा दूसरा उनकी आनुवंशिकता में सुधार करने से। इन दोनों में से किसी एक में ही सुधार करने से यथोचित प्रगति नहीं हो सकती।
वातावरण में सुधार करने से पशुसंख्या (population) में परिवर्तन प्राय: बहुत शीघ्र होता है, किंतु वह परिवर्तन स्थायी नहीं होता और तभी तक रहता है जब तक नई परिस्थिति बनी रहती है। किंतु किसी पशुसमुदाय की आनुवंशकिता में सुधार द्वारा परिवर्तन प्राय: मंद गति से होता है, किंतु वह स्थायी होता है।

नस्ल तथा प्रजनन पद्धति की उत्पत्ति

प्रारंभ में पशुप्रजनक (animal breeders) पशुओं के ऐसे समूह को, जिन्हें वे अन्य पशुओं से श्रेष्ठ समझते थे, अलग कर लेते थे। फिर उनमें जो उत्तम होते थे उनका चयन कर लेते थे। इस प्रकार के चयन से समूह में कुछ ऐसे भी पशु निकल आते थे जिनमें पशुप्रजनन के मनोवांछित कुण विद्यमान होते थे। अब उनमें से जो जानवर प्रजनक (पालक) को पसंद आते थे उन्हें दूसरी पीढ़ी के जनक (parents) के रूप में चुन लेते थे और यही विधि पीढ़ी दर पीढ़ी अपनाई जाती थी। पशुपालक इस भाँति अवांछित तत्वों को निकालता जाता और वांछित गुणोंवाले पशुओं की वृद्धि पर जोर देता जाता था।

पशुप्रजनन कार्यक्रम

किसी भी पशुप्रजनन कार्यक्रम के अंतर्गत तीन बातें आवश्यक होती हैं :
  • यह निर्धारित करना कि पशुप्रजनन का आदर्श क्या है और उसका लक्ष्य क्या है,
  • पशु के व्यक्तिगत गुणों का मूल्यांकन करना तथा
  • नर और मादा का चयन करना।

आदर्श की व्याख्या

किसी भी प्रजनन-कार्यक्रम के अंतर्गत पहला कदम यह निर्धारित करना होता है कि प्रजनक का लक्ष्य क्या है क्या वह बाजार में बेचने के लिए पशुओं के उत्पादन में वृद्धि करना चाहता है, अथवा वानस्पतिक साधनों को पशूत्पादित वस्तुओं में बदलना चाहता है, अथवा किसी विशेष जलवायु के अनुकूल पशु तैयार करना चाहता है इत्यादि। एक ही फार्म में दो विभिन्न उद्देश्यों के लिए एक ही जाति के दो विभिन्न प्रकार के पशुओं का पालन लाभदायक हो सकता है, जैसे कुछ घोड़ों का गाड़ी खींचने के लिए तो कुछ का सवारी के लिए, कुछ पशुओं का पालन मांस उत्पादन के लिए तो कुछ का दुग्ध उत्पादन के लिए। ऐसा भी हो सकता है कि एक ही प्रकार के पशु में विभिन्न गुणों का सम्मिश्रण हो, जिससे एक ही पशु से दो विभिन्न आवश्यकताओं की पूर्ति हो सके।

व्यक्तिगत गुणों का मूल्यांकन

प्रत्येक पशु के गुणों का आंकना प्रजनन कार्यक्रम के अंतर्गत दूसरा कदम है।

वरण (Selection)

वरण प्रजनन कार्यक्रम के अंतर्गत तीसरा कदम है, जिसमें इस बात का आगणन (estimate) किया जाता है कि उपलब्ध जानवरों में से प्रत्येक में किस हद तक वांछित गुणों को उत्पन्न करने तथा उनके उपयोग करने, या त्यागने, की आनुवंशिकता विद्यमान है। इन गुणों के अनुसार पशुओं को अलग करना वरण या चयन कहलाता है। वरण तीन प्रकार का होता हैं :
  • समूह वरण (Mass selection),
  • परिवार वरण (Family selection) तथा
  • संतति वरण (Progeny selection)
जानवरों को पूर्णत: उनके व्यक्तिगत गुणदोषों के आधार पर प्रजनन के लिए चुनना समूह वरण, पूर्वजों और सगोत्र बंधुओं के गुणदोषों के आधार पर उनका चयन वंशावली (Pedigree) अथवा कुल वरण (Family selection) तथा संतति के गुणदोष के आधार पर किसी जानवर के प्रजननात्मक गुणों का मूल्यांकन करना संतति परीक्षण (Progeny test) कहलाता है। यदि इन तीनों प्रकार के वरणों की आपस में तुलना करें, तो इनमें से प्रत्येक के अपने अपने गुणदोष हैं।

समूह वरण

जब कुछ चुरे हुए लक्षण बहुत ही वंशानुगत होते हैं, तब औसत संतान में माँ वाप की भाँति ही ये लक्षण प्रकट होते हैं, किंतु लक्षण जब न्यून वंशानुगत होते है ता औसत संतान में उस कुल के, जिससे माँ बाप चुने गए थे, अल्प मात्रा में गुण प्रकट होंगे। समूह वरण द्वारा उन्नति वरण की तीव्रता और जनक के कुल के औसत ह्रास पर निर्भर करती है। समूह वरण द्वारा प्राणी में प्रथम अधिक स्पष्ट परिवर्तन होता है, किंतु बाद में गति धीमी पड़ जाती है और प्रभाव काफी नहीं होता।

परिवार वरण

"समूह वरण" द्वारा जितना लक्ष्य प्राप्त किया जा सकता है उतना परिवार वरण द्वारा नहीं, किंतु इससे दूसरी पीढ़ी की संतान में जनक की औसत विलक्षणता से, नीचे ह्रास नहीं होता। परिवार वरण विशेषत: उन गुणों के लिए जो थोड़ी मात्रा में आनुवंशिक हैं, अथवा जो व्यक्तिगत जानवरों में अलग-अलग निर्धारित नहीं किए जा सकते, अथवा जो कभी मादा में या कभी नर में पाए जाते हैं, अथवा दीर्घजीविता के निर्धारण के लिए जोकि जब तक कोई प्राणी विशेष प्रौढ़ या वृद्ध नहीं होता, स्पष्ट नहीं होती उपयोगी होता है।
सही परिवार वरण के लिए
(1) परिवार की संख्या बड़ी हो
(2) परिवार के सदस्यों में बिलकुल निकट का संबध हो और
(3) तुलना किए जानेवाले परिवारों में से प्रत्येक परिवार एक जैसी स्थिति तथा वातावरण में पले हों।
घोड़ों, भेड़ों तथा अन्य मवेशियों में, जिनमें एक ही माँ बाप से उत्पन्न संतति बहुत कम होती हैं, परिवार वरण अधिक महत्व का नहीं होता।

संतति वरण (Progeny Selection)

पशु जब बच्चा ही रहता है तभी उसके गुणों को देखना होता है और तभी संतति वरण लाभदायक होता है। किंतु बच्चे निम्न कोटि की आनुवंशिकता के होते हैं, अथवा इनमें किसी एक ही लिंग की विशेषता होती है। सही सही संतति परीक्षण के लिए निम्नलिखित बातें आवश्यक हैं :
(1) इसमें सभी संतानें, या कम से कम जिन चुने गए नमूने भी, समाविष्ट किए जायें,
(2) दूसरे, जनक से जिन गुणों का संतानों ने प्राप्त किया हो उनको बाद कर दिया जाय, या उनका उचित यथार्थता के साथ मूल्यांकन हो और
(3) जिनकी तुलना की जा रही हो, वे सभी संतति एक ही प्रकार के वातावरण में पली हों।

कृत्रिम वीर्यसेचन (Artificial Insemination)

विस्तृत लेख के लिये देखें - कृत्रिम वीर्यसेचन
नर का शुक्र लेकर बिना प्राकृतिक संभोग के मादा की योनि या गर्भाशय में स्थापित करने का कार्य बहुत वर्षों से प्रयोगशालाओं में, विशेषत: अश्वप्रजनन में, नपुंसकता का सामना करने के लिए होता रहा है। किंतु इसका विस्तृत प्रयोग अन्य फार्म जानवरों पर पहले पहल रूसी कार्यकर्ताओं द्वारा 20वीं शताब्दी के प्रारंभ में (1920 ई) विकसित किया गया, अन्य देशों में भी यह विशेषत: दुग्धशालाओं के मवेशियों के लिए, अपनाया गया।
कृत्रिम वीर्यसेचन के लिए नर को किसी कठपुतली (dummy) मादा के साथ मैथुन कराकर, या नर के लिंग का घर्षण कर, वीर्य को स्खलित कराकर इकट्ठा कर लिया जाता है। अब वीर्य को उचित विलयन और अंडे के पीतक (yolk) के साथ मिलाकर तनूकृत कर लिया जाता है, जिससे केवल एक बार के ही स्खलित वीर्य से अनेक मादाओं को गर्भित कराया जा सके। इस तनूकृत वीर्य को निम्न ताप पर रखकर अनेक दिनों तक गर्भाशय के योग्य रखा जा सकता है। कृत्रिम गर्भाशय से उत्पन्न संतान प्राकृतिक मैथुन द्वारा उत्पन्न संतान की ही भाँति होती है।
कृत्रिम वीर्यसेचन से प्रत्येक पशुपालन को साँड़ रखने की आवश्यकता नहीं होती और इस प्रकार वह साँड़ रखने की कठिनाई और खर्चे से बच जाता है। प्राकृतिक ढंग से गर्भाधान कराने की अपेक्षा कृत्रिम वीर्यसेचन कराने का व्यय अधिक या कम पड़ सकता है। कृत्रिम वीर्यसेचन कराने का कार्य एक ऐसे प्रशिक्षित व्यक्ति द्वारा, जो कि प्रजनन की त्रुटियों को पहचानता और उनका उपचार करता हो, किया जाता है। इससे ढोर सा प्रजनन संबंधी स्वास्थ्य अच्छा रहता है। कृत्रिम वीर्यसेचन का व्यय कम पड़े, इसके लिए पशुपालकों का कृत्रिम वीर्यसेचन संस्थाओं के साथ सहयोग करना आवश्यक है।

संगम की पद्धति (System of Mating)

माँ-बाप बननेवाले विशेष नरों और मादाओं का वरण कर लेने के पश्चात् दूसरा कदम यह निश्चित करना होता है कि किस मादा के साथ किस नर का संगम कराया जाय। यदि पशुपालक की कोई निश्चित नीति नहीं है, तो जनक और जननी बननेवाले पूरे समूह के अंतर्गत ही किसी मादा के साथ किसी भी नर का संगम कराया जाता है। यदि जोड़े का चुनाव उनके परस्पर संबंध के आधार पर होता है तो सगमंपद्धति अंत:प्रजनन (inbreeding) से लेकर जनक के पूरे समूह के संभावित वहि:प्रजनन (outbreeding) तक हो सकती है। संगम की ये पद्धतियाँ मिलाई जा सकती हैं, या उनमें हेर फेर किया जा सकता है और चयन के विभिन्न तरीकों के साथ व्यवहार में लाया जा सकता है। इस प्रकार अनेक प्रकार की प्रजनन योजनाओं को संभव किय जा सकता है।
संगम की पद्धतियाँ स्वयं किसी पितृ जीन (gene) को बहुश: घटमान या अधिक विरल नहीं बनाती, किंतु ये पितृ जीन के विभिन्न संयोजनों के अनुपात में अवश्य ही परिवर्तन ला देती हैं और जनसंख्या की परिवर्तिता (variability) को बदल दे सकती है, जिससे चयन यदि संगम की अनियमित विधि से होता है, तो अधिक प्रभावकारी हो सकता है।

अंत:प्रजनन

निकट के संबंधियों में संगम अंत:प्रजनन कहलाता है। इस पारिभाषिक शब्द का प्रयोग उनके लिए किया जाता है जिनमें युग्म के नर और नारी का परस्पर संबध कम से कम चचेरे या मौसेरे का हो। समीपवर्ती अंत:प्रजनन का परिणाम स्पष्ट और शीघ्रता से होता है। मध्यम अंत:प्रजनन अनेक पीढ़ियों तक किया जाए तो प्रभावकारी हो सकता है।
अंत:प्रजनन का प्रमुख प्रभाव समयुग्मजता (homozygosis, अर्थात् प्रत्येक संतान में एक ही गुण को पहुँचाने की योग्यता) की वृद्धि करना और नस्ल को स्पष्ट और असंबधित परिवारों में विभक्त करना होता है। अंत:प्रजनन ज्यों ज्यों आगे बढ़ता चलता है प्रत्येक परिवार अपने ही अंतर्गत अधिक समयुग्मक और अन्य परिवारों से भिन्न हो जाता है। यह परिवारों के बीच प्रभावकारी चयन की संभावना की वृद्धि करता है। समयुग्मजता में वृद्धि अधिक व्यष्टियों में उत्तरोत्तर गुणों को उत्पन्न करती है। चूँकि प्रभावी की अपेक्षा अप्रभावी गुण प्राय: बहुत कम पसंद किया जाता है, इससे व्यष्टि के गुणों में प्राय: कुछ औसत ह्रास पाया जाता है, क्योंकि यह अवांछित अप्रभावी गुणों को प्रकाश में लाता है।
जब अंत: किंतु असंबधित व्यष्टियों का संकरण कराया जाता है तब मूल पशुधन की अपेक्षा संतान में प्राय: अधिक जीवनशक्ति प्रदर्शित होती है। इस प्रकार अंत: प्रजनन से साधारणत: तत्काल घाटा होता है, किंतु कालांतर में चुने गए अंत: प्रजात वंशक्रम (inbredlines) का परस्पर अंतरासंगम (intercross) कराया जाता है, तब लाभ अवश्य होता है।

बहि:प्रजनन (Out breeding)

किसी स्पीशीज़ की किन्हीं विशेष त्रुटियों को दूर करने या वर्णसंकरता के ओज और किसी वांछित गुणों का समावेश कराने के लिए ऐसे जोड़े चुने जाते हैं जिनमें यथासंभव आपस में किसी प्रकार का संबध न रहा हो। विभिन्न नस्लों, या एक ही स्पीशीज की विभिन्न जातियों, की वर्णसंकरता से उत्पन्न संतान प्राय: असाधारण तीव्रता से वृद्धि और उच्च कोटि की जीवनशक्ति का प्रदर्शन करती है। जब इस प्रथम पीढ़ी के वर्णसंकरों का परस्पर प्रजनन कराया जाता है, तब वर्णसंकरता के ओज का प्राय: ह्रास हो जाता है। बहि:प्रजनन का सबसे अच्छा उदाहरण खच्चर (mule) है।

हल एक कृषि यंत्र है जो जमीन की जुताई के काम आता


 
हल एक कृषि यंत्र है जो जमीन की जुताई के काम आता है। इसकी सहायता से बीज बोने के पहले जमीन की आवश्यक तैयारी की जाती है। कृषि में प्रयुक्त औजारों में हल शायद सबसे प्राचीन है और जहाँ तक इतिहास की पहुँच है, हल किसी न किसी रूप में प्रचलित पाया गया है। हल से भूमि की उपरी सतह को उलट दिया जाता है जिससे नये पोषक तत्व उपर आ जाते हैं तथा खर-पतवार एवं फसलों की डंठल आदि जमीन में दब जाती है और धीरे-धीरे खाद में बदल जाते हैं। जुताई करने से जमीन में हवा का प्रवेश भी हो जाता है जिससे जमीन द्वारा पानी (नमी) बनाये रखने की शक्तबढ़ जाती है।

समसामयिक हल के विभिन्न भाग

हल के विभिन्न भाग
1. हरीस या फ्रेम (Frame)
2. जोड़ने की युक्ति
3. उँचाई नियंत्रक
4. छूरी (Knife or coulter)
5. फाल की धार (Chisel)
6. फार (Share)
7. मिट्टी पलटने की युक्ति

भूमि के उपरी परत को चीरकर, पलटकर या जोतकर उसे बुवाई या पौधा-रोपण के योग्य बनाना


भूमि के उपरी परत को चीरकर, पलटकर या जोतकर उसे बुवाई या पौधा-रोपण के योग्य बनाना जुताई या कर्षण (tillage) कहलाती है। इस कृषिकार्य में भूमि को कुछ इंचों की गहराई तक खोदकर मिट्टी कोपलट दिया जाता है, जिससे नीचे की मिट्टी ऊपर आ जाती है और वायु, पाला, वर्षा और सूर्य के प्रकाश तथा उष्मा आदि प्राकृतिक शक्तियों द्वारा प्रभावित होकर भुरभुरी हो जाती है।

परिचय

एकदम नई भूमि को जोतने के पहले पेड़ पौधे काटकर भूमि स्वच्छ कर ली जाती है। तत्पश्चात्‌ किसी भी भारी यंत्र से जुताई करते हैं जिससे मिट्टी कटती है और पलट भी जाती है। इस प्रकार कई बार जुताई करने से एक निश्चित गहराई तक मिट्टी फसल उपजाने योग्य बन जाती है। ऐसी उपजाऊ मिट्टी की गहराई साधारणत: एक फुट तक होती है। उसके नीचे की भूमि, जिसे गर्भतल कहते हैं, अनुपजाऊ रह जाती है। इस गर्भतल को भी गहरी जुताई करनेवाले यंत्र से जोतकर मिट्टी को उपजाऊ बना सकते हैं। यदि यह गर्भतल जोता न जाए और हल सर्वदा एक निश्चित गहराई तक कार्य करता रहे तो उस गहराई पर स्थित गर्भतल की ऊपरी सतह अत्यंत कठोर हो जाती है। इस कठोर तह को अंग्रेजी में प्लाऊ पैन (Plough pan) कहते हैं। यह कठोर तह कृषि के लिए अत्यंत हानिकारक सिद्ध होती है, क्योंकि वर्षा या सिंचाई से खेत में अधिक जल हो जाने पर वह इस कठोर तह को भेदकर नीचे नहीं जा पाता। अत: मिट्टी में अधिक समय तक जल भरा रहता है और अनेक प्रकार की हानियाँ उत्पन्न हो जाती हें। उन हानियों से बचने के लिए उस कठोर तह (प्लाऊ पैन) को प्रत्येक वर्ष तोड़ना अत्यंत आवश्यक हो जाता है। मिट्टी के कणों के परिमाण पर मिट्टी की बनावट (texturc) और उनके क्रम पर मिट्टी का विन्यास (structure) निर्भर है। जुताई से बनावट तथा विन्यास में परिवर्तन करके हम मिट्टी को इच्छानुसार शस्य उत्पन्न करने योग्य बना सकते हैं।
बीज बोने के लिए उच्च कोटि की मिट्टी प्राप्त करने के निमित्त सर्वप्रथम मिट्टी पलटनेवाले किसी भारी हल का उपयोग किया जाता है। तत्पश्चात्‌ हलके हल से जुताई की जाती है जिसमें बड़े ढेले न रह जाएँ और मिट्टी भुरभुरी हो जाए। यदि बड़े-बड़े ढेले हों तो बेलन (रोलर) या पाटा का उपयोग किया जाता है, जिससे ढेले फूट जाते हैं। जुताई के किसी यंत्र का उपयोग मुख्यत: मिट्टी की प्रकृति तथा ऋतु की दशा पर निर्भर है। बीज बोने के पहले अंतिम जुताई अत्यंत सावधानी से करनी चाहिए, क्योंकि मिट्टी में आर्द्रता का संरक्षण इसी अंतिम जुताई पर निर्भर है और बीज के जमने की सफलता इसी आर्द्रता पर निर्भर है। यह आर्द्रता मिट्टी की केशिका नलियों द्वारा ऊपरी तह तक पहुँचती है। ये केशिका नलियाँ कणांतरिक छिद्रों से बनती हैं। ये छिद्र जितने छोटे होंगे, केशिका नलियाँ उतनी ही पतली और सँकरी होंगी और कणांतरिक जल मिट्टी में उतना ही ऊपर तक चढ़ेगा। इन छिद्रों और इसलिए केशिका नलियों के आकर का उपयुक्त या अनुपयुक्त होना जुताई पर निर्भर है।

उद्देश्य

हल से खेत को जोतना ही जुताई नहीं कही जा सकती। हल चलाने के अतिरिक्त गुड़ाई, निराई, फावड़े से खोदना, पाटा या बेलन (रोलर) चलाना इत्यादि कार्य जुताई मे सम्मिलित हैं। इन सब क्रियाओं का मुख्य अभिप्राय यही है कि मिट्टी भुरभुरी और नरम हो जाए तथा पौधे के सफल जीवन के लिए मिट्टी में उपयुक्त परिस्थिति प्रस्तुत हो जाए। पौधों के लिए जल, वायु, उचित ताप, भाज्य पदार्थ, हानिकारक वस्तुओं की अनुपस्थिति तथा जड़ों के लिए सहायक आधार की आवश्यकता पड़ती है। ये सारी वस्तुएँ कर्षण द्वारा प्राप्त की जाती हैं और शस्य की सफलता इसी बात पर निर्भर रहती हैं कि ये उपयुक्त दशाएँ किस सीमा तक मिट्टी में संरक्षित की जा सकती हैं। अस्तु, कर्षण के मुख्य उद्देश्य निम्नलिखित हैं :
  • (1) खेतीवाले क्षेत्र में खरपतवार सब नष्ट हो जाने चाहिए।
  • (2) मिट्टी भुरभुरी हो जाए जिससे उसमें जल, वायु, ताप और प्रकाश का आवागमन और संचालन सफलतापूर्वक हो सके।
  • (3) लाभदायक जीवाणु भली भाँति अपना कार्य प्रतिपादन कर सकें।
  • (4) मिट्टी भली प्रकार वर्षा का जल सोख और धारण कर सके।
  • (5) पौधों की जड़ें सुगमतापूर्वक फैलकर पौधे के लिए भोजन प्राप्त कर सकें।
  • (6) हानिकारक कीड़ों के अंडे, बच्चे ऊपर आकर नष्ट हो जाएँ।
  • (7) खेत में डाली हुई खाद मिट्टी में भली भाँति मिल जाए।
  • (6) विलाय (घोलक) शक्तियाँ अपना कार्य भली प्रकार कर सकें जिससे पौधों को प्राप्त होने योग्य विलेय तत्व अधिक मात्रा में उपलब्ध हों।
जल, वायु और ताप में अत्यंत घनिष्ठ संबंध है। यदि मिट्टी मिट्टी में जल की मात्रा अधिक होगी तो वायु की मात्रा कम हो जाएगी, तदनुसार ताप कम हो जाएगा। इसके विपरीत यदि मिट्टी अधिक शुष्क है तो ताप अधिक हो जाएगा। ये तीनों आवश्यक दशाएँ मिट्टी की जोत (टिल्थ, द्यत्थ्द्यण्) पर निर्भर हैं। यदि जोत उत्तम है, तो मिट्टी में जल, वायु तथा ताप भी उचित रूप में हैं। यदि मिट्टी में जल अधिक या न्यून मात्रा में हो, तो उत्तम जोत प्राप्त नहीं हो सकती। अधिक जल के कारण मिट्टी चिपकने लगती है और ऐसी मिट्टी की जुताई करने से जोत नष्ट हो जाती है। जब मिट्टी सूखने लगती है तब एक ऐसी अवस्था आ जाती है कि यदि उस समय जुताई की जाए तो उत्तम जोत प्राप्त होती है। मटियार मिट्टी जब सूख जाती है तब उसमें ढेले बन जाते हैं जिनकों तोड़ना कठिन हो जाता है।

प्रकार

जुताई कई प्रकार की होती है, जैसे गहरी जुताई, छिछली जुताई, अधिक समय तक जुताई, ग्रीष्म ऋतु की जुताई, हलाई या हराई की जुताई, मध्य से बाहर की ओर या किनारे से मध्य की ओर तथा एक किनारे से दूसरे किनारे की ओर जुताई। हर प्रकार की जुताई में कुछ न कुछ विशेषता होती है। गहरी जुताई से मिट्टी अधिक गहराई तक उपजाऊ हो जाती है और यह गहरी जानेवाली जड़ों के लिए अत्यंत उपयुक्त होती है। छिछली जुताई झकड़ा जड़वाले और कम गहरी जानेवाली जड़ के पौधों के लिए उत्तम होती है। अधिक समय तक तथा ग्रीष्म ऋतु की जुताई से मिट्टी में प्रस्तुत हानिकारक कीड़े तथा उनके अंडे नष्ट हो जाते हैं। खरपतवार भी समूह नष्ट हो जाते हैं और मिट्टी की जलशोषण या जलधारण शक्ति अधिक हो जाती है। यदि खेत बहुत बड़ा है तो उसे हलाई या हराई नियम से कई भागों में बाँटकर जुताई करते हैं (हराई उतने भाग को कहते हैं जितना एक बार में सुगमता से जोता जा सकता है)। खेत यदि समतल न हो और मध्य भाग नीचा हो, तो मध्य से बाहर की ओर और यदि मध्य ऊँचा ढालुआ हो तो नीचे की ओर से ढाल के लंबवत्‌ जुताई आरंभ करके ऊँचाई की ओर समाप्त करना चाहिए। ऐसा करने से खेत धीरे-धीरे समतल हो जाता है तथा मिट्टी भी भली प्रकार जुत जाती है। परंतु यह कार्य देशी हल से नहीं किया जा सता। इसके लिए मिट्टी पलटनेवाला हल होना चाहिए। इसमें मिट्टी पलटने के लिए पंख लगा रहता है। यही कारण है कि देशी हल को वास्तव में हल नहीं कहा जा सकता, क्योंकि हल की परिभाषा है वह यंत्र जो मिट्टी को काटे और उसे खोदकर पलट दे। देशी हल से मिट्टी कटती है, परंतु पलटती नहीं। इसको हल की अल्टिवेटर (Cultivater) कहना उचित है।

जुताई के सिद्धान्त

जुताई के कुछ सिद्धांत हैं जिनका उपरिलिखित नियमों की अपेक्षा प्रत्येक दशा में पालन करना कृषक का कर्तव्य है। उपयोग से पले हल का भली भाँति निरीक्षण कर लेना चाहिए। उसका कोई भाग ढीला न हो। जूए में उसको आवश्यक ऊँचाई पर लगाएँ। यह ऊँचाई बैलों की ऊँचाई पर निर्भर है। जुताई करते समय हल की मुठिया दृढ़तापूर्वक पकड़नी चाहिए ताकि हल सीधा और आवश्यक गहराई तक जाए। कूँड़ों (हल रेखाओं) को सीधी और पास-पास काटना चाहिए अन्यथा कूँड़ों के बीच बिना जुती भूमि (अँतरा) छूँट जाती है। देशी हल से जुताई करने में अँतरा अवश्य छूटता है, जिसको समाप्त करने के लिए कई बार खेत जोतना पड़ता है। खेत की मिट्टी अधिक गीली या सूखी न हो। अधिक गीली मिट्टी से कई टुकड़े कड़े-कड़े ढोंके के हो जाते हैं और सूखी मिट्टी पर हल मिट्टी को काट नहीं पाता। उसमें इतनी आर्द्रता हो कि वह भुरभुरी हो जाए। हल चलाते समय कटी हुई मिट्टी भली भाँति उलटती जाए और पास का, पहले बना, खुला हुआ कूँड़ उस मिट्टी से भरता जाए। जोतने के पश्चात्‌ खेत समतल दिखाई पड़े और खरपतवार नष्ट हो जाएँ। जुताई करते समय हल का फार मिट्टी के ऊपर न आए। पहली जुताई के बाद प्रत्येक बार खेत को इस प्रकार जोतना चाहिए कि दूसरी जुताई द्वारा कूँड़ लंबवत्‌ कटे। सफल कर्षण के लिए इन सिद्धांतों का पालन आवश्यक है।
जुताई के लिए कोई विशेष समय निश्चित नहीं किया जा सकता। यह कार्यकाल स्थान की जलवायु तथा फसल की किस्म पर निर्भर है। जलवायु के अनुसार वर्ष को खरीफ, रबी और जायद में विभक्त किया जाता है तथा इन्हीं के अनुसार फसलें भी विभाजित होती हैं। खरीफ की फसल वर्षा ऋतु में, रबी की फसल जाड़े में तथा जायद की फसल ग्रीष्म ऋतु में होती है। प्रत्येक ऋतु की फसल बोने के पहले और काटने के बाद खेत को जोतना अत्यंत आवश्यक है। यदि कोई फसल न भी उगानी हो तो खेत को बिना जुते नहीं छोड़ना चाहिए। फसल काटने के बाद खेत को तुरंत जोतना चाहिए। रबी की फसल काटने के बाद यदि जायद फसल न बोनी हो, तो खेत को मार्च के अंत या अप्रैल के आरंभ से खरीफ की फसल बोने तक कई बार जोतना चाहिए। यह कर्षण क्रिया अधिकांश ग्रीष्म ऋतु में होनी चाहिए, जिससे मिट्टी भली प्रकार जुत जाए। इस प्रकर उसमें वर्षा के जल को धारण करने की अधिक क्षमता आ जाएगी। इसी तरह खरीफ की फसल कटने और रबी की फसल बोने के बीच के लगभग दो महीनों में खेत को आठ या दस बार भली भाँति जोतना आवश्यक है। खेत में आर्द्रता की कमी होने पर बोने से पूर्व पलेवा करना (ढेलों को चूर करना) आवश्यक है (पलेवा करने में मिट्टी को तसले में उठाकर फेंका जाता है जिससे ढेले गिरने की चोट से चूर हो जाते हैं)।

अंकुरण क्रियाजिसमें बीज एक पौधे में बदलने लगता है

 
अंकुरण क्रिया उस क्रिया को कहते हैं, जिसमें बीज एक पौधे में बदलने लगता है। इसमें अंकुरण की क्रिया के समय एक छोटा पौधा बीज से निकलने लगता है। यह मुख्य रूप से तब होता है, जब बीज को आवश्यक पदार्थ और वातावरण मिल जाता है। इसके लिए सही तापमान, जल और वायु की आवश्यकता होती है। रोशनी का हर बीज के लिए होना अनिवार्य नहीं है, लेकिन कुछ बीज बिना रोशनी के अंकुरित नहीं होते हैं

आवश्यकता

अंकुरण की क्रिया का मानव जीवन में अनिवार्य रूप से आवश्यक है। खेती के दौरान अंकुरण के कारण ही खेत में चावल, दाल, गेहूँ आदि की फसल होती है। फल वाले वृक्षों की आबादी भी इसी कारण बढ़ती है। फल पक कर नीचे गिर जाते हैं और नमी के साथ आवश्यक वातावरण मिलने के पश्चात अपने आप ही अंकुरित होने लगते हैं और जड़ निकलना भी शुरू हो जाता है। इसके बाद वह जड़ जमीन में चले जाता है और धीरे धीरे पौधा पेड़ बनने लगता है। जब तक बीज से कोई पत्ता नहीं निकलता तब तक जो क्रिया होती है, उसे अंकुरित होने की क्रिया में लिया गया है। यह क्रिया सभी प्रकार के बीजों में अलग अलग समय में होती है।
  • जल इस क्रिया के लिए जल अनिवार्य होता है। कुछ बीज के लिए जल कम और कुछ के लिए अधिक मात्रा में आवश्यक होता है।[2]
  • ऑक्सीजन बीज को भी ऑक्सीजन की आवश्यकता होती है। यह इसे चयापचय के लिए उपयोग करता है। जब बीज से पत्ते निकल आते हैं, तो वह इस के स्थान पर कार्बन-डाई-ऑक्साइड को ग्रहण करता है।
  • तापमान बहुत से बीज 60-75 F (16-24 C) के आसपास तापमान में अंकुरित होते हैं। सभी के लिए अलग अलग तापमान की आवश्यकता होती है।
  • रोशनी या अंधेरा कुछ बीज के लिए रोशनी का होना अनिवार्य होता है। यदि रोशनी न मिले तो वह अंकुरित नहीं होते और नमी के कारण सड़ने भी लगते हैं। लेकिन कई बीज अंधेरे में भी अंकुरित हो सकते हैं।

सिंचाई मिट्टी को कृत्रिम रूप से पानी देकर उसमे उपलब्ध जल की मात्रा में वृद्धि

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सिंचाई मिट्टी को कृत्रिम रूप से पानी देकर उसमे उपलब्ध जल की मात्रा में वृद्धि करने की क्रिया है और आमतौर पर इसका प्रयोग फसल उगाने के दौरान, शुष्क क्षेत्रों या पर्याप्त वर्षा ना होने की स्थिति में पौधों की जल आवश्यकता पूरी करने के लिए किया जाता है। कृषि के क्षेत्र मे इसका प्रयोग इसके अतिरिक्त निम्न कारणें से भी किया जाता है: -
  • फसल को पाले से बचाने,
  • मिट्टी को सूखकर कठोर (समेकन) बनने से रोकने,
  • धान के खेतों मे खरपतवार की वृद्धि पर लगाम लगाने, आदि।
जो कृषि अपनी जल आवश्यकताओं के लिए पूरी तरह वर्षा पर निर्भर करती है उसे वर्षा-आधारित कृषि कहते हैं। सिंचाई का अध्ययन अक्सर जल निकासी, जो पानी को प्राकृतिक या कृत्रिम रूप से किसी क्षेत्र की पृष्ट (सतह) या उपपृष्ट (उपसतह) से हटाने को कहते हैं के साथ किया जाता है।

सिंचाई की विधियाँ

कटवाँ या तोड़ विधि

यह विधि निचली भूमि में धान के खेतो की सिंचाई में प्रयुक्त होती है जबकि इसका प्रयोग कुछ और फसलों में भी किया जाता है। पानी को नाली द्वारा खेत में बिना किसी नियंत्रण के छोड़ा जाता है। यह पूरे खेत में बिना किसी दिशा निर्देश के फैल जाता है। जल के आर्थिक प्रयोग के लिये एक खेत का क्षेत्रफल 0.1 से 0.2 हे

थाला विधि

यह नकबार या क्यारी विधि के समान होता है पर क्यारी विधि में पूरी क्यारी जल से भरी जाती जबकि इस विधि मे जल सिर्फ पेड़ों के चारों तरफ के थालों मे डाला जाता है। सामान्यतः ये थाले आकार में गोल होते है कभी-कभी चौकोर भी होते हैं।
जब पेड़ छोटे होते है थाले छोटे होते है और इनका आकार पेड़ों की उम्र के साथ बढ़ता है। ये थाले सिंचाई की नाली से जुड़े रहते हैं।

नकबार या क्यारी विधि

यह सतह की सिंचाई विधियों की सबसे आम विधि है। इस विधि में खेत छोटी-छोटी क्यारियों में बांट दिया जाता हैं जिनके चारो तरफ छोटी मेड़ें बना दी जाती है पानी मुख्य नाली से खेत की एक के बाद एक नाली में डाला जाता है खेत की हर नाली क्यारियों की दो पंक्तियों को पानी की पूर्ति करती है। यह विधि उन खेतों में प्रयोग की जाती है जो आकार में बड़े होते है और पूरे खेत का समतलीकरण एक समस्या होता है।
इस स्थिति में खेत को कई पट्टियों में बांट दिया जाता है और इनपट्टियों को मेंड़ द्वारा छोटी-छोटी क्यारियों में बांट लिया जाता है इस विधि का सबसे बड़ालाभ यह है कि इस में पानी पूरे खेत में एक समान तरीके से प्रभावित रूप में डाला जा सकता है। यह पास-पास उगाई जाने वाली फसलों के लिये जैसे मूँगफली, गेहूँ, छोटे खाद्दान्न पारा घास आदि के लिये उपयुक्त विधि है। इसके अवगुण है इसमें मजदूर अधिक लगते हैं,
इस विधि में यंत्र जिन्हें ए.मीटर या एप्लीकेटर कहते हैं के द्वारा जल धीरे-धीरे लगातार बूंद-बूंद करके या छोटे फुहार के रूप में पोधो तक प्लास्टिक की पतली नलियों के माध्यम से पहुँचाया जाता है। यह विधि सिंचाई जल की अत्यंत कमी वाले स्थानो पर प्रयोग की जाती है। मुख्यतः यह नारियल, अंगूर, केला, बेर, नीबू प्रजाति, गन्ना, कपास, मक्का, टमाटर, बैंगन और प्लान्टेशन फसलों में इसका प्रयोग किया जाता है।

बौछारी सिंचाई

इस विधि में सोत्र मे पानी दबाव के साथ खेत तक ले जाया जाता है और स्वचालित छिड़काव यंत्र द्वारा पूरे खेत में बौछार द्वारा वर्षा की बूदों की तरह छिड़का जाता है। इसे ओवर हेड सिंचाई भी कहते हैं। कई प्रकार छिड़काव के यंत्र उपलब्ध हैं। सेन्टर पाइवोट सिस्टम सबसे बड़ा छिड़काव सिस्टम है जो एक मशीन द्वारा 100 हेक्टेअर क्षेत्र की सिंचाई कर सकता

Monday, 15 August 2016

पशु-चिकित्सा-विज्ञान (Veterinary medicine) में मनुष्येतर जीवों की शरीररचना

प्राचीन नगर वैशाली में अशोक स्तम्भ, जिस पर मानवों के साथ-साथ पशुओं के लिये भी चिकित्सालय बनवाने का उल्लेख है।



















                                                                                                     
पशु-चिकित्सा-विज्ञान (Veterinary medicine) में मनुष्येतर जीवों की शरीररचना (anatomy), शरीरक्रिया (physiology), विकृतिविज्ञान (pathology), भेषज (medicine) तथा शल्यकर्म (surgery) का अध्ययन होता है। पशुपालन शब्द से साधारणतया स्वस्थ पशुओं के वैज्ञानिक ढंग से आहार, पोषण, प्रजनन, एवं प्रबंध का बोध होता है। पाश्चात्य देशों में पशुपालन एवं पशुचिकित्सा दोनों भिन्न-भिन्न माने गए हैं पर भारत में ये दोनों एक दूसरे के सूचक समझे जाते हैं।

इतिहास

भारत के प्राचीन ग्रंथों से पता लगता है कि पशुपालन वैदिक आर्यों के जीवन और जीविका से पूर्णतया हिल मिल गया था। पुराणों में भी पशुओं के प्रति भारतवासियों के अगाध स्नेह का पता लगता है। अनेक पशु देवी देवताओं के वाहन माने गए हैं। इससे भी पशुओं के महत्व का पता लगता है। प्राचीन काव्यग्रंथों में भी पशुव्यवसाय का वर्णन मिलता है। बड़े बड़े राजे महाराजे तक पशुओं को चराते और उनका व्यवसाय किया करते थे। ऐसा कहा जाता है कि पांडव बंधुओं में नकुल ने अश्वचिकित्सा और सहदेव ने गोशास्त्र नामक पुस्तकें लिखी थीं। ऐतिहासिक युग में आने पर अशोक द्वारा स्थापित पशुचिकित्सालय का स्पष्ट पता लगता है। कौटिल्य ने अपने अर्थशास्त्र में अश्वों एवं हाथियों के रोगों की चिकित्सा के लिए सेना में पशुचिकित्सकों की नियुक्ति का उल्लेख किया है। अश्व, हाथी एवं गौर जाति के रोगों पर विशिष्ट पुस्तकें लिखी गई थीं, जैसे जयदत्त की अश्वविद्या तथा पालकण्य की हस्त्यायुर्वेद। पर पशुचिकित्सा के प्रशिक्षण के लिए विद्यालयों के सबंध में कोई सूचना नहीं मिलती।
विदेशों में भी पशुओं का महत्व बहुत प्राचीन काल में समझ लिया गया था। ईसा से 1900-1800 वर्ष पूर्व के ग्रंथों में पशुरोगों पर प्रयुक्त होनेवाले नुसखे पाए गए हैं। यूनान में भी ईसा से 500 से 300 वर्ष पूर्व के हिप्पोक्रेटिस, जेनोफेन, अरस्तू आदि ने पशुरोगों की चिकित्सा पर विचार किया था। ईसा के बाद गेलेन नामक चिकित्सक ने पशुओं के शरीरविज्ञान के संबंध में लिखा है। बिज़ैटिन युग में (ईसा से 5,508 वर्ष पूर्व से) पशुचिकित्सकों का वर्णन मिलता है। 18वीं और 19वीं शती में यूरोप में संक्रामक रागों के कारण पशुओं की जो भयानक क्षति हुई उससे यूरोप भर में पशुचिकित्साविद्यालय खोले जाने लगे। पशुचिकित्सा का सबसे पहला विद्यालय फ्रांस के लीओन में 1762 ई. में खुला था।
शालिहोत्र की पाण्डुलिपि के पन्ने

पशुचिकिसा विद्यालय

भारत में पहले पहल 1827 ई. में पूना में सैनिक पशुचिकित्साविद्यालय स्थापित हुआ था। फिर 1882 ई. में अजमेर में ऐसा ही दूसरा विद्यालय स्थापित हुआ। पशुरोगों के निदान के लिए सर्वप्रथम प्रयोगशाला 1890 ई. में पूना में स्थापित हुई थी, जो पीछे मुक्तेश्वर में स्थानांतरित कर दी गई। आज भी यह भारतीय पशुचिकित्साशाला के नाम से कार्य कर रही है और आज पशुचिकित्सा संबंधी अनेक खोजें वहाँ हो रही हैं। फिर धीरे धीरे अनेक नगरों में पशुचिकित्साविद्यालय खुले। ये विद्यालय बंबई, कलकत्ता, मद्रास, पटना, हैदराबाद, मथुरा, हिस्सार, गोहाटी, जबलपुर, तिरुपति, बीकानेर, मऊ, भुवनेश्वर, त्रिचूर, बंगलौर, नागपुर, रुद्रपुर और राँची में हैं। विदेशों में प्राय: सब देशों में एक या एक से अधिक पशुचिकित्सालय हैं।
भारत में सभी पशुचिकित्सा महाविद्यालय विश्वविद्यालय से संबद्ध हैं, जहाँ शिक्षार्थियो को उपाधियाँ दी जाती हैं। कुछ विद्यालयों में स्नातकोत्तर उपाधियाँ भी दी जाती हैं।
पशुचिकित्सा विद्यालयों में पशुचिकित्सक तैयार होते हैं। इन्हें विभिन्न वर्गों के जीवों के स्वास्थ्य और रोगों की देखभाल करनी पड़ती है। इन जीवों की शरीररचना, पाचनतंत्र, जननेंद्रिय, इत्यादि का तथा इनके विशेष प्रकार के रोगों और औषधोपचार का अध्ययन करना पड़ता है। पहले केवल घोड़ों पर ध्यान दिया जाता था। पीछे खेती के पशुओं पर ध्यान दिया जाने लगा। फिर खाने के काम में आनेवाले, अथवा दूध देनेवाले पशुओं पर, विशेष ध्यान दिया जाने लगा है। ऐसे पशुओं में गाय, बैल, भैस, सूअर, भेड़, बकरी, कुत्ते, बिल्लियाँ और कुक्कुट हैं। मानव स्वास्थ्य की दृष्टि से मांस और दूध देनेवाले पशुओं और पक्षियों की चिकित्सा पर विशेष ध्यान दिया जा रहा है और यह अवश्य भी है, क्योंकि रोगी पशुओं के मांस और दूध के सेवन से मनुष्यों के भी रोगग्रस्त होने का भय रहता है। प्राणिउद्यान तथा पशु पाकों में रखे घरेलू या जंगली पशुओं, पशुशालाओं, गोशालाओं और कुक्कुटशालाओं के पशुओं की भी देखभाल विकित्सकों को करनी पड़ती है।

पशुचिकित्सा का पाठ्यक्रम

पशु-चिकित्सा-महाविद्यालयों की इंटरमीडिएट उत्तीर्ण छात्रों के लिए पाठ्यावधि भारत में चार वर्षों की है, जबकि अन्य देशों में मैट्रिक उत्तीण छात्रों के लिए पाँच से सात वर्षों की रखी गई है। पाठ्य विषयों को साधारणतया दो वर्गों में विभक्त किया गया है। एक पूर्वनैदानिक (pre-clinical) पाठयक्रम और दूसरा नैदानिक (clinical) पाठ्यक्रम।
पूर्वनैदानिक पाठ्यक्रम में जो विषय पढ़ाए जाते हैं, वे निम्नलिखित हैं :
नैदानिक विषयों मे हैं :
  • (१) भेषज विज्ञान, जिसमें नैदानिक और निवारक सभी प्रकार की औषधियाँ संमिलित हैं और इनका क्षेत्र पर्याप्त विस्तृत हैं;

पशुगणना

घरेलू जानवरों के सही सही आँकड़े प्राप्त करना सर्वथा कठिन है। भारत में पशुधन और कुक्कुटों की प्रति वर्ष गणना की जाती है। सन् 1961 की गणना के अनुसार पशुओं की कुल संख्या 22.68 करोड़ है, जिसमें 17.56 करोड़ गोजातीय और 5.12 करोड़ भैंस जातीय है। संसार के समस्त गोजातीय पशुओं का लगभग छठा हिस्सा और भैंस जातियों का लगभग आधा हिस्सा भारत में है। बकरियों की संख्या छह करोड़, भेड़ों की संख्या चार करोड़, मुर्गी एवं बतखों की संख्या 12 करोड़ और घोड़ा, गदहा, खच्चर, ऊँट एवं सूअर, कुल मिलाकर एक करोड़ हैं। भारत में दूध का कुल उत्पादन 50 करोड़ मन, घी का एक करोड़ मन और अंडे का 140 करोड़ है।
हड्डी, बाल, खाल या चमड़ा, मांस तथा अंत: स्त्रावी उत्पादों का आर्थिक मूल्य करोड़ों रुपए का हो जाता है। यदि हम इसमें पशुओं के श्रमदान का मूल्य भी जोड़ लें, ता उनका मूल्य अरबों तक पहुँच जायगा।
पशु रोगों से होनेवाली क्षति के सही आँकड़े प्राप्त करना संभव नहीं है। परिमित आकलन के आधार पर भारत में इस क्षति को पशुधन के कुल मूल्य का 25ऽ मान लें तो वह बहुत बड़ी रकम होगी। संयुक्त राज्य, अमरीका, जैसे प्रगतिशील देशों में 10 प्रतिशत के आधार पर इसका आकलन किया गया है।

पशुरोग एवं उनका नियंत्रण

रोगों से पशुधन की क्षति का प्रधान कारण परजीवियों का संचार है, जिससे उनमें उर्वरा शक्ति का ह्रास, दूध एव मांस के उत्पादन में कमी तथा निकृष्ट कोटि के ऊन का उत्पादन होता है। पशुरोगों में सबसे भयंकर पशुप्लेग (rinderpest), गलाघोंटू (strangles), ऐंथ्रैक्स (anthrax) तथा जहरबाद (black quarter) हैं। खुर एवं मुँह पका रोग यूरोपीय पशुओं के लिए भंयकर रोग हैं, पर भारत में नमक द्वारा उपचार से पशु प्राय: रोगमुक्त हो जाते हैं। जुताई के समय इस रोग के फैलने से काम ठप्प हो जाते हैं। ब्रुसेलोसिस (brucellosis) यक्ष्मा या क्षय रोग, जींस डिज़ीज, स्तनकोप या थनेजा (mastitis), नाभी रोग (navel diseases), कुछ ऐसे जीवाणु रोग हैं, जो पशुपालकों एवं पशुचिकित्सकों के लिए चिंता के कारण बन जाते हैं। परोपजीवी रोगों में फैशियोलिसिस (fasciolisis), शिस्टोसोमिएसिस (schistosomiasis), बेवेसिएसिस तथा कॉक्सिडिओसिस (coccidiosis) हैं।
उपचार न होने पर सर्रा (surra) रोग से ग्रसित पशु मर जाते हैं। अफ्रीकी अश्वरोग का प्रसार भारत में अन्य देशों से हुआ है। यह बहुत ही घातक बीमारी हैं। अश्वग्रंथि (glanders) रोग का भारत से लगभग उन्मूलन हो चुका है। दमघोटू सामान्यत: नए कुक्कुटों की बीमारी है। यह रोग साधारणत: अच्छा हो जाता है लेकिन कभी कभी इस रोग से मुक्त हो जाने पर कुक्कुट निकम्मा हो जाता है।
भेड़ों की मृत्यु सामान्यत: गोटी और ब्रैक्सी (braxy) रोगों से हुआ करती है। भेड़ तथा अनय मवेशियों के लिए उभयचूष रोग चिंताजनक बीमारी है। गोटी, हैजा एवं कौक्सिडिओसिस के कारण कुक्कुट पालन उद्योग को गहरी क्षति पहुँचती है। कुक्कुटों के सेलमोनेलोसिस (salmonelosis) से मनुष्यों को भी खतरा है। शूकर ज्वर या विशूचिका (swine fever) तथा एरिसिपेलैस (erysipelas) सूअरों के प्रमुख रोग हैं। कुत्ते, बिल्लियों के रोगों में पिल्लों में भयानक संयतता, कुत्तों में रैबीज़, अंकुश कृमि, पट्टकृमि, रक्तजीवरोग, लेप्टोस्पिरोसिस (leptospirosis) आदि प्रमुख रोग हैं।
रोगों के नियंत्रण के लिए स्वच्छता के नियमों का कठोर पालन, रोगग्रस्त पशुओं का पृथक्करण तथा आयात किए हुए पशुओं का संगरोधन (quarantine) आवश्यक है। रोग एवं परजीवियों से बचाव के लिए अधिक से अधिक पुष्टाहार तथा टीका एंव लसी चिकित्सा द्वारा पशुओं की प्राकृतिक तथा कृत्रिम प्रतिकार शक्ति में वृद्धि होती है। खुर एवं मुँहपका रोग, माता रोग, क्षय रोग आदि के अन्मूलन के लिए अमरीका आस्ट्रेलिया, ग्रेट ब्रिटेन तथा यूरोप के कतिपय अन्य देशों में रोगपीड़ित पशुओं का वध करने की नीति अपनाई गई है। कतिपय रोगों के लिए प्रतिजैविक पदार्थ (antibiotic) तथा रसायनचिकित्सा (chemotherapy) बहुत प्रभावकारी सिद्ध हुई है।
कतिपय पशुरोगों के लिए रोगाणुनाशक औषधियों को मिलाकर खिलाने से सूअर तथा कुक्कुट की उन रोगों से होनेवाली क्षति बहुत ही कम हो गई है।

पशु संचारित रोग

कुछ रोग पशुओं से मनुष्यों को हो जाते हैं, ऐसे रोगों में ग्लैंडर्स, यक्ष्मा, ब्रुसेलोसिस, ऐंथ्रैक्स, प्लेग, सेलमोनेलोसिस, रैबीज़ (जलभीति), सिटेकोसिस, ऐस्परगिलोसिस (aspergillosis), मासिक रोग, क्यूफी वरगोटी (pox), अतिसार, लेप्टोस्पिरोसिस, आदि सामान्य रूप से पाए जानेवाले रोग हैं। दूषित मांस खाने से मांस के ऐल्कालायड विष का कुप्रभाव हो जाता है। उपभोक्ताओं के स्वास्थ्य की रक्षा के लिए पशुओं से प्राप्त होनेवाले खाद्य पदार्थों का पशुचिकित्सकों द्वारा सतत निरीक्षण सर्वथा आवश्यक है।

भारतीय अर्थव्यवस्था में कृषि एवं पशुपालन का विशेष महत्व

पशुपालन कृषि विज्ञान की वह शाखा है जिसके अंतर्गत पालतू पशुओं के विभिन्न पक्षों जैसे भोजन, आश्रय, स्वास्थ्य, प्रजनन आदि का अध्ययन किया जाता है। पशुपालन का पठन-पाठन विश्व के विभिन्न विश्वविद्यालयों में एक महत्वपूर्ण विषय के रूप में किया जा रहा है।

परिचय

भारतीय अर्थव्यवस्था में कृषि एवं पशुपालन का विशेष महत्व है। सकल घरेलू कृषि उत्पाद में पशुपालन का 28-30 प्रतिशत का योगदान सराहनीय है जिसमें दुग्ध एक ऐसा उत्पाद है जिसका योगदान सर्वाधिक है। भारत में विश्व की कुल संख्या का 15 प्रतिशत गायें एवं 55 प्रतिशत भैंसें है और देश के कुल दुग्ध उत्पादन का 53 प्रतिशत भैंसों व 43 प्रतिशत गायों से प्राप्त होता है। भारत लगभग 121.8 मिलियन टन दुग्ध उत्पादन करके विश्व में प्रथम स्थान पर है जो कि एक मिसाल है और उत्तर प्रदेश इसमें अग्रणी है। यह उपलब्धि पशुपालन से जुड़े विभिन्न पहलुओं जैसे मवेशियों की नस्ल, पालन-पोषण, स्वास्थ्य एवं आवास प्रबंधन इत्यादि में किए गये अनुसंधान एवं उसके प्रचार-प्रसार का परिणाम है। लेकिन आज भी कुछ अन्य देशों की तुलना में हमारे पशुओं का दुग्ध उत्पादन अत्यन्त कम है और इस दिशा में सुधार की बहुत संभावनायें है।
छोटे, भूमिहीन तथा सीमान्त किसान जिनके पास फसल उगाने एवं बड़े पशु पालने के अवसर सीमित है, छोटे पशुओं जैसे भेड़-बकरियाँ, सूकर एवं मुर्गीपालन रोजी-रोटी का साधन व गरीबी से निपटने का आधार है। विश्व में हमारा स्थान बकरियों की संख्या में दूसरा, भेड़ों की संख्या में तीसरा एवं कुक्कुट संख्या में सातवाँ है। कम खर्चे में, कम स्थान एवं कम मेहनत से ज्यादा मुनाफा कमाने के लिए छोटे पशुओं का अहम योगदान है। अगर इनसे सम्बंधित उपलब्ध नवीनतम तकनीकियों का व्यापक प्रचार-प्रसार किया जाय तो निःसंदेह ये छोटे पशु गरीबों के आर्थिक विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं।
भारतीय अर्थव्यवस्था में पशुपालन का बहुत ही महत्वपूर्ण स्थान है। देश की लगभग 70 प्रतिशत आबादी कृषि एवं पशुपालन पर निर्भर है। छोटे व सीमांत किसानों के पास कुल कृषि भूमि की 30 प्रतिशत जोत है। इसमें 70 प्रतिशत कृषक पशुपालन व्यवसाय से जुड़े है जिनके पास कुल पशुधन का 80 प्रतिशत भाग मौजूद है। स्पष्ट है कि देश का अधिकांश पशुधन, आर्थिक रूप से निर्बल वर्ग के पास है। भारत में लगभग 19.91 करोड़ गाय, 10.53 करोड़ भैंस, 14.55 करोड़ बकरी, 7.61 करोड़ भेड़, 1.11 करोड़ सूकर तथा 68.88 करोड़ मुर्गी का पालन किया जा रहा है। भारत 121.8 मिलियन टन दुग्धउत्पादन के साथ विश्व में प्रथम, अण्डा उत्पादन में 53200 करोड़ के साथ विश्व में तृतीय तथा मांस उत्पादन में सातवें स्थान पर है। यही कारण है कि कृषि क्षेत्र में जहाँ हम मात्र 1-2 प्रतिशत की वार्षिक वृद्धि दर प्राप्त कर रहे हैं वहीं पशुपालन से 4-5 प्रतिशत। इस तरह पशुपालन व्यवसाय में ग्रामीणों को रोजगार प्रदान करने तथा उनके सामाजिक एवं आर्थिक स्तर को ऊँचा उठाने की अपार सम्भावनायें हैं।

पशुपालन कार्य

वर्ष के विभिन्न महीनों में पशुपालन से सम्बन्धित कार्य (पशुपालन कलेण्डर) इस प्रकार हैं-

अप्रैल (चैत्र)

  • 1. खुरपका-मुँहपका रोग से बचाव का टीका लगवायें।
  • 2. जायद के हरे चारे की बुआई करें, बरसीम चारा बीज उत्पादन हेतु कटाई कार्य करें।
  • 3. अधिक आय के लिए स्वच्छ दुग्ध उत्पादन करें।
  • 4. अन्तः एवं बाह्य परजीवी का बचाव दवा स्नान/दवा पान से करें।

मई (बैशाख)

  • 1. गलाघोंटू तथा लंगड़िया बुखार का टीका सभी पशुओं में लगवायें।
  • 2. पशुओं को हरा चारा पर्याप्त मात्रा में खिलायें।
  • 3. पशु को स्वच्छ पानी पिलायें।
  • 4. पशु को सुबह एवं सायं नहलायें।
  • 5. पशु को लू एवं गर्मी से बचाने की व्यवस्था करें।
  • 6. परजीवी से बचाव हेतु पशुओं में उपचार करायें।
  • 7. बांझपन की चिकित्सा करवायें तथा गर्भ परीक्षण करायें।

जून (जेठ)

  • 1. गलाघोंटू तथा लंगड़िया बुखार का टीका अवशेष पशुओं में लगवायें।
  • 2. पशु को लू से बचायें।
  • 3. हरा चारा पर्याप्त मात्रा में दें।
  • 4. परजीवी निवारण हेतु दवा पशुओं को पिलवायें।
  • 5. खरीफ के चारे मक्का, लोबिया के लिए खेत की तैयारी करें।
  • 6. बांझ पशुओं का उपचार करायें।
  • 7. सूखे खेत की चरी न खिलायें अन्यथा जहर वाद का डर रहेगा।

जुलाई (आषाढ़)

  • 1. गलाघोंटू तथा लंगड़िया बुखार का टीका शेष पशुओं में लगवायें।
  • 2. खरीफ चारा की बुआई करें तथा जानकारी प्राप्त करें।
  • 3. पशुओं को अन्तः कृमि की दवा पान करायें।
  • 4. वर्षा ऋतु में पशुओं के रहने की उचित व्यवस्था करें।
  • 5. ब्रायलर पालन करें, आर्थिक आय बढ़ायें।
  • 6. पशु दुहान के समय खाने को चारा डाल दें।
  • 7. पशुओं को खड़िया का सेवन करायें।
  • 8. कृत्रिम गर्भाधान अपनायें।

अगस्त (सावन)

  • 1. नये आये पशुओं तथा अवशेष पशुओं में गलाघोंटू तथा लंगड़िया बुखार का टीकाकरण करवायें।
  • 2. लिवर फ्लूक के लिए दवा पान करायें।
  • 3. गर्भित पशुओं की उचित देखभाल करें।
  • 4. ब्याये पशुओं को अजवाइन, सोंठ तथा गुड़ खिलायें। देख लें कि जेर निकल गया है।
  • 5. जेर न निकलनें पर पशु चिकित्सक से सम्पर्क करें।
  • 6. भेड़/बकरियों को परजीवी की दवा अवश्य पिलायें।

सितम्बर (भादौ)

  • 1. उत्पन्न संतति को खीस (कोलेस्ट्रम) अवश्य पिलायें।
  • 2. अवशेष पशुओं में एच.एस. तथा बी.क्यू. का टीका लगवायें।
  • 3. मुँहपका तथा खुरपका का टीका लगवायें।
  • 4. पशुओं की डिवर्मिंग करायें।
  • 5. भैंसों के नवजात शिशुओं का विशेष ध्यान रखें।
  • 6. ब्याये पशुओं को खड़िया पिलायें।
  • 7. गर्भ परीक्षण एवं कृत्रिम गर्भाधान करायें।
  • 8. तालाब में पशुओं को न जाने दें।
  • 9. दुग्ध में छिछड़े आने पर थनैला रोग की जाँच अस्पताल पर करायें।
  • 10. खीस पिलाकर रोग निरोधी क्षमता बढ़ावें।

अक्टूबर (क्वार/आश्विन)

  • 1. खुरपका-मुँहपका का टीका अवश्य लगवायें।
  • 2. बरसीम एवं रिजका के खेत की तैयारी एवं बुआई करें।
  • 3. निम्न गुणवत्ता के पशुओं का बधियाकरण करवायें।
  • 4. उत्पन्न संततियों की उचित देखभाल करें
  • 5. स्वच्छ जल पशुओं को पिलायें।
  • 6. दुहान से पूर्व अयन को धोयें।

नवम्बर (कार्तिक)

  • 1. खुरपका-मुँहपका का टीका अवश्य लगवायें।
  • 2. कृमिनाषक दवा का सेवन करायें।
  • 3. पशुओं को संतुलित आहार दें।
  • 4. बरसीम तथा जई अवश्य बोयें।
  • 5. लवण मिश्रण खिलायें।
  • 6. थनैला रोग होने पर उपचार करायें।

दिसम्बर (अगहन/मार्गशीर्ष)

  • 1. पशुओं का ठंड से बचाव करें, परन्तु झूल डालने के बाद आग से दूर रखें।
  • 2. बरसीम की कटाई करें।
  • 3. वयस्क तथा बच्चों को पेट के कीड़ों की दवा पिलायें।
  • 4. खुरपका-मुँहपका रोग का टीका लगवायें।
  • 5. सूकर में स्वाईन फीवर का टीका अवश्य लगायें।

जनवरी (पौष)

  • 1. पशुओं का शीत से बचाव करें।
  • 2. खुरपका-मुँहपका का टीका लगवायें।
  • 3. उत्पन्न संतति का विशेष ध्यान रखें।
  • 4. बाह्य परजीवी से बचाव के लिए दवा स्नान करायें।
  • 5. दुहान से पहले अयन को गुनगुने पानी से धो लें।

फरवरी (माघ)

  • 1. खुरपका-मुँहपका का टीका लगवाकर पशुओं को सुरक्षितकरें।
  • 2. जिन पशुओं में जुलाई अगस्त में टीका लग चुका है, उन्हें पुनः टीके लगवायें।
  • 3. बाह्य परजीवी तथा अन्तः परजीवी की दवा पिलवायें।
  • 4. कृत्रिम गर्भाधान करायें।
  • 5. बांझपन की चिकित्सा एवं गर्भ परीक्षण करायें।
  • 6. बरसीम का बीज तैयार करें।
  • 7. पशुओं को ठण्ड से बचाव का प्रबन्ध करें।

मार्च (फागुन)

  • 1. पशुशाला की सफाई व पुताई करायें।
  • 2. बधियाकरण करायें।
  • 3. खेत में चरी, सूडान तथा लोबिया की बुआई करें।
  • 4. मौसम में परिवर्तन से पशु का बचाव करें

पशु प्रजनन फार्म तथा सुविधायें



 
क्र0सं0
प्रक्षेत्र का नाम
क्षेत्रफल
हे0 में
कृषि कुल
क्षे0हे0
कुल पशुधन
पशुधन
कृषि
1.
आराजीलाइन्स वाराणसी
75.22
60.00
342
गंगातीरी पशुओं का संरक्षण एवं पालन तथा सूकर पालन (संकरवर्ण)
चारा एवं बीजों का उत्पादन
2.
आटा जालौन
27.84
72.94
243
साहीवाल, हरियाना, थारपाकर एवं संकरवर्ण बछड़ों तथा जालौनी नस्ल के भेड़ों का पालन
चारा एवं बीजों का उत्पादन
3.
बाबूगढ़ गाजियाबाद
293.08
226.80
604
हरियाना, जर्सी एवं हरियानाX जर्सी Z पशुओं का सरंक्षण एवं पालन डी0एफ0एस0 केन्द्र
चारा एवं बीजों का उत्पादन एवं सवंर्द्धन
4.
भरारी, झॉसी
231.78
146.44
418
थारपाकर, साहीवालX जर्सी एवं नाली नस्ल की भेड़ों का पालन एवं संरक्षण
चारा एवं बीजों का उत्पादन
5.
चकगंजरिया, लखनऊ
396.98
166.00
549
साहीवाल, थारपाकर, साहीवालX जर्सी पशुओं का पालन एवं संरक्षण, संतति परीक्षण याजना, अश्व एवं गदर्भ प्रजनन, कुक्कुट पालन, डी0एफ0एस0, त्रैमासिक कुक्कुट पाठयक्रम पशुधन विकास सहायक प्रशिक्षण केन्द्र
 
चारा एवं बीजों का उत्पादन
6.
हस्तिनापुर मेरठ
527.58
243.39
682
मुर्रा, भैंस, हरियानाX जर्सी पशुओं का पालन एवं संरक्षण
चारा एवं बीजों का उत्पादन तथा धान उत्पादन
7.
मंझरा, लखीमपुर खीरी
384.27
248.00
380
मुर्रा भैसों का पालन एवं संरक्षण तथा डी0एफ0एस0 केन्द्र
चारा एवं बीजों का उत्पादन
8.
निबलेट बाराबंकी
237.95
72.22
92
विभिन्न प्रक्षेत्रों के ब्रुसेल्ला रोग ग्रसित पशुओं का रख-रखाव तथा डी0एफ0एस0 केन्द्र, सूकर पालन
चारा एवं बीजों का उत्पादन तथा धान उत्पादन
9.
नीलगॉव सीतापुर
772.51
294.00
50
मुर्रा भैंस, हरियाना, हरियानाXtlhZ गायों का पालन एवं संरक्षण, सूकर पालन इकाई
चारा एवं बीजों का उत्पादन
10.
सैदपुर, ललितपुर
803.07
605.30
547
भदावरी भैंस एवं हरियाना गायों का पालन एवं संरक्षण तथा नाली भेड़ पालन
चारा एवं बीजों का उत्पादन
11.
भदावरी भैंस एवं जमुनापारी बकरी प्रक्षेत्र, इटावा
74.85
 
70
भदावरी भैंस एवं जमुनापारी बकरी की महत्वपूर्ण देशी नस्लों को सुरक्षित रखना
चारा उत्पादन