Monday, 15 August 2016

पशु-चिकित्सा-विज्ञान (Veterinary medicine) में मनुष्येतर जीवों की शरीररचना

प्राचीन नगर वैशाली में अशोक स्तम्भ, जिस पर मानवों के साथ-साथ पशुओं के लिये भी चिकित्सालय बनवाने का उल्लेख है।



















                                                                                                     
पशु-चिकित्सा-विज्ञान (Veterinary medicine) में मनुष्येतर जीवों की शरीररचना (anatomy), शरीरक्रिया (physiology), विकृतिविज्ञान (pathology), भेषज (medicine) तथा शल्यकर्म (surgery) का अध्ययन होता है। पशुपालन शब्द से साधारणतया स्वस्थ पशुओं के वैज्ञानिक ढंग से आहार, पोषण, प्रजनन, एवं प्रबंध का बोध होता है। पाश्चात्य देशों में पशुपालन एवं पशुचिकित्सा दोनों भिन्न-भिन्न माने गए हैं पर भारत में ये दोनों एक दूसरे के सूचक समझे जाते हैं।

इतिहास

भारत के प्राचीन ग्रंथों से पता लगता है कि पशुपालन वैदिक आर्यों के जीवन और जीविका से पूर्णतया हिल मिल गया था। पुराणों में भी पशुओं के प्रति भारतवासियों के अगाध स्नेह का पता लगता है। अनेक पशु देवी देवताओं के वाहन माने गए हैं। इससे भी पशुओं के महत्व का पता लगता है। प्राचीन काव्यग्रंथों में भी पशुव्यवसाय का वर्णन मिलता है। बड़े बड़े राजे महाराजे तक पशुओं को चराते और उनका व्यवसाय किया करते थे। ऐसा कहा जाता है कि पांडव बंधुओं में नकुल ने अश्वचिकित्सा और सहदेव ने गोशास्त्र नामक पुस्तकें लिखी थीं। ऐतिहासिक युग में आने पर अशोक द्वारा स्थापित पशुचिकित्सालय का स्पष्ट पता लगता है। कौटिल्य ने अपने अर्थशास्त्र में अश्वों एवं हाथियों के रोगों की चिकित्सा के लिए सेना में पशुचिकित्सकों की नियुक्ति का उल्लेख किया है। अश्व, हाथी एवं गौर जाति के रोगों पर विशिष्ट पुस्तकें लिखी गई थीं, जैसे जयदत्त की अश्वविद्या तथा पालकण्य की हस्त्यायुर्वेद। पर पशुचिकित्सा के प्रशिक्षण के लिए विद्यालयों के सबंध में कोई सूचना नहीं मिलती।
विदेशों में भी पशुओं का महत्व बहुत प्राचीन काल में समझ लिया गया था। ईसा से 1900-1800 वर्ष पूर्व के ग्रंथों में पशुरोगों पर प्रयुक्त होनेवाले नुसखे पाए गए हैं। यूनान में भी ईसा से 500 से 300 वर्ष पूर्व के हिप्पोक्रेटिस, जेनोफेन, अरस्तू आदि ने पशुरोगों की चिकित्सा पर विचार किया था। ईसा के बाद गेलेन नामक चिकित्सक ने पशुओं के शरीरविज्ञान के संबंध में लिखा है। बिज़ैटिन युग में (ईसा से 5,508 वर्ष पूर्व से) पशुचिकित्सकों का वर्णन मिलता है। 18वीं और 19वीं शती में यूरोप में संक्रामक रागों के कारण पशुओं की जो भयानक क्षति हुई उससे यूरोप भर में पशुचिकित्साविद्यालय खोले जाने लगे। पशुचिकित्सा का सबसे पहला विद्यालय फ्रांस के लीओन में 1762 ई. में खुला था।
शालिहोत्र की पाण्डुलिपि के पन्ने

पशुचिकिसा विद्यालय

भारत में पहले पहल 1827 ई. में पूना में सैनिक पशुचिकित्साविद्यालय स्थापित हुआ था। फिर 1882 ई. में अजमेर में ऐसा ही दूसरा विद्यालय स्थापित हुआ। पशुरोगों के निदान के लिए सर्वप्रथम प्रयोगशाला 1890 ई. में पूना में स्थापित हुई थी, जो पीछे मुक्तेश्वर में स्थानांतरित कर दी गई। आज भी यह भारतीय पशुचिकित्साशाला के नाम से कार्य कर रही है और आज पशुचिकित्सा संबंधी अनेक खोजें वहाँ हो रही हैं। फिर धीरे धीरे अनेक नगरों में पशुचिकित्साविद्यालय खुले। ये विद्यालय बंबई, कलकत्ता, मद्रास, पटना, हैदराबाद, मथुरा, हिस्सार, गोहाटी, जबलपुर, तिरुपति, बीकानेर, मऊ, भुवनेश्वर, त्रिचूर, बंगलौर, नागपुर, रुद्रपुर और राँची में हैं। विदेशों में प्राय: सब देशों में एक या एक से अधिक पशुचिकित्सालय हैं।
भारत में सभी पशुचिकित्सा महाविद्यालय विश्वविद्यालय से संबद्ध हैं, जहाँ शिक्षार्थियो को उपाधियाँ दी जाती हैं। कुछ विद्यालयों में स्नातकोत्तर उपाधियाँ भी दी जाती हैं।
पशुचिकित्सा विद्यालयों में पशुचिकित्सक तैयार होते हैं। इन्हें विभिन्न वर्गों के जीवों के स्वास्थ्य और रोगों की देखभाल करनी पड़ती है। इन जीवों की शरीररचना, पाचनतंत्र, जननेंद्रिय, इत्यादि का तथा इनके विशेष प्रकार के रोगों और औषधोपचार का अध्ययन करना पड़ता है। पहले केवल घोड़ों पर ध्यान दिया जाता था। पीछे खेती के पशुओं पर ध्यान दिया जाने लगा। फिर खाने के काम में आनेवाले, अथवा दूध देनेवाले पशुओं पर, विशेष ध्यान दिया जाने लगा है। ऐसे पशुओं में गाय, बैल, भैस, सूअर, भेड़, बकरी, कुत्ते, बिल्लियाँ और कुक्कुट हैं। मानव स्वास्थ्य की दृष्टि से मांस और दूध देनेवाले पशुओं और पक्षियों की चिकित्सा पर विशेष ध्यान दिया जा रहा है और यह अवश्य भी है, क्योंकि रोगी पशुओं के मांस और दूध के सेवन से मनुष्यों के भी रोगग्रस्त होने का भय रहता है। प्राणिउद्यान तथा पशु पाकों में रखे घरेलू या जंगली पशुओं, पशुशालाओं, गोशालाओं और कुक्कुटशालाओं के पशुओं की भी देखभाल विकित्सकों को करनी पड़ती है।

पशुचिकित्सा का पाठ्यक्रम

पशु-चिकित्सा-महाविद्यालयों की इंटरमीडिएट उत्तीर्ण छात्रों के लिए पाठ्यावधि भारत में चार वर्षों की है, जबकि अन्य देशों में मैट्रिक उत्तीण छात्रों के लिए पाँच से सात वर्षों की रखी गई है। पाठ्य विषयों को साधारणतया दो वर्गों में विभक्त किया गया है। एक पूर्वनैदानिक (pre-clinical) पाठयक्रम और दूसरा नैदानिक (clinical) पाठ्यक्रम।
पूर्वनैदानिक पाठ्यक्रम में जो विषय पढ़ाए जाते हैं, वे निम्नलिखित हैं :
नैदानिक विषयों मे हैं :
  • (१) भेषज विज्ञान, जिसमें नैदानिक और निवारक सभी प्रकार की औषधियाँ संमिलित हैं और इनका क्षेत्र पर्याप्त विस्तृत हैं;

पशुगणना

घरेलू जानवरों के सही सही आँकड़े प्राप्त करना सर्वथा कठिन है। भारत में पशुधन और कुक्कुटों की प्रति वर्ष गणना की जाती है। सन् 1961 की गणना के अनुसार पशुओं की कुल संख्या 22.68 करोड़ है, जिसमें 17.56 करोड़ गोजातीय और 5.12 करोड़ भैंस जातीय है। संसार के समस्त गोजातीय पशुओं का लगभग छठा हिस्सा और भैंस जातियों का लगभग आधा हिस्सा भारत में है। बकरियों की संख्या छह करोड़, भेड़ों की संख्या चार करोड़, मुर्गी एवं बतखों की संख्या 12 करोड़ और घोड़ा, गदहा, खच्चर, ऊँट एवं सूअर, कुल मिलाकर एक करोड़ हैं। भारत में दूध का कुल उत्पादन 50 करोड़ मन, घी का एक करोड़ मन और अंडे का 140 करोड़ है।
हड्डी, बाल, खाल या चमड़ा, मांस तथा अंत: स्त्रावी उत्पादों का आर्थिक मूल्य करोड़ों रुपए का हो जाता है। यदि हम इसमें पशुओं के श्रमदान का मूल्य भी जोड़ लें, ता उनका मूल्य अरबों तक पहुँच जायगा।
पशु रोगों से होनेवाली क्षति के सही आँकड़े प्राप्त करना संभव नहीं है। परिमित आकलन के आधार पर भारत में इस क्षति को पशुधन के कुल मूल्य का 25ऽ मान लें तो वह बहुत बड़ी रकम होगी। संयुक्त राज्य, अमरीका, जैसे प्रगतिशील देशों में 10 प्रतिशत के आधार पर इसका आकलन किया गया है।

पशुरोग एवं उनका नियंत्रण

रोगों से पशुधन की क्षति का प्रधान कारण परजीवियों का संचार है, जिससे उनमें उर्वरा शक्ति का ह्रास, दूध एव मांस के उत्पादन में कमी तथा निकृष्ट कोटि के ऊन का उत्पादन होता है। पशुरोगों में सबसे भयंकर पशुप्लेग (rinderpest), गलाघोंटू (strangles), ऐंथ्रैक्स (anthrax) तथा जहरबाद (black quarter) हैं। खुर एवं मुँह पका रोग यूरोपीय पशुओं के लिए भंयकर रोग हैं, पर भारत में नमक द्वारा उपचार से पशु प्राय: रोगमुक्त हो जाते हैं। जुताई के समय इस रोग के फैलने से काम ठप्प हो जाते हैं। ब्रुसेलोसिस (brucellosis) यक्ष्मा या क्षय रोग, जींस डिज़ीज, स्तनकोप या थनेजा (mastitis), नाभी रोग (navel diseases), कुछ ऐसे जीवाणु रोग हैं, जो पशुपालकों एवं पशुचिकित्सकों के लिए चिंता के कारण बन जाते हैं। परोपजीवी रोगों में फैशियोलिसिस (fasciolisis), शिस्टोसोमिएसिस (schistosomiasis), बेवेसिएसिस तथा कॉक्सिडिओसिस (coccidiosis) हैं।
उपचार न होने पर सर्रा (surra) रोग से ग्रसित पशु मर जाते हैं। अफ्रीकी अश्वरोग का प्रसार भारत में अन्य देशों से हुआ है। यह बहुत ही घातक बीमारी हैं। अश्वग्रंथि (glanders) रोग का भारत से लगभग उन्मूलन हो चुका है। दमघोटू सामान्यत: नए कुक्कुटों की बीमारी है। यह रोग साधारणत: अच्छा हो जाता है लेकिन कभी कभी इस रोग से मुक्त हो जाने पर कुक्कुट निकम्मा हो जाता है।
भेड़ों की मृत्यु सामान्यत: गोटी और ब्रैक्सी (braxy) रोगों से हुआ करती है। भेड़ तथा अनय मवेशियों के लिए उभयचूष रोग चिंताजनक बीमारी है। गोटी, हैजा एवं कौक्सिडिओसिस के कारण कुक्कुट पालन उद्योग को गहरी क्षति पहुँचती है। कुक्कुटों के सेलमोनेलोसिस (salmonelosis) से मनुष्यों को भी खतरा है। शूकर ज्वर या विशूचिका (swine fever) तथा एरिसिपेलैस (erysipelas) सूअरों के प्रमुख रोग हैं। कुत्ते, बिल्लियों के रोगों में पिल्लों में भयानक संयतता, कुत्तों में रैबीज़, अंकुश कृमि, पट्टकृमि, रक्तजीवरोग, लेप्टोस्पिरोसिस (leptospirosis) आदि प्रमुख रोग हैं।
रोगों के नियंत्रण के लिए स्वच्छता के नियमों का कठोर पालन, रोगग्रस्त पशुओं का पृथक्करण तथा आयात किए हुए पशुओं का संगरोधन (quarantine) आवश्यक है। रोग एवं परजीवियों से बचाव के लिए अधिक से अधिक पुष्टाहार तथा टीका एंव लसी चिकित्सा द्वारा पशुओं की प्राकृतिक तथा कृत्रिम प्रतिकार शक्ति में वृद्धि होती है। खुर एवं मुँहपका रोग, माता रोग, क्षय रोग आदि के अन्मूलन के लिए अमरीका आस्ट्रेलिया, ग्रेट ब्रिटेन तथा यूरोप के कतिपय अन्य देशों में रोगपीड़ित पशुओं का वध करने की नीति अपनाई गई है। कतिपय रोगों के लिए प्रतिजैविक पदार्थ (antibiotic) तथा रसायनचिकित्सा (chemotherapy) बहुत प्रभावकारी सिद्ध हुई है।
कतिपय पशुरोगों के लिए रोगाणुनाशक औषधियों को मिलाकर खिलाने से सूअर तथा कुक्कुट की उन रोगों से होनेवाली क्षति बहुत ही कम हो गई है।

पशु संचारित रोग

कुछ रोग पशुओं से मनुष्यों को हो जाते हैं, ऐसे रोगों में ग्लैंडर्स, यक्ष्मा, ब्रुसेलोसिस, ऐंथ्रैक्स, प्लेग, सेलमोनेलोसिस, रैबीज़ (जलभीति), सिटेकोसिस, ऐस्परगिलोसिस (aspergillosis), मासिक रोग, क्यूफी वरगोटी (pox), अतिसार, लेप्टोस्पिरोसिस, आदि सामान्य रूप से पाए जानेवाले रोग हैं। दूषित मांस खाने से मांस के ऐल्कालायड विष का कुप्रभाव हो जाता है। उपभोक्ताओं के स्वास्थ्य की रक्षा के लिए पशुओं से प्राप्त होनेवाले खाद्य पदार्थों का पशुचिकित्सकों द्वारा सतत निरीक्षण सर्वथा आवश्यक है।

भारतीय अर्थव्यवस्था में कृषि एवं पशुपालन का विशेष महत्व

पशुपालन कृषि विज्ञान की वह शाखा है जिसके अंतर्गत पालतू पशुओं के विभिन्न पक्षों जैसे भोजन, आश्रय, स्वास्थ्य, प्रजनन आदि का अध्ययन किया जाता है। पशुपालन का पठन-पाठन विश्व के विभिन्न विश्वविद्यालयों में एक महत्वपूर्ण विषय के रूप में किया जा रहा है।

परिचय

भारतीय अर्थव्यवस्था में कृषि एवं पशुपालन का विशेष महत्व है। सकल घरेलू कृषि उत्पाद में पशुपालन का 28-30 प्रतिशत का योगदान सराहनीय है जिसमें दुग्ध एक ऐसा उत्पाद है जिसका योगदान सर्वाधिक है। भारत में विश्व की कुल संख्या का 15 प्रतिशत गायें एवं 55 प्रतिशत भैंसें है और देश के कुल दुग्ध उत्पादन का 53 प्रतिशत भैंसों व 43 प्रतिशत गायों से प्राप्त होता है। भारत लगभग 121.8 मिलियन टन दुग्ध उत्पादन करके विश्व में प्रथम स्थान पर है जो कि एक मिसाल है और उत्तर प्रदेश इसमें अग्रणी है। यह उपलब्धि पशुपालन से जुड़े विभिन्न पहलुओं जैसे मवेशियों की नस्ल, पालन-पोषण, स्वास्थ्य एवं आवास प्रबंधन इत्यादि में किए गये अनुसंधान एवं उसके प्रचार-प्रसार का परिणाम है। लेकिन आज भी कुछ अन्य देशों की तुलना में हमारे पशुओं का दुग्ध उत्पादन अत्यन्त कम है और इस दिशा में सुधार की बहुत संभावनायें है।
छोटे, भूमिहीन तथा सीमान्त किसान जिनके पास फसल उगाने एवं बड़े पशु पालने के अवसर सीमित है, छोटे पशुओं जैसे भेड़-बकरियाँ, सूकर एवं मुर्गीपालन रोजी-रोटी का साधन व गरीबी से निपटने का आधार है। विश्व में हमारा स्थान बकरियों की संख्या में दूसरा, भेड़ों की संख्या में तीसरा एवं कुक्कुट संख्या में सातवाँ है। कम खर्चे में, कम स्थान एवं कम मेहनत से ज्यादा मुनाफा कमाने के लिए छोटे पशुओं का अहम योगदान है। अगर इनसे सम्बंधित उपलब्ध नवीनतम तकनीकियों का व्यापक प्रचार-प्रसार किया जाय तो निःसंदेह ये छोटे पशु गरीबों के आर्थिक विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं।
भारतीय अर्थव्यवस्था में पशुपालन का बहुत ही महत्वपूर्ण स्थान है। देश की लगभग 70 प्रतिशत आबादी कृषि एवं पशुपालन पर निर्भर है। छोटे व सीमांत किसानों के पास कुल कृषि भूमि की 30 प्रतिशत जोत है। इसमें 70 प्रतिशत कृषक पशुपालन व्यवसाय से जुड़े है जिनके पास कुल पशुधन का 80 प्रतिशत भाग मौजूद है। स्पष्ट है कि देश का अधिकांश पशुधन, आर्थिक रूप से निर्बल वर्ग के पास है। भारत में लगभग 19.91 करोड़ गाय, 10.53 करोड़ भैंस, 14.55 करोड़ बकरी, 7.61 करोड़ भेड़, 1.11 करोड़ सूकर तथा 68.88 करोड़ मुर्गी का पालन किया जा रहा है। भारत 121.8 मिलियन टन दुग्धउत्पादन के साथ विश्व में प्रथम, अण्डा उत्पादन में 53200 करोड़ के साथ विश्व में तृतीय तथा मांस उत्पादन में सातवें स्थान पर है। यही कारण है कि कृषि क्षेत्र में जहाँ हम मात्र 1-2 प्रतिशत की वार्षिक वृद्धि दर प्राप्त कर रहे हैं वहीं पशुपालन से 4-5 प्रतिशत। इस तरह पशुपालन व्यवसाय में ग्रामीणों को रोजगार प्रदान करने तथा उनके सामाजिक एवं आर्थिक स्तर को ऊँचा उठाने की अपार सम्भावनायें हैं।

पशुपालन कार्य

वर्ष के विभिन्न महीनों में पशुपालन से सम्बन्धित कार्य (पशुपालन कलेण्डर) इस प्रकार हैं-

अप्रैल (चैत्र)

  • 1. खुरपका-मुँहपका रोग से बचाव का टीका लगवायें।
  • 2. जायद के हरे चारे की बुआई करें, बरसीम चारा बीज उत्पादन हेतु कटाई कार्य करें।
  • 3. अधिक आय के लिए स्वच्छ दुग्ध उत्पादन करें।
  • 4. अन्तः एवं बाह्य परजीवी का बचाव दवा स्नान/दवा पान से करें।

मई (बैशाख)

  • 1. गलाघोंटू तथा लंगड़िया बुखार का टीका सभी पशुओं में लगवायें।
  • 2. पशुओं को हरा चारा पर्याप्त मात्रा में खिलायें।
  • 3. पशु को स्वच्छ पानी पिलायें।
  • 4. पशु को सुबह एवं सायं नहलायें।
  • 5. पशु को लू एवं गर्मी से बचाने की व्यवस्था करें।
  • 6. परजीवी से बचाव हेतु पशुओं में उपचार करायें।
  • 7. बांझपन की चिकित्सा करवायें तथा गर्भ परीक्षण करायें।

जून (जेठ)

  • 1. गलाघोंटू तथा लंगड़िया बुखार का टीका अवशेष पशुओं में लगवायें।
  • 2. पशु को लू से बचायें।
  • 3. हरा चारा पर्याप्त मात्रा में दें।
  • 4. परजीवी निवारण हेतु दवा पशुओं को पिलवायें।
  • 5. खरीफ के चारे मक्का, लोबिया के लिए खेत की तैयारी करें।
  • 6. बांझ पशुओं का उपचार करायें।
  • 7. सूखे खेत की चरी न खिलायें अन्यथा जहर वाद का डर रहेगा।

जुलाई (आषाढ़)

  • 1. गलाघोंटू तथा लंगड़िया बुखार का टीका शेष पशुओं में लगवायें।
  • 2. खरीफ चारा की बुआई करें तथा जानकारी प्राप्त करें।
  • 3. पशुओं को अन्तः कृमि की दवा पान करायें।
  • 4. वर्षा ऋतु में पशुओं के रहने की उचित व्यवस्था करें।
  • 5. ब्रायलर पालन करें, आर्थिक आय बढ़ायें।
  • 6. पशु दुहान के समय खाने को चारा डाल दें।
  • 7. पशुओं को खड़िया का सेवन करायें।
  • 8. कृत्रिम गर्भाधान अपनायें।

अगस्त (सावन)

  • 1. नये आये पशुओं तथा अवशेष पशुओं में गलाघोंटू तथा लंगड़िया बुखार का टीकाकरण करवायें।
  • 2. लिवर फ्लूक के लिए दवा पान करायें।
  • 3. गर्भित पशुओं की उचित देखभाल करें।
  • 4. ब्याये पशुओं को अजवाइन, सोंठ तथा गुड़ खिलायें। देख लें कि जेर निकल गया है।
  • 5. जेर न निकलनें पर पशु चिकित्सक से सम्पर्क करें।
  • 6. भेड़/बकरियों को परजीवी की दवा अवश्य पिलायें।

सितम्बर (भादौ)

  • 1. उत्पन्न संतति को खीस (कोलेस्ट्रम) अवश्य पिलायें।
  • 2. अवशेष पशुओं में एच.एस. तथा बी.क्यू. का टीका लगवायें।
  • 3. मुँहपका तथा खुरपका का टीका लगवायें।
  • 4. पशुओं की डिवर्मिंग करायें।
  • 5. भैंसों के नवजात शिशुओं का विशेष ध्यान रखें।
  • 6. ब्याये पशुओं को खड़िया पिलायें।
  • 7. गर्भ परीक्षण एवं कृत्रिम गर्भाधान करायें।
  • 8. तालाब में पशुओं को न जाने दें।
  • 9. दुग्ध में छिछड़े आने पर थनैला रोग की जाँच अस्पताल पर करायें।
  • 10. खीस पिलाकर रोग निरोधी क्षमता बढ़ावें।

अक्टूबर (क्वार/आश्विन)

  • 1. खुरपका-मुँहपका का टीका अवश्य लगवायें।
  • 2. बरसीम एवं रिजका के खेत की तैयारी एवं बुआई करें।
  • 3. निम्न गुणवत्ता के पशुओं का बधियाकरण करवायें।
  • 4. उत्पन्न संततियों की उचित देखभाल करें
  • 5. स्वच्छ जल पशुओं को पिलायें।
  • 6. दुहान से पूर्व अयन को धोयें।

नवम्बर (कार्तिक)

  • 1. खुरपका-मुँहपका का टीका अवश्य लगवायें।
  • 2. कृमिनाषक दवा का सेवन करायें।
  • 3. पशुओं को संतुलित आहार दें।
  • 4. बरसीम तथा जई अवश्य बोयें।
  • 5. लवण मिश्रण खिलायें।
  • 6. थनैला रोग होने पर उपचार करायें।

दिसम्बर (अगहन/मार्गशीर्ष)

  • 1. पशुओं का ठंड से बचाव करें, परन्तु झूल डालने के बाद आग से दूर रखें।
  • 2. बरसीम की कटाई करें।
  • 3. वयस्क तथा बच्चों को पेट के कीड़ों की दवा पिलायें।
  • 4. खुरपका-मुँहपका रोग का टीका लगवायें।
  • 5. सूकर में स्वाईन फीवर का टीका अवश्य लगायें।

जनवरी (पौष)

  • 1. पशुओं का शीत से बचाव करें।
  • 2. खुरपका-मुँहपका का टीका लगवायें।
  • 3. उत्पन्न संतति का विशेष ध्यान रखें।
  • 4. बाह्य परजीवी से बचाव के लिए दवा स्नान करायें।
  • 5. दुहान से पहले अयन को गुनगुने पानी से धो लें।

फरवरी (माघ)

  • 1. खुरपका-मुँहपका का टीका लगवाकर पशुओं को सुरक्षितकरें।
  • 2. जिन पशुओं में जुलाई अगस्त में टीका लग चुका है, उन्हें पुनः टीके लगवायें।
  • 3. बाह्य परजीवी तथा अन्तः परजीवी की दवा पिलवायें।
  • 4. कृत्रिम गर्भाधान करायें।
  • 5. बांझपन की चिकित्सा एवं गर्भ परीक्षण करायें।
  • 6. बरसीम का बीज तैयार करें।
  • 7. पशुओं को ठण्ड से बचाव का प्रबन्ध करें।

मार्च (फागुन)

  • 1. पशुशाला की सफाई व पुताई करायें।
  • 2. बधियाकरण करायें।
  • 3. खेत में चरी, सूडान तथा लोबिया की बुआई करें।
  • 4. मौसम में परिवर्तन से पशु का बचाव करें

पशु प्रजनन फार्म तथा सुविधायें



 
क्र0सं0
प्रक्षेत्र का नाम
क्षेत्रफल
हे0 में
कृषि कुल
क्षे0हे0
कुल पशुधन
पशुधन
कृषि
1.
आराजीलाइन्स वाराणसी
75.22
60.00
342
गंगातीरी पशुओं का संरक्षण एवं पालन तथा सूकर पालन (संकरवर्ण)
चारा एवं बीजों का उत्पादन
2.
आटा जालौन
27.84
72.94
243
साहीवाल, हरियाना, थारपाकर एवं संकरवर्ण बछड़ों तथा जालौनी नस्ल के भेड़ों का पालन
चारा एवं बीजों का उत्पादन
3.
बाबूगढ़ गाजियाबाद
293.08
226.80
604
हरियाना, जर्सी एवं हरियानाX जर्सी Z पशुओं का सरंक्षण एवं पालन डी0एफ0एस0 केन्द्र
चारा एवं बीजों का उत्पादन एवं सवंर्द्धन
4.
भरारी, झॉसी
231.78
146.44
418
थारपाकर, साहीवालX जर्सी एवं नाली नस्ल की भेड़ों का पालन एवं संरक्षण
चारा एवं बीजों का उत्पादन
5.
चकगंजरिया, लखनऊ
396.98
166.00
549
साहीवाल, थारपाकर, साहीवालX जर्सी पशुओं का पालन एवं संरक्षण, संतति परीक्षण याजना, अश्व एवं गदर्भ प्रजनन, कुक्कुट पालन, डी0एफ0एस0, त्रैमासिक कुक्कुट पाठयक्रम पशुधन विकास सहायक प्रशिक्षण केन्द्र
 
चारा एवं बीजों का उत्पादन
6.
हस्तिनापुर मेरठ
527.58
243.39
682
मुर्रा, भैंस, हरियानाX जर्सी पशुओं का पालन एवं संरक्षण
चारा एवं बीजों का उत्पादन तथा धान उत्पादन
7.
मंझरा, लखीमपुर खीरी
384.27
248.00
380
मुर्रा भैसों का पालन एवं संरक्षण तथा डी0एफ0एस0 केन्द्र
चारा एवं बीजों का उत्पादन
8.
निबलेट बाराबंकी
237.95
72.22
92
विभिन्न प्रक्षेत्रों के ब्रुसेल्ला रोग ग्रसित पशुओं का रख-रखाव तथा डी0एफ0एस0 केन्द्र, सूकर पालन
चारा एवं बीजों का उत्पादन तथा धान उत्पादन
9.
नीलगॉव सीतापुर
772.51
294.00
50
मुर्रा भैंस, हरियाना, हरियानाXtlhZ गायों का पालन एवं संरक्षण, सूकर पालन इकाई
चारा एवं बीजों का उत्पादन
10.
सैदपुर, ललितपुर
803.07
605.30
547
भदावरी भैंस एवं हरियाना गायों का पालन एवं संरक्षण तथा नाली भेड़ पालन
चारा एवं बीजों का उत्पादन
11.
भदावरी भैंस एवं जमुनापारी बकरी प्रक्षेत्र, इटावा
74.85
 
70
भदावरी भैंस एवं जमुनापारी बकरी की महत्वपूर्ण देशी नस्लों को सुरक्षित रखना
चारा उत्पादन