Monday, 12 September 2016

पशुप्रजनन (Animal breeding) के व्यापक अर्थ के अंतर्गत पशुओं के उत्पादन, उनके पालनपोषण तथा देखभाल संबंधी

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पशुप्रजनन (Animal breeding) के व्यापक अर्थ के अंतर्गत पशुओं के उत्पादन, उनके पालनपोषण तथा देखभाल संबंधी सभी प्रकार के कार्य आते हैं, किंतु सीमित अर्थ में इस शब्द का प्रयोग प्राय: पशुओं की आनुवंशिकता (heredity) में ऐसे सुधार करने से है जिससे मनुष्य की आवश्यकता तथा इच्छानुकूल उन्नत प्रकार के पशु उपलब्ध हो सकें।

पशुओं का सुधार

पशुओं का सुधार दो प्रकार से किया जा सकता है :
प्रथम उनके वातावरण में सुधार करने से तथा दूसरा उनकी आनुवंशिकता में सुधार करने से। इन दोनों में से किसी एक में ही सुधार करने से यथोचित प्रगति नहीं हो सकती।
वातावरण में सुधार करने से पशुसंख्या (population) में परिवर्तन प्राय: बहुत शीघ्र होता है, किंतु वह परिवर्तन स्थायी नहीं होता और तभी तक रहता है जब तक नई परिस्थिति बनी रहती है। किंतु किसी पशुसमुदाय की आनुवंशकिता में सुधार द्वारा परिवर्तन प्राय: मंद गति से होता है, किंतु वह स्थायी होता है।

नस्ल तथा प्रजनन पद्धति की उत्पत्ति

प्रारंभ में पशुप्रजनक (animal breeders) पशुओं के ऐसे समूह को, जिन्हें वे अन्य पशुओं से श्रेष्ठ समझते थे, अलग कर लेते थे। फिर उनमें जो उत्तम होते थे उनका चयन कर लेते थे। इस प्रकार के चयन से समूह में कुछ ऐसे भी पशु निकल आते थे जिनमें पशुप्रजनन के मनोवांछित कुण विद्यमान होते थे। अब उनमें से जो जानवर प्रजनक (पालक) को पसंद आते थे उन्हें दूसरी पीढ़ी के जनक (parents) के रूप में चुन लेते थे और यही विधि पीढ़ी दर पीढ़ी अपनाई जाती थी। पशुपालक इस भाँति अवांछित तत्वों को निकालता जाता और वांछित गुणोंवाले पशुओं की वृद्धि पर जोर देता जाता था।

पशुप्रजनन कार्यक्रम

किसी भी पशुप्रजनन कार्यक्रम के अंतर्गत तीन बातें आवश्यक होती हैं :
  • यह निर्धारित करना कि पशुप्रजनन का आदर्श क्या है और उसका लक्ष्य क्या है,
  • पशु के व्यक्तिगत गुणों का मूल्यांकन करना तथा
  • नर और मादा का चयन करना।

आदर्श की व्याख्या

किसी भी प्रजनन-कार्यक्रम के अंतर्गत पहला कदम यह निर्धारित करना होता है कि प्रजनक का लक्ष्य क्या है क्या वह बाजार में बेचने के लिए पशुओं के उत्पादन में वृद्धि करना चाहता है, अथवा वानस्पतिक साधनों को पशूत्पादित वस्तुओं में बदलना चाहता है, अथवा किसी विशेष जलवायु के अनुकूल पशु तैयार करना चाहता है इत्यादि। एक ही फार्म में दो विभिन्न उद्देश्यों के लिए एक ही जाति के दो विभिन्न प्रकार के पशुओं का पालन लाभदायक हो सकता है, जैसे कुछ घोड़ों का गाड़ी खींचने के लिए तो कुछ का सवारी के लिए, कुछ पशुओं का पालन मांस उत्पादन के लिए तो कुछ का दुग्ध उत्पादन के लिए। ऐसा भी हो सकता है कि एक ही प्रकार के पशु में विभिन्न गुणों का सम्मिश्रण हो, जिससे एक ही पशु से दो विभिन्न आवश्यकताओं की पूर्ति हो सके।

व्यक्तिगत गुणों का मूल्यांकन

प्रत्येक पशु के गुणों का आंकना प्रजनन कार्यक्रम के अंतर्गत दूसरा कदम है।

वरण (Selection)

वरण प्रजनन कार्यक्रम के अंतर्गत तीसरा कदम है, जिसमें इस बात का आगणन (estimate) किया जाता है कि उपलब्ध जानवरों में से प्रत्येक में किस हद तक वांछित गुणों को उत्पन्न करने तथा उनके उपयोग करने, या त्यागने, की आनुवंशिकता विद्यमान है। इन गुणों के अनुसार पशुओं को अलग करना वरण या चयन कहलाता है। वरण तीन प्रकार का होता हैं :
  • समूह वरण (Mass selection),
  • परिवार वरण (Family selection) तथा
  • संतति वरण (Progeny selection)
जानवरों को पूर्णत: उनके व्यक्तिगत गुणदोषों के आधार पर प्रजनन के लिए चुनना समूह वरण, पूर्वजों और सगोत्र बंधुओं के गुणदोषों के आधार पर उनका चयन वंशावली (Pedigree) अथवा कुल वरण (Family selection) तथा संतति के गुणदोष के आधार पर किसी जानवर के प्रजननात्मक गुणों का मूल्यांकन करना संतति परीक्षण (Progeny test) कहलाता है। यदि इन तीनों प्रकार के वरणों की आपस में तुलना करें, तो इनमें से प्रत्येक के अपने अपने गुणदोष हैं।

समूह वरण

जब कुछ चुरे हुए लक्षण बहुत ही वंशानुगत होते हैं, तब औसत संतान में माँ वाप की भाँति ही ये लक्षण प्रकट होते हैं, किंतु लक्षण जब न्यून वंशानुगत होते है ता औसत संतान में उस कुल के, जिससे माँ बाप चुने गए थे, अल्प मात्रा में गुण प्रकट होंगे। समूह वरण द्वारा उन्नति वरण की तीव्रता और जनक के कुल के औसत ह्रास पर निर्भर करती है। समूह वरण द्वारा प्राणी में प्रथम अधिक स्पष्ट परिवर्तन होता है, किंतु बाद में गति धीमी पड़ जाती है और प्रभाव काफी नहीं होता।

परिवार वरण

"समूह वरण" द्वारा जितना लक्ष्य प्राप्त किया जा सकता है उतना परिवार वरण द्वारा नहीं, किंतु इससे दूसरी पीढ़ी की संतान में जनक की औसत विलक्षणता से, नीचे ह्रास नहीं होता। परिवार वरण विशेषत: उन गुणों के लिए जो थोड़ी मात्रा में आनुवंशिक हैं, अथवा जो व्यक्तिगत जानवरों में अलग-अलग निर्धारित नहीं किए जा सकते, अथवा जो कभी मादा में या कभी नर में पाए जाते हैं, अथवा दीर्घजीविता के निर्धारण के लिए जोकि जब तक कोई प्राणी विशेष प्रौढ़ या वृद्ध नहीं होता, स्पष्ट नहीं होती उपयोगी होता है।
सही परिवार वरण के लिए
(1) परिवार की संख्या बड़ी हो
(2) परिवार के सदस्यों में बिलकुल निकट का संबध हो और
(3) तुलना किए जानेवाले परिवारों में से प्रत्येक परिवार एक जैसी स्थिति तथा वातावरण में पले हों।
घोड़ों, भेड़ों तथा अन्य मवेशियों में, जिनमें एक ही माँ बाप से उत्पन्न संतति बहुत कम होती हैं, परिवार वरण अधिक महत्व का नहीं होता।

संतति वरण (Progeny Selection)

पशु जब बच्चा ही रहता है तभी उसके गुणों को देखना होता है और तभी संतति वरण लाभदायक होता है। किंतु बच्चे निम्न कोटि की आनुवंशिकता के होते हैं, अथवा इनमें किसी एक ही लिंग की विशेषता होती है। सही सही संतति परीक्षण के लिए निम्नलिखित बातें आवश्यक हैं :
(1) इसमें सभी संतानें, या कम से कम जिन चुने गए नमूने भी, समाविष्ट किए जायें,
(2) दूसरे, जनक से जिन गुणों का संतानों ने प्राप्त किया हो उनको बाद कर दिया जाय, या उनका उचित यथार्थता के साथ मूल्यांकन हो और
(3) जिनकी तुलना की जा रही हो, वे सभी संतति एक ही प्रकार के वातावरण में पली हों।

कृत्रिम वीर्यसेचन (Artificial Insemination)

विस्तृत लेख के लिये देखें - कृत्रिम वीर्यसेचन
नर का शुक्र लेकर बिना प्राकृतिक संभोग के मादा की योनि या गर्भाशय में स्थापित करने का कार्य बहुत वर्षों से प्रयोगशालाओं में, विशेषत: अश्वप्रजनन में, नपुंसकता का सामना करने के लिए होता रहा है। किंतु इसका विस्तृत प्रयोग अन्य फार्म जानवरों पर पहले पहल रूसी कार्यकर्ताओं द्वारा 20वीं शताब्दी के प्रारंभ में (1920 ई) विकसित किया गया, अन्य देशों में भी यह विशेषत: दुग्धशालाओं के मवेशियों के लिए, अपनाया गया।
कृत्रिम वीर्यसेचन के लिए नर को किसी कठपुतली (dummy) मादा के साथ मैथुन कराकर, या नर के लिंग का घर्षण कर, वीर्य को स्खलित कराकर इकट्ठा कर लिया जाता है। अब वीर्य को उचित विलयन और अंडे के पीतक (yolk) के साथ मिलाकर तनूकृत कर लिया जाता है, जिससे केवल एक बार के ही स्खलित वीर्य से अनेक मादाओं को गर्भित कराया जा सके। इस तनूकृत वीर्य को निम्न ताप पर रखकर अनेक दिनों तक गर्भाशय के योग्य रखा जा सकता है। कृत्रिम गर्भाशय से उत्पन्न संतान प्राकृतिक मैथुन द्वारा उत्पन्न संतान की ही भाँति होती है।
कृत्रिम वीर्यसेचन से प्रत्येक पशुपालन को साँड़ रखने की आवश्यकता नहीं होती और इस प्रकार वह साँड़ रखने की कठिनाई और खर्चे से बच जाता है। प्राकृतिक ढंग से गर्भाधान कराने की अपेक्षा कृत्रिम वीर्यसेचन कराने का व्यय अधिक या कम पड़ सकता है। कृत्रिम वीर्यसेचन कराने का कार्य एक ऐसे प्रशिक्षित व्यक्ति द्वारा, जो कि प्रजनन की त्रुटियों को पहचानता और उनका उपचार करता हो, किया जाता है। इससे ढोर सा प्रजनन संबंधी स्वास्थ्य अच्छा रहता है। कृत्रिम वीर्यसेचन का व्यय कम पड़े, इसके लिए पशुपालकों का कृत्रिम वीर्यसेचन संस्थाओं के साथ सहयोग करना आवश्यक है।

संगम की पद्धति (System of Mating)

माँ-बाप बननेवाले विशेष नरों और मादाओं का वरण कर लेने के पश्चात् दूसरा कदम यह निश्चित करना होता है कि किस मादा के साथ किस नर का संगम कराया जाय। यदि पशुपालक की कोई निश्चित नीति नहीं है, तो जनक और जननी बननेवाले पूरे समूह के अंतर्गत ही किसी मादा के साथ किसी भी नर का संगम कराया जाता है। यदि जोड़े का चुनाव उनके परस्पर संबंध के आधार पर होता है तो सगमंपद्धति अंत:प्रजनन (inbreeding) से लेकर जनक के पूरे समूह के संभावित वहि:प्रजनन (outbreeding) तक हो सकती है। संगम की ये पद्धतियाँ मिलाई जा सकती हैं, या उनमें हेर फेर किया जा सकता है और चयन के विभिन्न तरीकों के साथ व्यवहार में लाया जा सकता है। इस प्रकार अनेक प्रकार की प्रजनन योजनाओं को संभव किय जा सकता है।
संगम की पद्धतियाँ स्वयं किसी पितृ जीन (gene) को बहुश: घटमान या अधिक विरल नहीं बनाती, किंतु ये पितृ जीन के विभिन्न संयोजनों के अनुपात में अवश्य ही परिवर्तन ला देती हैं और जनसंख्या की परिवर्तिता (variability) को बदल दे सकती है, जिससे चयन यदि संगम की अनियमित विधि से होता है, तो अधिक प्रभावकारी हो सकता है।

अंत:प्रजनन

निकट के संबंधियों में संगम अंत:प्रजनन कहलाता है। इस पारिभाषिक शब्द का प्रयोग उनके लिए किया जाता है जिनमें युग्म के नर और नारी का परस्पर संबध कम से कम चचेरे या मौसेरे का हो। समीपवर्ती अंत:प्रजनन का परिणाम स्पष्ट और शीघ्रता से होता है। मध्यम अंत:प्रजनन अनेक पीढ़ियों तक किया जाए तो प्रभावकारी हो सकता है।
अंत:प्रजनन का प्रमुख प्रभाव समयुग्मजता (homozygosis, अर्थात् प्रत्येक संतान में एक ही गुण को पहुँचाने की योग्यता) की वृद्धि करना और नस्ल को स्पष्ट और असंबधित परिवारों में विभक्त करना होता है। अंत:प्रजनन ज्यों ज्यों आगे बढ़ता चलता है प्रत्येक परिवार अपने ही अंतर्गत अधिक समयुग्मक और अन्य परिवारों से भिन्न हो जाता है। यह परिवारों के बीच प्रभावकारी चयन की संभावना की वृद्धि करता है। समयुग्मजता में वृद्धि अधिक व्यष्टियों में उत्तरोत्तर गुणों को उत्पन्न करती है। चूँकि प्रभावी की अपेक्षा अप्रभावी गुण प्राय: बहुत कम पसंद किया जाता है, इससे व्यष्टि के गुणों में प्राय: कुछ औसत ह्रास पाया जाता है, क्योंकि यह अवांछित अप्रभावी गुणों को प्रकाश में लाता है।
जब अंत: किंतु असंबधित व्यष्टियों का संकरण कराया जाता है तब मूल पशुधन की अपेक्षा संतान में प्राय: अधिक जीवनशक्ति प्रदर्शित होती है। इस प्रकार अंत: प्रजनन से साधारणत: तत्काल घाटा होता है, किंतु कालांतर में चुने गए अंत: प्रजात वंशक्रम (inbredlines) का परस्पर अंतरासंगम (intercross) कराया जाता है, तब लाभ अवश्य होता है।

बहि:प्रजनन (Out breeding)

किसी स्पीशीज़ की किन्हीं विशेष त्रुटियों को दूर करने या वर्णसंकरता के ओज और किसी वांछित गुणों का समावेश कराने के लिए ऐसे जोड़े चुने जाते हैं जिनमें यथासंभव आपस में किसी प्रकार का संबध न रहा हो। विभिन्न नस्लों, या एक ही स्पीशीज की विभिन्न जातियों, की वर्णसंकरता से उत्पन्न संतान प्राय: असाधारण तीव्रता से वृद्धि और उच्च कोटि की जीवनशक्ति का प्रदर्शन करती है। जब इस प्रथम पीढ़ी के वर्णसंकरों का परस्पर प्रजनन कराया जाता है, तब वर्णसंकरता के ओज का प्राय: ह्रास हो जाता है। बहि:प्रजनन का सबसे अच्छा उदाहरण खच्चर (mule) है।

हल एक कृषि यंत्र है जो जमीन की जुताई के काम आता


 
हल एक कृषि यंत्र है जो जमीन की जुताई के काम आता है। इसकी सहायता से बीज बोने के पहले जमीन की आवश्यक तैयारी की जाती है। कृषि में प्रयुक्त औजारों में हल शायद सबसे प्राचीन है और जहाँ तक इतिहास की पहुँच है, हल किसी न किसी रूप में प्रचलित पाया गया है। हल से भूमि की उपरी सतह को उलट दिया जाता है जिससे नये पोषक तत्व उपर आ जाते हैं तथा खर-पतवार एवं फसलों की डंठल आदि जमीन में दब जाती है और धीरे-धीरे खाद में बदल जाते हैं। जुताई करने से जमीन में हवा का प्रवेश भी हो जाता है जिससे जमीन द्वारा पानी (नमी) बनाये रखने की शक्तबढ़ जाती है।

समसामयिक हल के विभिन्न भाग

हल के विभिन्न भाग
1. हरीस या फ्रेम (Frame)
2. जोड़ने की युक्ति
3. उँचाई नियंत्रक
4. छूरी (Knife or coulter)
5. फाल की धार (Chisel)
6. फार (Share)
7. मिट्टी पलटने की युक्ति

भूमि के उपरी परत को चीरकर, पलटकर या जोतकर उसे बुवाई या पौधा-रोपण के योग्य बनाना


भूमि के उपरी परत को चीरकर, पलटकर या जोतकर उसे बुवाई या पौधा-रोपण के योग्य बनाना जुताई या कर्षण (tillage) कहलाती है। इस कृषिकार्य में भूमि को कुछ इंचों की गहराई तक खोदकर मिट्टी कोपलट दिया जाता है, जिससे नीचे की मिट्टी ऊपर आ जाती है और वायु, पाला, वर्षा और सूर्य के प्रकाश तथा उष्मा आदि प्राकृतिक शक्तियों द्वारा प्रभावित होकर भुरभुरी हो जाती है।

परिचय

एकदम नई भूमि को जोतने के पहले पेड़ पौधे काटकर भूमि स्वच्छ कर ली जाती है। तत्पश्चात्‌ किसी भी भारी यंत्र से जुताई करते हैं जिससे मिट्टी कटती है और पलट भी जाती है। इस प्रकार कई बार जुताई करने से एक निश्चित गहराई तक मिट्टी फसल उपजाने योग्य बन जाती है। ऐसी उपजाऊ मिट्टी की गहराई साधारणत: एक फुट तक होती है। उसके नीचे की भूमि, जिसे गर्भतल कहते हैं, अनुपजाऊ रह जाती है। इस गर्भतल को भी गहरी जुताई करनेवाले यंत्र से जोतकर मिट्टी को उपजाऊ बना सकते हैं। यदि यह गर्भतल जोता न जाए और हल सर्वदा एक निश्चित गहराई तक कार्य करता रहे तो उस गहराई पर स्थित गर्भतल की ऊपरी सतह अत्यंत कठोर हो जाती है। इस कठोर तह को अंग्रेजी में प्लाऊ पैन (Plough pan) कहते हैं। यह कठोर तह कृषि के लिए अत्यंत हानिकारक सिद्ध होती है, क्योंकि वर्षा या सिंचाई से खेत में अधिक जल हो जाने पर वह इस कठोर तह को भेदकर नीचे नहीं जा पाता। अत: मिट्टी में अधिक समय तक जल भरा रहता है और अनेक प्रकार की हानियाँ उत्पन्न हो जाती हें। उन हानियों से बचने के लिए उस कठोर तह (प्लाऊ पैन) को प्रत्येक वर्ष तोड़ना अत्यंत आवश्यक हो जाता है। मिट्टी के कणों के परिमाण पर मिट्टी की बनावट (texturc) और उनके क्रम पर मिट्टी का विन्यास (structure) निर्भर है। जुताई से बनावट तथा विन्यास में परिवर्तन करके हम मिट्टी को इच्छानुसार शस्य उत्पन्न करने योग्य बना सकते हैं।
बीज बोने के लिए उच्च कोटि की मिट्टी प्राप्त करने के निमित्त सर्वप्रथम मिट्टी पलटनेवाले किसी भारी हल का उपयोग किया जाता है। तत्पश्चात्‌ हलके हल से जुताई की जाती है जिसमें बड़े ढेले न रह जाएँ और मिट्टी भुरभुरी हो जाए। यदि बड़े-बड़े ढेले हों तो बेलन (रोलर) या पाटा का उपयोग किया जाता है, जिससे ढेले फूट जाते हैं। जुताई के किसी यंत्र का उपयोग मुख्यत: मिट्टी की प्रकृति तथा ऋतु की दशा पर निर्भर है। बीज बोने के पहले अंतिम जुताई अत्यंत सावधानी से करनी चाहिए, क्योंकि मिट्टी में आर्द्रता का संरक्षण इसी अंतिम जुताई पर निर्भर है और बीज के जमने की सफलता इसी आर्द्रता पर निर्भर है। यह आर्द्रता मिट्टी की केशिका नलियों द्वारा ऊपरी तह तक पहुँचती है। ये केशिका नलियाँ कणांतरिक छिद्रों से बनती हैं। ये छिद्र जितने छोटे होंगे, केशिका नलियाँ उतनी ही पतली और सँकरी होंगी और कणांतरिक जल मिट्टी में उतना ही ऊपर तक चढ़ेगा। इन छिद्रों और इसलिए केशिका नलियों के आकर का उपयुक्त या अनुपयुक्त होना जुताई पर निर्भर है।

उद्देश्य

हल से खेत को जोतना ही जुताई नहीं कही जा सकती। हल चलाने के अतिरिक्त गुड़ाई, निराई, फावड़े से खोदना, पाटा या बेलन (रोलर) चलाना इत्यादि कार्य जुताई मे सम्मिलित हैं। इन सब क्रियाओं का मुख्य अभिप्राय यही है कि मिट्टी भुरभुरी और नरम हो जाए तथा पौधे के सफल जीवन के लिए मिट्टी में उपयुक्त परिस्थिति प्रस्तुत हो जाए। पौधों के लिए जल, वायु, उचित ताप, भाज्य पदार्थ, हानिकारक वस्तुओं की अनुपस्थिति तथा जड़ों के लिए सहायक आधार की आवश्यकता पड़ती है। ये सारी वस्तुएँ कर्षण द्वारा प्राप्त की जाती हैं और शस्य की सफलता इसी बात पर निर्भर रहती हैं कि ये उपयुक्त दशाएँ किस सीमा तक मिट्टी में संरक्षित की जा सकती हैं। अस्तु, कर्षण के मुख्य उद्देश्य निम्नलिखित हैं :
  • (1) खेतीवाले क्षेत्र में खरपतवार सब नष्ट हो जाने चाहिए।
  • (2) मिट्टी भुरभुरी हो जाए जिससे उसमें जल, वायु, ताप और प्रकाश का आवागमन और संचालन सफलतापूर्वक हो सके।
  • (3) लाभदायक जीवाणु भली भाँति अपना कार्य प्रतिपादन कर सकें।
  • (4) मिट्टी भली प्रकार वर्षा का जल सोख और धारण कर सके।
  • (5) पौधों की जड़ें सुगमतापूर्वक फैलकर पौधे के लिए भोजन प्राप्त कर सकें।
  • (6) हानिकारक कीड़ों के अंडे, बच्चे ऊपर आकर नष्ट हो जाएँ।
  • (7) खेत में डाली हुई खाद मिट्टी में भली भाँति मिल जाए।
  • (6) विलाय (घोलक) शक्तियाँ अपना कार्य भली प्रकार कर सकें जिससे पौधों को प्राप्त होने योग्य विलेय तत्व अधिक मात्रा में उपलब्ध हों।
जल, वायु और ताप में अत्यंत घनिष्ठ संबंध है। यदि मिट्टी मिट्टी में जल की मात्रा अधिक होगी तो वायु की मात्रा कम हो जाएगी, तदनुसार ताप कम हो जाएगा। इसके विपरीत यदि मिट्टी अधिक शुष्क है तो ताप अधिक हो जाएगा। ये तीनों आवश्यक दशाएँ मिट्टी की जोत (टिल्थ, द्यत्थ्द्यण्) पर निर्भर हैं। यदि जोत उत्तम है, तो मिट्टी में जल, वायु तथा ताप भी उचित रूप में हैं। यदि मिट्टी में जल अधिक या न्यून मात्रा में हो, तो उत्तम जोत प्राप्त नहीं हो सकती। अधिक जल के कारण मिट्टी चिपकने लगती है और ऐसी मिट्टी की जुताई करने से जोत नष्ट हो जाती है। जब मिट्टी सूखने लगती है तब एक ऐसी अवस्था आ जाती है कि यदि उस समय जुताई की जाए तो उत्तम जोत प्राप्त होती है। मटियार मिट्टी जब सूख जाती है तब उसमें ढेले बन जाते हैं जिनकों तोड़ना कठिन हो जाता है।

प्रकार

जुताई कई प्रकार की होती है, जैसे गहरी जुताई, छिछली जुताई, अधिक समय तक जुताई, ग्रीष्म ऋतु की जुताई, हलाई या हराई की जुताई, मध्य से बाहर की ओर या किनारे से मध्य की ओर तथा एक किनारे से दूसरे किनारे की ओर जुताई। हर प्रकार की जुताई में कुछ न कुछ विशेषता होती है। गहरी जुताई से मिट्टी अधिक गहराई तक उपजाऊ हो जाती है और यह गहरी जानेवाली जड़ों के लिए अत्यंत उपयुक्त होती है। छिछली जुताई झकड़ा जड़वाले और कम गहरी जानेवाली जड़ के पौधों के लिए उत्तम होती है। अधिक समय तक तथा ग्रीष्म ऋतु की जुताई से मिट्टी में प्रस्तुत हानिकारक कीड़े तथा उनके अंडे नष्ट हो जाते हैं। खरपतवार भी समूह नष्ट हो जाते हैं और मिट्टी की जलशोषण या जलधारण शक्ति अधिक हो जाती है। यदि खेत बहुत बड़ा है तो उसे हलाई या हराई नियम से कई भागों में बाँटकर जुताई करते हैं (हराई उतने भाग को कहते हैं जितना एक बार में सुगमता से जोता जा सकता है)। खेत यदि समतल न हो और मध्य भाग नीचा हो, तो मध्य से बाहर की ओर और यदि मध्य ऊँचा ढालुआ हो तो नीचे की ओर से ढाल के लंबवत्‌ जुताई आरंभ करके ऊँचाई की ओर समाप्त करना चाहिए। ऐसा करने से खेत धीरे-धीरे समतल हो जाता है तथा मिट्टी भी भली प्रकार जुत जाती है। परंतु यह कार्य देशी हल से नहीं किया जा सता। इसके लिए मिट्टी पलटनेवाला हल होना चाहिए। इसमें मिट्टी पलटने के लिए पंख लगा रहता है। यही कारण है कि देशी हल को वास्तव में हल नहीं कहा जा सकता, क्योंकि हल की परिभाषा है वह यंत्र जो मिट्टी को काटे और उसे खोदकर पलट दे। देशी हल से मिट्टी कटती है, परंतु पलटती नहीं। इसको हल की अल्टिवेटर (Cultivater) कहना उचित है।

जुताई के सिद्धान्त

जुताई के कुछ सिद्धांत हैं जिनका उपरिलिखित नियमों की अपेक्षा प्रत्येक दशा में पालन करना कृषक का कर्तव्य है। उपयोग से पले हल का भली भाँति निरीक्षण कर लेना चाहिए। उसका कोई भाग ढीला न हो। जूए में उसको आवश्यक ऊँचाई पर लगाएँ। यह ऊँचाई बैलों की ऊँचाई पर निर्भर है। जुताई करते समय हल की मुठिया दृढ़तापूर्वक पकड़नी चाहिए ताकि हल सीधा और आवश्यक गहराई तक जाए। कूँड़ों (हल रेखाओं) को सीधी और पास-पास काटना चाहिए अन्यथा कूँड़ों के बीच बिना जुती भूमि (अँतरा) छूँट जाती है। देशी हल से जुताई करने में अँतरा अवश्य छूटता है, जिसको समाप्त करने के लिए कई बार खेत जोतना पड़ता है। खेत की मिट्टी अधिक गीली या सूखी न हो। अधिक गीली मिट्टी से कई टुकड़े कड़े-कड़े ढोंके के हो जाते हैं और सूखी मिट्टी पर हल मिट्टी को काट नहीं पाता। उसमें इतनी आर्द्रता हो कि वह भुरभुरी हो जाए। हल चलाते समय कटी हुई मिट्टी भली भाँति उलटती जाए और पास का, पहले बना, खुला हुआ कूँड़ उस मिट्टी से भरता जाए। जोतने के पश्चात्‌ खेत समतल दिखाई पड़े और खरपतवार नष्ट हो जाएँ। जुताई करते समय हल का फार मिट्टी के ऊपर न आए। पहली जुताई के बाद प्रत्येक बार खेत को इस प्रकार जोतना चाहिए कि दूसरी जुताई द्वारा कूँड़ लंबवत्‌ कटे। सफल कर्षण के लिए इन सिद्धांतों का पालन आवश्यक है।
जुताई के लिए कोई विशेष समय निश्चित नहीं किया जा सकता। यह कार्यकाल स्थान की जलवायु तथा फसल की किस्म पर निर्भर है। जलवायु के अनुसार वर्ष को खरीफ, रबी और जायद में विभक्त किया जाता है तथा इन्हीं के अनुसार फसलें भी विभाजित होती हैं। खरीफ की फसल वर्षा ऋतु में, रबी की फसल जाड़े में तथा जायद की फसल ग्रीष्म ऋतु में होती है। प्रत्येक ऋतु की फसल बोने के पहले और काटने के बाद खेत को जोतना अत्यंत आवश्यक है। यदि कोई फसल न भी उगानी हो तो खेत को बिना जुते नहीं छोड़ना चाहिए। फसल काटने के बाद खेत को तुरंत जोतना चाहिए। रबी की फसल काटने के बाद यदि जायद फसल न बोनी हो, तो खेत को मार्च के अंत या अप्रैल के आरंभ से खरीफ की फसल बोने तक कई बार जोतना चाहिए। यह कर्षण क्रिया अधिकांश ग्रीष्म ऋतु में होनी चाहिए, जिससे मिट्टी भली प्रकार जुत जाए। इस प्रकर उसमें वर्षा के जल को धारण करने की अधिक क्षमता आ जाएगी। इसी तरह खरीफ की फसल कटने और रबी की फसल बोने के बीच के लगभग दो महीनों में खेत को आठ या दस बार भली भाँति जोतना आवश्यक है। खेत में आर्द्रता की कमी होने पर बोने से पूर्व पलेवा करना (ढेलों को चूर करना) आवश्यक है (पलेवा करने में मिट्टी को तसले में उठाकर फेंका जाता है जिससे ढेले गिरने की चोट से चूर हो जाते हैं)।

अंकुरण क्रियाजिसमें बीज एक पौधे में बदलने लगता है

 
अंकुरण क्रिया उस क्रिया को कहते हैं, जिसमें बीज एक पौधे में बदलने लगता है। इसमें अंकुरण की क्रिया के समय एक छोटा पौधा बीज से निकलने लगता है। यह मुख्य रूप से तब होता है, जब बीज को आवश्यक पदार्थ और वातावरण मिल जाता है। इसके लिए सही तापमान, जल और वायु की आवश्यकता होती है। रोशनी का हर बीज के लिए होना अनिवार्य नहीं है, लेकिन कुछ बीज बिना रोशनी के अंकुरित नहीं होते हैं

आवश्यकता

अंकुरण की क्रिया का मानव जीवन में अनिवार्य रूप से आवश्यक है। खेती के दौरान अंकुरण के कारण ही खेत में चावल, दाल, गेहूँ आदि की फसल होती है। फल वाले वृक्षों की आबादी भी इसी कारण बढ़ती है। फल पक कर नीचे गिर जाते हैं और नमी के साथ आवश्यक वातावरण मिलने के पश्चात अपने आप ही अंकुरित होने लगते हैं और जड़ निकलना भी शुरू हो जाता है। इसके बाद वह जड़ जमीन में चले जाता है और धीरे धीरे पौधा पेड़ बनने लगता है। जब तक बीज से कोई पत्ता नहीं निकलता तब तक जो क्रिया होती है, उसे अंकुरित होने की क्रिया में लिया गया है। यह क्रिया सभी प्रकार के बीजों में अलग अलग समय में होती है।
  • जल इस क्रिया के लिए जल अनिवार्य होता है। कुछ बीज के लिए जल कम और कुछ के लिए अधिक मात्रा में आवश्यक होता है।[2]
  • ऑक्सीजन बीज को भी ऑक्सीजन की आवश्यकता होती है। यह इसे चयापचय के लिए उपयोग करता है। जब बीज से पत्ते निकल आते हैं, तो वह इस के स्थान पर कार्बन-डाई-ऑक्साइड को ग्रहण करता है।
  • तापमान बहुत से बीज 60-75 F (16-24 C) के आसपास तापमान में अंकुरित होते हैं। सभी के लिए अलग अलग तापमान की आवश्यकता होती है।
  • रोशनी या अंधेरा कुछ बीज के लिए रोशनी का होना अनिवार्य होता है। यदि रोशनी न मिले तो वह अंकुरित नहीं होते और नमी के कारण सड़ने भी लगते हैं। लेकिन कई बीज अंधेरे में भी अंकुरित हो सकते हैं।

सिंचाई मिट्टी को कृत्रिम रूप से पानी देकर उसमे उपलब्ध जल की मात्रा में वृद्धि

 https://upload.wikimedia.org/wikipedia/commons/thumb/a/ae/LevelBasinFloodIrrigation.JPG/200px-LevelBasinFloodIrrigation.JPG
सिंचाई मिट्टी को कृत्रिम रूप से पानी देकर उसमे उपलब्ध जल की मात्रा में वृद्धि करने की क्रिया है और आमतौर पर इसका प्रयोग फसल उगाने के दौरान, शुष्क क्षेत्रों या पर्याप्त वर्षा ना होने की स्थिति में पौधों की जल आवश्यकता पूरी करने के लिए किया जाता है। कृषि के क्षेत्र मे इसका प्रयोग इसके अतिरिक्त निम्न कारणें से भी किया जाता है: -
  • फसल को पाले से बचाने,
  • मिट्टी को सूखकर कठोर (समेकन) बनने से रोकने,
  • धान के खेतों मे खरपतवार की वृद्धि पर लगाम लगाने, आदि।
जो कृषि अपनी जल आवश्यकताओं के लिए पूरी तरह वर्षा पर निर्भर करती है उसे वर्षा-आधारित कृषि कहते हैं। सिंचाई का अध्ययन अक्सर जल निकासी, जो पानी को प्राकृतिक या कृत्रिम रूप से किसी क्षेत्र की पृष्ट (सतह) या उपपृष्ट (उपसतह) से हटाने को कहते हैं के साथ किया जाता है।

सिंचाई की विधियाँ

कटवाँ या तोड़ विधि

यह विधि निचली भूमि में धान के खेतो की सिंचाई में प्रयुक्त होती है जबकि इसका प्रयोग कुछ और फसलों में भी किया जाता है। पानी को नाली द्वारा खेत में बिना किसी नियंत्रण के छोड़ा जाता है। यह पूरे खेत में बिना किसी दिशा निर्देश के फैल जाता है। जल के आर्थिक प्रयोग के लिये एक खेत का क्षेत्रफल 0.1 से 0.2 हे

थाला विधि

यह नकबार या क्यारी विधि के समान होता है पर क्यारी विधि में पूरी क्यारी जल से भरी जाती जबकि इस विधि मे जल सिर्फ पेड़ों के चारों तरफ के थालों मे डाला जाता है। सामान्यतः ये थाले आकार में गोल होते है कभी-कभी चौकोर भी होते हैं।
जब पेड़ छोटे होते है थाले छोटे होते है और इनका आकार पेड़ों की उम्र के साथ बढ़ता है। ये थाले सिंचाई की नाली से जुड़े रहते हैं।

नकबार या क्यारी विधि

यह सतह की सिंचाई विधियों की सबसे आम विधि है। इस विधि में खेत छोटी-छोटी क्यारियों में बांट दिया जाता हैं जिनके चारो तरफ छोटी मेड़ें बना दी जाती है पानी मुख्य नाली से खेत की एक के बाद एक नाली में डाला जाता है खेत की हर नाली क्यारियों की दो पंक्तियों को पानी की पूर्ति करती है। यह विधि उन खेतों में प्रयोग की जाती है जो आकार में बड़े होते है और पूरे खेत का समतलीकरण एक समस्या होता है।
इस स्थिति में खेत को कई पट्टियों में बांट दिया जाता है और इनपट्टियों को मेंड़ द्वारा छोटी-छोटी क्यारियों में बांट लिया जाता है इस विधि का सबसे बड़ालाभ यह है कि इस में पानी पूरे खेत में एक समान तरीके से प्रभावित रूप में डाला जा सकता है। यह पास-पास उगाई जाने वाली फसलों के लिये जैसे मूँगफली, गेहूँ, छोटे खाद्दान्न पारा घास आदि के लिये उपयुक्त विधि है। इसके अवगुण है इसमें मजदूर अधिक लगते हैं,
इस विधि में यंत्र जिन्हें ए.मीटर या एप्लीकेटर कहते हैं के द्वारा जल धीरे-धीरे लगातार बूंद-बूंद करके या छोटे फुहार के रूप में पोधो तक प्लास्टिक की पतली नलियों के माध्यम से पहुँचाया जाता है। यह विधि सिंचाई जल की अत्यंत कमी वाले स्थानो पर प्रयोग की जाती है। मुख्यतः यह नारियल, अंगूर, केला, बेर, नीबू प्रजाति, गन्ना, कपास, मक्का, टमाटर, बैंगन और प्लान्टेशन फसलों में इसका प्रयोग किया जाता है।

बौछारी सिंचाई

इस विधि में सोत्र मे पानी दबाव के साथ खेत तक ले जाया जाता है और स्वचालित छिड़काव यंत्र द्वारा पूरे खेत में बौछार द्वारा वर्षा की बूदों की तरह छिड़का जाता है। इसे ओवर हेड सिंचाई भी कहते हैं। कई प्रकार छिड़काव के यंत्र उपलब्ध हैं। सेन्टर पाइवोट सिस्टम सबसे बड़ा छिड़काव सिस्टम है जो एक मशीन द्वारा 100 हेक्टेअर क्षेत्र की सिंचाई कर सकता