Tuesday, 17 January 2017

अलसी या तीसी समशीतोष्ण प्रदेशों का पौधा
















अलसी या तीसी समशीतोष्ण प्रदेशों का पौधा है। रेशेदार फसलों में इसका महत्वपूर्ण स्थान है। इसके रेशे से मोटे कपड़े, डोरी, रस्सी और टाट बनाए जाते हैं। इसके बीज से तेल निकाला जाता है और तेल का प्रयोग वार्निश, रंग, साबुन, रोगन, पेन्ट तैयार करने में किया जाता है। चीन सन का सबसे बड़ा उत्पादक देश है। रेशे के लिए सन को उपजाने वाले देशों में रूस, पोलैण्ड, नीदरलैण्ड, फ्रांस, चीन तथा बेल्जियम प्रमुख हैं और बीज निकालने वाले देशों में भारत, संयुक्त राज्य अमरीका तथा अर्जेण्टाइना के नाम उल्लेखनीय हैं। सन के प्रमुख निर्यातक रूस, बेल्जियम तथा अर्जेण्टाइना हैं।
तीसी भारतवर्ष में भी पैदा होती है। लाल, श्वेत तथा धूसर रंग के भेद से इसकी तीन उपजातियाँ हैं इसके पौधे दो या ढाई फुट ऊँचे, डालियां बंधती हैं, जिनमें बीज रहता है। इन बीजों से तेल निकलता है, जिसमें यह गुण होता है कि वायु के संपर्क में रहने के कुछ समय में यह ठोस अवस्था में परिवर्तित हो जाता है। विशेषकर जब इसे विशेष रासायनिक पदार्थो के साथ उबला दिया जाता है। तब यह क्रिया बहुत शीघ्र पूरी होती है। इसी कारण अलसी का तेल रंग, वारनिश और छापने की स्याही बनाने के काम आता है। इस पौधे के एँठलों से एक प्रकार का रेशा प्राप्त होता है जिसको निरंगकर लिनेन (एक प्रकार का कपड़ा) बनाया जाता है। तेल निकालने के बाद बची हुई सीठी को खली कहते हैं जो गाय तथा भैंस को बड़ी प्रिय होती है। इससे बहुधा पुल्टिस बनाई जाती है।
आयुर्वेद में अलसी को मंदगंधयुक्त, मधुर, बलकारक, किंचित कफवात-कारक, पित्तनाशक, स्निग्ध, पचने में भारी, गरम, पौष्टिक, कामोद्दीपक, पीठ के दर्द ओर सूजन को मिटानेवाली कहा गया है। गरम पानी में डालकर केवल बीजों का या इसके साथ एक तिहाई भाग मुलेठी का चूर्ण मिलाकर, क्वाथ (काढ़ा) बनाया जाता है, जो रक्तातिसार और मूत्र संबंधी रोगों में उपयोगी कहा गया है।

सनई (Sunn या sunn hemp; वैज्ञानिक नाम : Crotalaria juncea) एक पौधा है

Crotalaria juncea Da220020.JPG
सनई (Sunn या sunn hemp; वैज्ञानिक नाम : Crotalaria juncea) एक पौधा है जिसका उपयोग हरी खाद बनाने में किया जाता है। इसके फूलों की शब्जी बनती है। इसके तने को पानी में सड़ाने के बाद इसके उपर लगा रेशा से रस्सी बनायी जाती है।

सनई की खेती

जलवायु
भारत के सभी भागों में इसे उगाया जाता है लेकिन, उ०प्र० एवं मध्य प्रदेश में इसे प्रमुखता से उगाते हैं उत्तरी राज्यों में इसे खरीफ में उगाते हैं जबकि दक्षिणी राज्यों में इसे रबी में भी उगाते हैं इसकी खेती के लिए कम से कम ४० सेमी. वार्षिक वर्षा पर्याप्त रहती है, जिसका वितरण ठीक हो, जो लगभग ५० दिन में गिरे।
भूमि
उचित जल- निकास वाली अल्यूवियल मृदा उचित रहती है, जो बलुई दोमट से दोमट हो चूँकि यह दलहनी (legume) फसल है, लेकिन इसकी जङों में गाँठो (nodules) का निर्माण भूमि में उपस्थित कैल्शियम (Ca) एवं फास्फोरस (P) की मात्रा पर निर्भर करता है अत: कम पी-एच (pH) वाली मृदायें उचित नहीं होती है, लेकिन अम्लीय मृदाओं में चूना प्रयोग करके उन्हें सुधारा जा सकता है रेशा तथा हरी खाद दोनों के लिये खेत की फसल के लिये, सुविधाओं के अनुसार, एक जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से व २-३ जुताई देशी हल से करते हैं अन्तिम जुताई के बाद खेत को समतल एवं भुरभुरा बनाने के लिए पाटा चलाया जाता है।
प्रजातियाँ
सनई की संस्तुत किस्में एवं उनकी विशेषतायें-
कानपुर-१२ (K-12)- अधिक उपज, रेशा अच्छी गुणवत्ता का, उकठा प्रतिरोधी, उपज १४ कुं०प्रति है०
M-18- शीघ्र परिपक्वता, हल्की भूमि हेतु उपयुक्त, कम वर्षा चाहिए
M-35- तना छेदक प्रतिरोधी, शेष M-18 की तरह
BE-1(नालन्दा सनई)- अच्छी उपज एवं रेशों का गुण भी अच्छा
बैल्लारी- अधिक उपज
D-IX - उकठा प्रतिरोधी
ST-55- K-12 से अधिक उपज
बीज-बुवाई
बुवाई- सनई को खरीफ फसल के रूप में रबी में गेहूँ अथवा तिलहनों - सरसों आदि से पूर्व उगाते हैं इसे प्राय: छिटकवाँ विधि से बोते हैं यदि इसे लाइन में बोया जाय तो उचित होगा छिटकवाँ विधि में बीजदर लगभग २५-३० किग्रा०/ हेक्टेयर पर्याप्त रहती है जबकि लाइनों में बुवाई करने पर मात्र ५ किग्रा०/ हेक्टेयर बीज चाहिए कतार से कतार कतार ३० सेमी तथा पौधा से पौधा ५ से ७ सेमी की दूरी पर हो खाद हेतु इसके बीज की मात्रा ५०-६० किग्रा०/ हेक्टेयर छिटकवाँ विधि में रखते हैं
बुवाई का समय- वर्षा से पूर्व जुलाई में प्राय: इसे बोते हैं एक वर्ष से पुराना बीज न हो, क्योकि बीजों की अंकुरण क्षमता ९० प्रतिशत होती है।
उर्वरक
चूँकि यह एक दलहनी फसल है और स्वयं जङें (ग्रथियों में जीवाणु होने के कारण) वायुमण्डल से नत्रजन एकत्रित कर लेती हैं, अत: नत्रजन देने की जरूरत नहीं पङती है फाँस्फोरस एवं पोटाश तत्वों की मत्रायें लगभग २०-२० क्रिग्रा० (P व K) प्रति हेक्टेयर दी जाय सूक्ष्म-तत्व बोरोन (Boron) एवं माँलिब्डेनम (Mo) लाभदायक है, लेकिन इन्हें प्राय: नही दिया जाता है क्योंकि इन तत्वों की मात्रा भूमि में पाई जाती है कैल्सियम की अधिक मात्रा में जरूरत पङती है उ० प्र० के प्रचलित क्षेत्रों - बनारस, प्रतापगढ, सुल्तानपुर, आजमगढ, देवरिया में चूना नहीं दिया जाता खेत में खाद डालने के बाद इसकी बुवाई कर दी जाती है भूमि में रेक चला कर बीजों को मिट्टी में अच्छी तरह मिला देते हैं। सिंचाई:
अप्रैल - मई में बोई गई फसल में वर्षा आरम्भ होने से पहले १-२ सिंचाई करते हैं दाने व रेशे वाली फसलों के लिये वर्षा अगर शीघ्र समाप्त हो जाय या बीच में सूखा पङ जाये तो आवश्यकतानुसार सिंचाई कर देते हैं। खरपतवार:
प्राय: निकाई नहीं की जाती है चूँकि सनई में आइपोमिया स्पीशीज (Ipomea sp.) के बीज मिल जाते हैं अत: एक निकाई आवश्यक है।
कीट-नियंत्रण
१.सनई का मोथ-यह पत्तियों को खाता है इसके ऊसर लाल, काले और सफेद निशान होते हैं यह कैप्सूल में छेद करके अन्दर घुस जाता है मौथ के पंखों पर सफेद, लाल व काले चिन्ह मिलते हैं पत्तियों और तनों पर अपने अण्डे देता है इसकी सूँडी फसल को क्षति पहुँचाती है इससे बचने के लिये अण्डों और सूँडियों को चुनकर बाहर डाल कर नष्ट कर देना चाहिये या ५ प्रतिशत बी० एच० सी० धूल १२-२० किग्रा० प्रति हैक्टर की दर से बुरकनी चाहिये या ०.१५ प्रतिशत इन्डोसल्फान (३५ ई० सी०) के घोल का छिङकाव करें
२. तना छेदक-यह कीट पौधे के उपरोक्त भाग में छेद करके पौधे को क्षति पहुंचाता है इसकी रोकथाम के लिये ५ प्रतिशत बी० एच० सी० की धूल लाभप्रद रहती है या ०.०४ प्रतिशत डायजिनान के घोल का छिङकाव करें
३. लाल रोयेंदार सूँडी- यह लाल बालों वाली सूँडी पत्तियों को खाती है यह सूँडी अंकुरित होते हुये बीजांकुरों को भी खा जाती है और भूमि के अन्दर ही इसकी प्यूपा अवस्था पूरी होती है इसके मौथ के पंखो पर काले धब्बे होते हैं इसके अण्डे भी भूमि में ही पाये जाते हैं इसके रोकथाम के लिये मौथ को रोशनी द्वारा आकर्षित करके, पकङ कर नष्ट कर देना चाहिये, १० प्रतिशत बी० एच० सी० की धूल २५-३० किग्रा० प्रति है० की दर से बुरकना चाहिये या ०.१५ प्रतिशत इन्डोसल्फान के घोल का छिङकाव करें।
रोग
(१) चूर्णिल आसिता - यह फफूँद से लगने वाला रोग है इसके द्वारा बहुत हानि होती है; रोगी पौधों को उखाङकर जला दें, घुलनशील गन्धक जैसे इलोसाल या सल्फैक्स की ३ कि.ग्रा. मात्रा को १००० ली० पानी में घोलकर प्रति हे० की दर से छिङकाव करें या फसल पर ०.०६ प्रतिशत कैराथेन (६० ग्राम दवा १०० ग्राम ली० पानी में) नामक दवा का छिङकाव करें
(२) गेरूई या रतुआ-यह फफूँद से लगता है पौधे के सभी वायुवीय भागों पर फफोले दिखाई देते हैं इनका रंग कुछ पीला - भूरा होता है धब्बे बिखरे रहते हैं व बाद में काले - भूरे हो जाते हैं इसकी रोकथाम के लिये ०.२ प्रतिशत डाइथेन एम-४५ के घोल का छिङकाव करें
(३) मोजेक- यह विषाणु द्वारा लगने वाली बीमारी है पत्तियाँ इससे प्रभावित होती हैं और इनमें मोङ आ जाते हैं तथा कुरूप हो जाती हैं शारीरिक क्रिया कम हो जाती है फसल की पैदावार घट जाती है इसकी रोकथाम भी अभी तक अज्ञात है वैसे फसलों के हरे-फेर कर बोने से रोग को कुछ सीमा तक रोका जा सकता है
(४) मुरझान या उकठा- यह फफूँद द्वारा लगता है पत्तियाँ पीली पङ जाती हैं यह रोग अक्टूबर में दिखाई देता है और पूरा पौधा मुरझा जाता है तथा बाद में नष्ट हो जाता है इसे रोकने के लिये प्रतिरोधी किस्मों (के १२ व के १२ पीली) को उगाना चाहिये, फसल -चक्र अपनाने चाहियें और खेत की स्वच्छता का भी ध्यान रखना चाहिये बीज को बोने से पहले एग्रोसन जी० एन० से उपचारित कर लेना चाहिये
(५) जीवाणु पत्ती या पर्ण दाग- यह बीमारी जीवाणु से लगती है इसके द्वारा पत्तियो पर चकत्ते बने जाते हैं यह बहुत कम प्रभाव दिखाती है और कम ही क्षति इसके द्वारा होती है खेत से उचित जल निकास का प्रबन्ध करें व उचित फसल - चक्र अपनायें।
कटाई
(अ) हरी खाद के लिये कटाई-फसल बोने के ५० - ६० दिन बाद फसल खेत में पलट दी जाती है अप्रैल -मई में बोई गई फसल जून- जौलाई में खेत में पलट देते हैं व जून -जौलाई में बोई गई फसल अगस्त - सितम्बर में खेत में पलट देते है
(ब) रेशे वाली फसल-बोने के १० -१२ सप्ताह बाद रेशे के लिये फसल की कटाई करते हैं पहले कटाई करने पर रेशा कच्चा प्राप्त होता है तथा उपज में भारी कमी होती है व बाद में कटाई करने पर रेशा अच्छे गुणों वाला प्राप्त नहीं होता सितम्बर में इस फसल की कटाई हो जाती है
(स) बीज या दाने वाली फसल - फलियों में बीज जब कठोर व काला हो जाये तभी फसल की कटाई करने पर रेशा दाने के लिये करते हैं इस अवस्था पर फलियाँ सूख जाती हैं व बीज अपने वृन्त से अलग हो जाता है हंसिया से कटाई करके, फसल से सूखे डन्डों की सहायता से बीज अलग कर लेते हैं सूखे तने को पानी में गला कर निम्न गुणों का रेशा भी प्राप्त हो जाता है।
उपज
हरी खाद की फसल से २००-३०० कुन्तल प्रति है० तक जीवांश प्राप्त हो जाता है रेशे वाली फसलों से ८-१२ कु० तक रेशे प्रति है० दाने वाली फसल से ८-१० कुन्तल दाना प्रति हैक्टर प्राप्त हो जाता है।

सड़ाना एवं रेशा निकालना

जूट की भाँति इसके सङाने की विधि है प्राय: पोखर, तालाबों, जहाँ वर्षा का पानी कुछ दिनों तक भर जाय, ऐसी जगह इसके तनों का बंडल बाँधकर पानी में गाढ देते हैं, पहले खङा करके पानी में १-२ दिन छोङ देते हैं फिर उन्हें पानी में डालकर मिट्टी से ढक देते हैं लगभग ५-७ दिन में सङाव क्रिया पूर्ण हो जाती है जूट की तुलना में सनई से रेशा निकालना कठिन कार्य है पीटना एवं झटक विधि उपयुक्त नहीं रहती क्योंकि टूटे तने पर रेशा चिपका रहता है अत: इसके प्रत्येक तने से अलग - अलग रेशा निकालते हैं, जो हाथ से निकाला जाता है रेशा को बाद में पानी में धोकर धूप में सूखा देते हैं यदि सङाव अच्छा नहीं हुआ है, तो रेशा मोटा (भद्दा) एवं हरा तो होगा लेकिन उसकी ताकत में कमी नही आवेगी पानी में कम धुलाई से गोंद सा रेशे पर चिपका रहेगा

बीज उत्पादन

प्राय: १०० दानों का वजन ३.४ से ६ ग्राम होता है जो किस्म से किस्म भिन्न होता है इसके बीज में प्रोटीन अधिक होती है अत: चिपकाने के काम में आती है वैसे बीज उत्पादन अभी कोई संगठित रूप नहीं हो रहा हैं, लेकिन कृषक पुराने तरीकों से ही बाजरा, ज्वार, रागी, धान की फसलों के चारों ओर कूंड लगाकर बीज हेतु सनई उगाते हैं बीज की उपज २० कुं० प्रति है० तक पहुँच जाती है हरी खाद हेतु सनई: सनई को हरी खाद हेतु उगाने के लिए बीज लगभग ६० किग्रा० प्रति हैक्टर प्रयोग होता है, जो जुलाई में बोते हैं और अगस्त तक लगभग ४५ दिन की फसल को खेत में पलट देते हैं, ताकि एक माह में फसल वर्षा के पानी से सङ जाय प्राय: ६०-८० किग्रा० नत्रजन प्रति हेक्टेयर भूमि में (P व K के अलावा) प्राप्त हो जाती है जो हरे तने लगभग २० टन प्रति हेक्टेयर भूमि में पलटने से मिल जाती है ऊसर भूमियों को सुधारने के लिए हरी खाद प्रयोग करते हैं।

Friday, 6 January 2017

पुआल मशरूम (वैज्ञानिक नाम: Volvariella volvacea) एक प्रकार का खाद्य मशरूम






 (वैज्ञानिक नाम: Volvariella volvacea) एक प्रकार का खाद्य मशरूम है। पूर्वी एशिया तथा दक्षिण पूर्व एशिया में इसकी खेती की जाती है। भारत में इसे 'चीनी मशरूम' भी कहा जाता है।

परिचय

पुआल मशरूम (वोल्वेरिएला वोल्वेसिया) जिसे चाईनीज मशरूम के नाम से भी जाना जाता है, बेसिडियोमाइसीट्स (Basidiomycetes) के प्लूटेसिया (Pluteaceae) कुल से संम्बन्ध रखती है। यह उपोशण तथा उष्ण कटिबंध भाग की खाद्य मशरूम है। सर्वप्रथम इसकी खेती चीन में सन् 1822 मे की गईं थी। शुरू मे यह मशरूमं ”ननहुआ“ के नाम से जानी जाती थी। इसका यह नाम चीन के उत्तरी गांगडोे ग प्रान्त के ननहुआ मन्दिर के नाम पर पड़ा। शुरूआत में पुआल मशरूम की खेती बौद्ध अनुयायियो द्वारां स्वंय उपयोग के लिए की गई थी और सन् 1875 के बाद यह शाही परिवार को उपहार स्वरूप भेट की जानें लगी। ऐसा अनुमान लगाया जाता है कि इस मशरूम की खेती की शुरूआत लगभग 300 वर्श पूर्व अठारहवी शताब्दी मे हुई तथा सन् 1932 से 1935 के दौरान इस मशरूम की खेती फिलीपिन्स, मलेशिया तथा अन्य दक्षिणी एशियाई देशो में भी शुरू की गई।
पुआल मशरूम को ‘गर्म मशरूम’ के नाम से भी जाना जाता है क्योकि यें सापेक्षतः उच्च तापमान पर उगती है। यह तेजी से उगने वाली मशरूम है तथा अनुकूल उत्पादन परिस्थितियों मे इसका एक फसल चक्र 4 से 5 सप्ताह में पूर्ण हो जाता है। इस मशरूम के उत्पादन हेतु विभिन्न प्रकार के सेलुलोज युक्त पदार्थों का इस्तेमाल किया जा सकता है तथा इन पदार्थो में कार्बन व नाईट्रोजन के 40 से 60:1 अनुपात की आवश्यकता होती है, जो अन्य मशरूमों के उत्पादन की तुलना मे बहुत उच्च है। इस मशरूम को बहुत से अविघटित माध्यमों (पोशाधारो) पर उगाया जा सकता हैं जैसे धान का पुआल, कपास उद्योग से प्राप्त व्यर्थ तथा अन्य सेलुलोज युक्त जैविक व्यर्थ पदार्थ। यह आसानी से उगाई जाने वाली मशरूमो में सें एक मानी जाती है।
भारत वर्श मे इस मशरूम की खेती सर्वप्रथम सन् 1940 मे की गई, हालांकि व्यवस्थित ढंग से़ इस की खेती का प्रयास 1943 मे किया गया। वर्तमान में यह मशरूम समुन्द्रतटीय राज्यो जैसे कि उड़ीसा, आंध्रप्रदेश, तमिलनाडू, केरल तथा पश्चिम बंगाल मे सर्वां धिक लोकप्रिय है। मशरूम अन्य राज्यो में भी उगाई जा सकती है जहाँ की जलवायु इसके अनुकूल है तथा कृशि व कपास उद्योग के अवशेश भी प्रचुर मात्रा में उपलब्ध होते हैं।
जीवन चक्र तथा प्रजनन तंत्र अनुवांशिकी हरे पौधो की तुलना में मशरूम की ज्यादातर प्रजातियाँ एकाकी सूत्री होती हं। तथा युैग्मसूत्री अवस्था अस्थिर व क्षणिक समय के लिये होती है तथा बेसिडियम अवस्था ;ठमेपकपनउद्ध तक ही सीमित रहती है। पुआल मशरूम अन्य मशरूमों से भिन्न है समलैगिक प्रजाति होने की वजह से है, प्रत्येक एकल नाभिकीय एकाकी सूत्री स्व-निशेचित बीजाणु उगते है तथा कवक जाल उत्पन्न करते है तथा बिना किसी संयोग (मैटिंग) कारक की सहायता के अपना जीवन चक्र पूर्ण करते हैं। वोल्वेरिएला प्रजाति मे कलैंम्प कनैक्षंस पूर्ण रूप से अनुपस्थिति होते हैं। वोल्वेरिएला वोल्वेसिया मे तन्तुं कोशिकाएं बहु-केन्द्रीय होती है। कलैं म्प कनैक्षंस अनुपस्थिति होते हैं तथा बीजाणुओ (बेसिडियोस्पोर) के विभाजन के बाद केवल एक ही केन्द्रक प्राप्त होता है। इसकी वृद्धि दर तथा एकल बीजाणु तन्तु की विशेशताओं मे बहुत विविधता पाई जाती है। इस मशरूम को मूल रूप से होमोथैलिक ;भ्वउवजींससपबद्ध कहना अभी भी कठिन है क्योकि विभिन्न शोंधकर्ताओं द्वारा ज्यादातर स्व-निशेचित बीजाणुओ की मौजूदगी व न्यूनतम गैर मौजूदगी पर किये गये अनुसंधान कायो र्सें अलग-अलग तर्क प्राप्त हुए हं। ज्यादातर अनुसंधान कर्ताओ नें बीजाणुओ में स्व-जनन का अस्तित्व बताया है।

जैविकीय विशेशताए

पुआल मशरूम के फलनकाय को छह विभिन्न विकासात्मक अवस्थाओ में विभाजित किया जा सकता है। ये अवस्थाएं है खुम्ब कलिकाएं (पिन हैड), छोटे बटन, बटन, अडांकार, विस्तारण अवस्था तथा परिपक्व अवस्था। प्रत्येक की अपनी विशेश अकारिकी तथा आंतरिक रचना होती है।
1. खुम्ब कलिकाएं (पिन हैड)
इस अवस्था मे इसका आकार सूक्ष्म दानों जैसा होता है। इसमे धब्बा रहित सफेद झिल्ली होती है। लम्बवत दिशा मं काटनेे के बाद देखने पर इसमे छत्र तथा तना दिखाईं नहीं देते हैं। सम्पूर्ण संरचना तन्तु कोशिकाओ की गाँठ जैसी होती है।
2 . छोटे बटन
दोनो ही अवस्थाएं, छोटे बटन तथा खुम्ब कलिकाएं आपस में बुनी हुई तन्तु कोशिकाओ से बनती है। युवा छोटे बटन मे झिल्ली का ऊपरी हिस्सा भूरा होता है जबकि शेष हिस्सा सफेद होता है। यह आकार मे गोल होता
हिस्सा भूरा होता है जबकि शेश हिस्सा सफेद होता है। यह आकार मे गोंल होता है और यदि बटन को लम्बवत काट दिया जाये तो इसके पत्रक (लैमिली), छत्र के निचले तल पर संकरे बंद की तरह दिखाई देते हैं।
3 . बटन अवस्था
पुआल मशरूम की इस अवस्था को उत्तम समझा जाता है तथा यह बाजार मे अधिक मूल्य पर बेची जाती है। इस अवस्था मे संपूर्ण संरचना एक झिल्ली द्वारा ढकी होती है जिसे संपूर्ण झिल्ली कहते हं। झिल्ली के अन्दर बन्द अवस्था मं छत्रक विद्यमान होता है। हालांकि सामान्य तौर पर तना दिखाई नहीं देता है परन्तु मशरूम के अनुदैर्ध्य खण्ड (खड़ी दिशा) मे यह दिखाई देता है।
4 . अंडाकार अवस्था
इस अवस्था को भी बहुत अच्छा माना जाता है तथा बाजार मे इसकी अच्छी खासी रकम मिलती है। इस अवस्था मे छत्रक झिल्लीं से बाहर निकल आता है तथा झिल्ली वॉल्वा के रूप मे शेंश रह जाती है। इस अवस्था मे पत्रकों पर बीजाणुं नहीं होते है। इस अवस्था तक छत्रक का आकार बहुत छोटा रहता है।
5 . विस्तारण अवस्था
इस अवस्था पर छत्रक बन्द होता है तथा इसका आकार परिपक्व अवस्था से थेाड़ा छोटा होता है, जबकि तना अधिकतम लम्बाई प्राप्त कर चुका होता है। डण्डी जलसह स्याही के साथ चिन्हित होती है।
6. परिपक्व अवस्था
परिपक्व अवस्था मे इसकी सरचना को तीन हिस्सो में विभाजित किया जा सकता हैं-
  • (१) छत्रक या टोपी
  • (२) तना या डण्डी
  • (३) वॉल्वा या कप
छत्रक तने के साथ मध्य मे जुड़ा रहता है और साधारणतया इसका व्यास 6 से 12 सेटीमीटर हों ता है। पूर्ण परिपक्व छत्रक सभी किनारो सें आकार मे वश्ताकार होता है तथा इसकी सतह समतल होती है। इसकी सतह मध्य मे गहरी स्लेटी तथा किनारो परं हल्की सलेटी होती है। छत्रक की निचली सतह पर पत्रदल होते है, जिनकी सं ख्या 280 से 380 तक हो सकती है। पत्रदल आकार मे भी भिन्नं होते है। पत्रदल छत्रक कें पूरे आकार से लेकर एक चौथाई आकार तक के हो सकते हैं।
सुक्ष्मदर्शी परिक्षण से प्रत्येक पत्रदल आपस में बुनी हुई तन्तु कोशिकाओ की तीन परतों सें बना दिखाई देता है। सबसे बाहरी परत हायमिनियम कहलाती है। ये डण्डे के आकार की बेसिडिया व सिसटिडिया बनाती है। इस बेसिडिया में चार बीजाणु होते हैं। बीजाणु आकार मे भिन्न-भिन्न होते हैं, येै अण्डाकार, गोलाकार तथा दीर्घवश्त आकार के होते हैं। बीजाणुओ कें रंग भी भिन्न-भिन्न होते है और ये हल्के पीले, गुलाबी या गहरे भूरे रंग के हो सकते हैं।
तना एक परिपक्व फलनकाय का महत्वपूर्ण भाग होता है जो छत्रक तथा वॉल्वा को जोड़ कर रखता है। तने की लम्बाई छत्रक के आकार पर निर्भर करती है, साधारणतया इसकी लम्बाई 3 से 8 सेटीमीटर तथा व्यास 0.5 से 1.5 सेटीमीटर होता है। यह सफेद, गूदेदार होता है तथा इसमें कोई छल्ला नहीं हों ता है। डण्डी के आधार पर वॉल्वा होता है, जो वास्तव मे आपस मं बुनी हुई तन्तु कोशिकाओ की एक पतली चादर हों ती है तथा तने के आधार पर बल्बनुमा आकार के चारों तरफ होेती है। वॉल्वा, गूदेदार, सफेद तथा कप के आकार का होता है और इसके किनारे अव्यवस्थित होते हैं। वॉै ल्वा के आधार पर कवक जाल (राईजोमार्फस) होता है जो पोशाधार से पोषण ग्रहण करने मे सहायक होता है।

पौष्टिक गुण

उत्कृष्ट अनुपम खुशबू तथा ऊतक संरचना की विशेशताओ कें कारण यह मशरूम अन्य खाद्य मशरूमो सें अलग है। इस मशरूम की पौश्टिक गुणवत्ता, फसल उगाने के तरीके तथा विभिन्न परिपक्व अवस्थाओ सें प्रभावित होती है। उपलब्ध आंकड़ बतातेे है कि मशरूम कें शुखे भार के आधार पर, इसमे कच्चा प्रोटीन 30.43 प्रतिशत, वसा 1.6 प्रतिशत, काबोहाइर्डेटस 12.48 प्रतिशत, कच्चा रेशा 4.10 प्रतिशत तथा राख 5.13 प्रतिशत पोशक तत्व पाये जाते है। ताजा मशरूम कें भार के आधार पर इसकी तत्व संरचना नीचे दर्शाइ गई है। वसा तत्व की बढ़ोत्तरी परिपक्व अवस्था तक होती है तथा पूर्ण रूप से परिपक्व फलनकाय मे यहं काफी उच्च (5 प्रतिशत) होती है। नाइट्रोजन मुक्त काबोहाइर्डे ªटस की बढ़ोत्तरी बटन अवस्था से अण्डाकार अवस्था तक होती है। विस्तारण अवस्था मे यह रूक जाती हैं तथा परिपक्व अवस्था मे कम हो जाती है। पहली तीन अवस्थाओं मे कच्चा रेशा लगभग समान स्तर पर रहता है तथा परिपक्व अवस्था मे बढ़ जाता है। सभी विकास की अवस्थाओ में राख तत्व लगभग समान रहता है।
पुआल मशरूम की अनुमानित तत्व संरचना
क्रम संख्या -- अंश -- तत्व सरंचना (मात्रा/100 संख्या ग्राम ताजा मशरूम)
1. नमी 90.40 (ग्राम)
2. वसा 0.25 (ग्राम)
3. प्रोटीन 3.90 (ग्राम)
4. कच्चा रेशा 1.87 (ग्राम)
5. राख 1.10 (ग्राम)
6. फास्फोरस 0.10 (ग्राम)
7. पोटाशियम 0.32 (ग्राम)
8. लोहा 1.70 (ग्राम)
9. कैल्शियम 5.60 (मि.ग्राम)
10. थायमिन 0.14 (मि.ग्राम)
11. राइबोफ्लेविन 0.61 (मि.ग्राम)
12. नियासिन 2.40 (मि.ग्राम)
13. एस्कॉर्बिक अम्ल 18.00 (मि.ग्राम)
पुआल मशरूम मे खनिज जैसे पोटाशियम, सोडियम तथा फास्फोरस प्रचुर मात्रा मे पायें जाते है। पोटाशियम प्रमुख तत्वो में महत्वपूर्ण है, उसके बाद शेश प्रमुख तत्वो मं सोे डियम व कैल्शियम आते है। पों टाशियम, कैल्शियम तथा मैगनीशियम का स्तर मशरूम फलनकाय विकास की विभिन्न अवस्थाओ में समान रहता हैं। सोडियम तथा फास्फोरस का स्तर, विस्तारण व परिपक्व अवस्थाओ में कम हों जाता है। निम्न तत्व जैसे कॉपर, जिंक तथा लोहे का स्तर विकास की विभिन्न अवस्थाओ में अधिक परिवर्तिंत नहीं होता है।
पुआल मशरूम मे थाईं मिन तथा राइबोफलेविन का स्तर बटन मशरूम (एगेरिकस बाईसपोरस) तथा शिटाके मशरूम (लेन्टिनुला इडोड्स) की अपेक्षा कम होता है, जबकि नियासिन इन दोनों के समान मात्रा मे हों ती है (एफ.ए.ओ., 1972)। सभी अवस्थाओ में लाईं सीन प्रचुर मात्रा में उपलब्ध होता है तथा अनावश्यक अम्लो में ग्लूटेमिक (Glutamic) अम्ल तथा एस्पार्टिक अम्ल (Aspartic) प्रचुर मात्रा मे पायें जाते हैं। आवश्यक अमीनो अम्लों में ट्रिप्टोफेन (Tryptophan) तथा मिथियोनीन अम्ल न्यूनतम मात्रा मे होते हं। फिनाईल एलानाईन्स का स्तर विस्तारण अवस्था तक बढ़ता है जबकि लाईसीन इस अवस्था मे बटन अवस्था की तुलना मे घटकर आधा रहा जाता है। अमीनां अम्ल की संरचना तथा सम्पूर्ण अमीनो अम्लों में आवश्यक अमलों की प्रतिशतता के आधार पर पुआल मशरूम की तुलना अन्य मशरूमो सें की जा सकती है। वास्तव मे पुआल मशरूम मे आवश्यक अमीनो अम्ल की प्रतिशतता अन्य मशरूमो की तुलना में उच्च होती है तथा लाईसीन की प्रचुरता अत्यन्त महत्वपूर्ण है। अन्य तीनो अमीनों अम्ल जैसे लाईसिन, आइसोलयूसिन तथा मिथियोनिन अम्ल पुआल मशरूम मे अन्य मशरूम की तुलना मे कम होते हैं।
पुआल मशरूम में पाए जाने वाले अमीनो अम्ल
क्रम संख्या -- अमीनो अम्ल -- मात्रा (मि. ग्राम/100 ग्राम प्रोटीन)
1. लियूसीन 3.5
2. आईसोलियूसिन 5.5
3. वैलिन 6.8
4 . ट्रिप्टोफेन 1.1
5. लाईसीन 4.3
6. हिस्टीडिन 2.1
7. फिनाईल एलानिन 4.9
8. थ्रियोनिन 4.2
9. आर्जीनीन 4.1
10. मिथियोनीन 0.9

कुकुरमुत्ता (मशरूम) एक प्रकार का कवक

 











 कुकुरमुत्ता (मशरूम) एक प्रकार का कवक है, जो बरसात के दिनों में सड़े-गले कार्बनिक पदार्थ पर अनायास ही दिखने लगता है। इसे या खुम्ब, 'खुंबी' या मशरूम भी कहते हैं। यह एक मृतोपजीवी जीव है जो हरित लवक के अभाव के कारण अपना भोजन स्वयं संश्लेषित नहीं कर सकता है। इसका शरीर थैलसनुमा होता है जिसको जड़, तना और पत्ती में नहीं बाँटा जा सकता है। खाने योग्य कुकुरमुत्तों को खुंबी कहा जाता है।
'कुकुरमुत्ता' दो शब्दों कुकुर (कुत्ता) और मुत्ता (मूत्रत्याग) के मेल से बना है, यानि यह कुत्तों के मूत्रत्याग के परिणामस्वरूप उत्पन्न होता है। ऐसी मान्यता भारत के कुछ इलाकों में प्रचलित है, किन्तु यह बिलकुल गलत धारणा है।

खुम्बी के बारे में प्रायः पूछे जाने वाले प्रश्न

  • क्या मशरूम मैदानी क्षेत्रों में उगाई जा सकती है?
जी हां, मशरूम कहीं भी पैदा की जा सकती है बशर्ते वहां का तापमान तथा आर्द्रता जरूरत के अनुसार हो।
  • मशरूम के लिए कौन सी जलवायु उपयुक्त है?
मशरूम एक इंडोर फसल है। फसल के फलनकाय के समय तापमान 14-18° सेल्सियस व आर्द्रता 85 प्रतिशत रखी जाती है।
  • मशरूम की खेती के लिए कौन से पोषाधार की आवश्यकता होती है?
गेहूँ/पुआल की तूड़ी/मुर्गी की बीठ/गेहूँ की चैकर, यूरिया तथा जिप्सम का मिश्रण तैयार करके तैयार खाद पर मशरूम उगाई जाती है। खुम्ब का बीज (स्पॅन) गेहूँ के दानों से तैयार किया जाता है।
  • मशरूम की खेती के लिए कौन सी सामान्य आवश्यकता पड़ती है?
मशरूम एक इंडोर फसल होने के कारण इसके लिए नियंत्रित तापमान और आर्द्रता की आवश्यता पड़ती है। (तापमान 14-18° सेल्सियस व आर्द्रता 85 प्रतिशत रखी जाती है।)
  • क्या मशरूम शाकाहारी अथवा मांसाहारी?
मशरूम शाकाहारी है।
  • मशरूम खाने के क्या-क्या लाभ हैं?
मशरूम पौष्टिक होते हैं, प्रोटीन से भरपूर होते हैं, रेशा व फोलिक एसिड सामग्री होती है जो आमतौर पर सब्जियों व अमीनो एसिड में नहीं होती व मनुष्य के खाने योग्य अन्न में अनुपस्थित रहती है।
  • मशरूम की बाजार क्षमता क्या है?
मशरूम अब काफी लोकप्रिय हो गए हैं व अब इसकी बाजार संभावनाएं बढ़ गई है। श्वेत बटन खुम्ब ताजे व डिब्बाबंद अथवा इसके सूप और आचार इत्यादि उत्पाद तैयार कर बेचे जा सकते हैं। ढींगरी मशरूम सूखाकर भी बेचे जा सकते हैं।
  • मैं मशरूम में मक्खियों से कैसे छुटकारा पा सकता हूँ?
आप स्क्रीनिंग जाल दरवाजे और कृत्रिम सांस के साथ नायलोन अथवा लोहे की जाली (35 से 40 आकार की जाली), पीले रंग का प्रकाश व मिलाथीन अथवा दीवारों पर साईपरमेथरीन की स्प्रे से मक्खियों छुटकारा पा सकते हैं।
  • मैं मशरूम उगाने के लिए कहां से प्रशिक्षण प्राप्त कर सकता हूँ?
आप खुम्ब उत्पादन तकनीकी प्रशिक्षण खुम्ब अनुसंधान निदेशालय, चम्बाघाट, सोलन (हिमाचल प्रदेश) - 173213 अथवा देश के विभिन्न राज्यों के कृषि विश्वविद्यालयों से प्राप्त कर सकते हैं।
  • मशरूम के कौन-कौन से उत्पाद तैयार किए जा सकते हैं?
आप मशरूम से आचार, सूप पाउडर, केंडी, बिस्कुट, बड़िया, मुरब्बा इत्यादि उत्पाद तैयार कर सकते हैं।
  • क्या सरकार मशरूम उत्पादन इकाई लगाने के लिए वित्तीय सहायता/सब्सिडी प्रदान करती है?
नबार्ड, राष्ट्रीय बागवानी बोर्ड और बैंक मशरूम उत्पादन इकाई, स्पाॅन उत्पादन इकाई और खाद बनाने की इकाई लगाने के लिए ऋण प्रदान करते हैं।
  • खाने की मशरूम कितने प्रकार की होती है?
श्वेत बटन खुम्ब, ढींगरी खुम्ब, काला चनपड़ा मशरूम, स्ट्रोफेरिया खुम्ब, दुधिया मशरूम, शिटाके इत्यादि कुछ खाने की मशरूमें हैं जो कि कृत्रिम रूप से उगाई जा सकती है। खाने वाली गुच्छी मशरूम हिमाचल प्रदेश, जम्मू व कश्मीर तथा उत्तराखंड के ऊँचें पहाड़ों से एकत्रित की जाती है।
  • क्या मशरूम में बीमारियां लगती हैं?
जी हां, मशरूम में विभिन्न प्रकार की बीमारियां लगती है। मशरूम की कुछ मुख्य बीमारियां गीला बुलबुला, शुश्क बुलबुला, कोब बेब व मोल्ड (हरा, पीला, भूरा) है