Wednesday, 27 January 2016

पशुधन उत्पादन प्रणाली और फसल परिवर्तन और जैव प्रौद्योगिकी

पशुधन उत्पादन

जंतु जैसे घोडे, खच्चर, बैल, ऊंट, लामा, अल्पकास और कुत्तों का उपयोग अक्सर भूमि की जुताई में, फसल की कटाई में, अन्य पशुओं को इकठ्ठा करने में और खरीददारों तक कृषि उत्पाद का परिवहन करने में किया जाता है।
पशुपालन में न केवल मांस और जंतु उत्पादों (जैसे दूध, अंडा और ऊन) की निरंतर प्राप्ति के लिए पशुओं का प्रजनन करवाया जाता है बल्कि काम और साथ के लिए भी उनकी प्रजातियों में प्रजनन करवाया जाता है और उनकी देखभाल की जाती है।
पशुधन उत्पादन प्रणालियों को भोजन के स्रोत के आधार पर परिभाषित किया जा सकता है, जैसे चारागाह आधारित, मिश्रित और भूमिहीन।[37] चारागाह आधारित पशुधन उत्पादन, जुगाली करने वाले जानवरों के भोजन के लिए पादप पदार्थों जैसे झाड़ युक्त भूमि, रेंजलैंड और चरागाहों पर निर्भर करता है।
बाहरी पोषक तत्वों के निवेश का भी इस्तेमाल किया जा सकता है, हालांकि खाद सीधे एक मुख्य पोषक स्रोत के रूप में चरागाह पर पहुँच जाती है।
यह प्रणाली विशेषकर उन क्षेत्रों में महत्वपूर्ण है, जहां 30-40 मिलियन पेस्टोरालिस्ट का प्रतिनिधित्व करने वाले, जलवायु या मिट्टी के कारण फसल उत्पादन संभव नहीं है।[33] मिश्रित उत्पादन प्रणाली में जुगाली करने वाले जानवरों और मोनोगेस्टिक (एक आमाशय वाले; मुख्यतया मुर्गियां और सूअर) पशुधन के भोजन के रूप में चरागाहों, चारा फसलों और अनाज खाद्य फसलों का प्रयोग किया जाता है।
आम तौर पर मिश्रित प्रणाली में खाद को, फसल के लिए एक उर्वरक के रूप में पुनः चक्रीकृत कर दिया जाता है।
अनुमानतः पूर्ण कृषि भूमि का 68% भाग स्थायी चारागाह हैं जिनका उपयोग पशुधन के उत्पादन में किया जाता है।[38] भूमिहीन प्रणालियां खेत के बाहर से भोजन प्राप्त करती हैं, ये OECD सदस्य देशों में अधिक प्रचलित रूप से पाए जाने वाले पशुधन उत्पादन और फसलों को असंबंधित करती हैं।
अमेरिका में, विकसित अनाज का 70% भाग, खाद्य स्थानों पर पशुओं को खिला दिया जाता है।[33] फसल उत्पादन और खाद के उपयोग के लिए, कृत्रिम उर्वरक पर बहुत अधिक निर्भरता एक चुनौती बन गयी है और साथ ही प्रदूषण का एक स्रोत भी।

 फसल परिवर्तन और जैव प्रौद्योगिकी

फसल परिवर्तन की प्रथा, मानव के द्वारा हजारों सालों से, सभ्यता की शुरुआत से ही अपनायी जा रही है,
प्रजनन की प्रक्रियाओं के द्वारा फसल में परिवर्तन, एक पौधे की आनुवंशिक सरंचना को बदल देता है, जिससे मानव के लिए अधिक लाभकारी लक्षणों से युक्त फसल विकसित होती है, उदाहरण के लिए बड़े फल या बीज, सूखे के लिए सहिष्णुता और कीटों के लिए प्रतिरोध।
जीन विज्ञानी ग्रिगोर मेंडल के कार्य के बाद पादप प्रजनन में महत्वपूर्ण उन्नति हुई। प्रभावी और अप्रभावी एलीलों पर उनके द्वारा किये गए कार्य ने, आनुवंशिकी के बारे में पादप प्रजनकों को एक बेहतर समझ दी। और इससे पादप प्रजनकों के द्वारा प्रयुक्त तकनीकों को महान अंतर्दृष्टि प्राप्त हुई। फसल प्रजनन में स्व-परागण, पर-परागण और वांछित गुणों से युक्त पौधों का चयन, जैसी तकनीकें शामिल हैं और वे आण्विक तकनीकें भी इसी में शामिल हैं जो जीव को आनुवंशिक रूप से संशोधित करती हैं।[48] सदियों से पौधों के घरेलू इस्तेमाल के कारण उनकी उपज में वृद्धि हुई है, इससे रोग प्रतिरोध और सूखे के प्रति सहनशीलता में सुधार हुआ है, साथ ही इसने फसल की कटाई को आसान बनाया है व फसली पौधों के स्वाद और पोषक तत्वों में वृद्धि हुई है।
सावधानी पूर्वक चयन और प्रजनन ने फसली पौधों की विशेषताओं पर भारी प्रभाव डाला है। 1920 और 1930 के दशक में, पौधों के चयन और प्रजनन ने, न्यूजीलैंड में चरागाहों (घास और तिपतिया घास) में काफी सुधार किया।
1950 के दशक के दौरान एक पराबैंगनी व्यापक X-रे के द्वारा प्रेरित उत्परिवर्तजन प्रभाव (आदिम आनुवंशिक अभियांत्रिकी) ने गेहूं, मकई (मक्का) और जौ जैसे अनाजों की आधुनिक किस्मों का उत्पादन किया।[49][50]
हरित क्रांति ने "उच्च-उत्पादकता की किस्मों" के निर्माण के द्वारा उत्पादन को कई गुना बढ़ाने के लिए पारंपरिक संकरण के उपयोग को लोकप्रिय बना दिया।
उदाहरण के लिए, संयुक्त राज्य अमेरिका में मकई (मक्का) की औसत पैदावार 1900 में 2। 5 टन प्रति हेक्टेयर (t/ha) (40 बुशेल्स प्रति एकड़) से बढ़कर 2001 में 9। 4 टन प्रति हेक्टेयर (t/ha) (150 बुशेल्स प्रति एकड़) हो गयी।
इसी तरह दुनिया की औसत गेंहू की पैदावार 1900 में 1 टन प्रति हेक्टेयर से बढ़ कर 1990 में 2। 5 टन प्रति हेक्टेयर हो गई है। सिंचाई के साथ दक्षिण अमेरिका की औसत गेहूं की पैदावार लगभग 2 टन प्रति हेक्टेयर है, अफ्रीका की 1 टन प्रति हेक्टेयर से कम है, मिस्र और अरब की 3। 5 से 4 टन प्रति हेक्टेयर तक है। इसके विपरीत, फ़्रांस जैसे देशों में गेंहू की पैदावार 8 टन प्रति हेक्टेयर से अधिक है। पैदावार में ये भिन्नताएं मुख्य रूप से जलवायु, आनुवांशिकी और गहन कृषि तकनीकों (उर्वरकों का उपयोग, रासायनिक कीट नियंत्रण, अवांछनीय पौधों को रोकने के लिए वृद्धि नियंत्रण) के स्तर में भिन्नताओं के कारण होती हैं।

रबी में किसानों को कम पानी वाली फसलें बोने की सलाह दी जाए- कलेक्टर

कलेक्टर श्री नीरज दुबे ने कृषि विभाग के अधिकारियों से कहा है कि वे रबी मौसम में कम पानी की फसलें बोने की किसानों को सलाह दें। उन्होंने किसानों को पर्याप्त मात्रा में खाद की व्यवस्था करने के उप संचालक कृषि को निर्देश दिए। कलेक्टर श्री दुबे यहां कलेक्ट्रेट सभाकक्ष में कृषि आदान व्यवस्था की समीक्षा कर रहे थे। बैठक में उप संचालक कृषि, उप संचालक उद्यानिकी, भीकनगांव एवं कसरावद के अनुविभागीय अधिकारी राजस्व, सहायक संचालक आत्मा परियोजना तथा उप पंजीयक सहकारिता सहित विभिन्न विभागों के अधिकारी उपस्थित थे।
   कलेक्टर ने जिले में खाद की उपलब्धता एवं खाद के अग्रिम उठाव की स्थिति के बारे में उप संचालक कृषि से पूछा। कलेक्टर ने मिर्च की फसल को वाइरस से मुक्त रखने हेतु कारगर रणनिति बनाने के लिए कृषि अधिकारियों से सुझाव देने को कहा। कलेक्टर ने मिर्च फसल की जानकारी लेने के लिए आंधप्रदेश के भ्रमण से लौटकर आए किसानों की कार्यशाला आयोजित करने के उप संचालक कृषि को निर्देश दिए, ताकि जिले के अन्य किसानों को वे अपने अनुभव सुना सकें।
   उप संचालक कृषि ने जानकारी दी कि रबी फसल हेतु जिले में यूरिया 2211 मे. टन, एसएसपी 7000 मे. टन, डीएपी 10900 मे. टन, पोटाश 3755 मे. टन एवं काम्प्लेक्स 2274 मे. टन की आपूर्ति की गई। जबकि रबी में किसानों को 29620.70 क्विंटल बीज का वितरण किया गया। इसमें से 23935 क्विंटल गेंहू एवं 5685.70 क्विंटल चना बीज का किसानों में अब तक वितरण किया जा चुका है।  
   उप संचालक कृषि के मुताबिक रबी में जिले में अब तक 87367 हेक्टेयर रकबे में बुवाई की जा चुकी है। इसमें से 61673 हेक्टेयर रकबे में गेंहू, 2000 हेक्टेयर में मक्का एवं अन्य, 21500 हेक्टेयर में चना, 28 हेक्टेयर में मटर, 6 हेक्टेयर में मसूर 543 हेक्टेयर में अन्य दलहन फसलें 100 हेक्टेयर में सरसों, 3 हेक्टेयर में अलसी, 519 हेक्टेयर में अन्य तिलहन फसलें, 880 हेक्टेयर में गन्ना तथा 115 हेक्टेयर में आलू एवं अन्य फसलें बोई जा चुकी है।

Tuesday, 26 January 2016

हर मौसम में खाइए गाजर,मूली और मटर


vegetables
मौसम कोई भी हो और आपका मन करे गाजर, मूली और गोभी खाने का तो फिक्र नहीं, क्योंकि ये सब्जियां आपको हर मौसम में मिलेंगी.
ऐसा संभव हुआ है नई तकनीक के जरिए, मध्य प्रदेश के कई जिलों में पॉली हाउस तकनीक के जरिए साल भर ये सब्जियां उगाई जा रही हैं.
इन पॉली हाउस में गाजर, मूली, मेथी, मटर, फूल गोभी तथा पत्ता गोभी जैसी सब्जियां तो उगाई ही जा रही हैं, साथ में डच रोज, जरबेरा, कार्मेसेंट जैसी सजावटी फूलों की फसल ली जा रही है. पॉली हाउस ने किसानों की जिंदगी में नई रोशनी लाने का काम किया है.

शाजापुर के पतोली के मोइन खान के लिए तो पॉली हाउस वरदान साबित हो रहे हैं.
उनके तीन पॉली हाउस हैं, जिनमें रंगीन शिमला मिर्च उगाते हैं. शिमला मिर्च देश-विदेश के पांच सितारा होटलों में सलाद व चाइनीज फूड में प्रमुखता से इस्तेमाल की जाती है.

मोइन खान बताते हैं कि इस रंगीन शिमला मिर्च की मांग अरब देशों में ज्यादा है. उनके एक पॉली हाउस जिसका आकार एक हजार वर्ग फुट है वहां लगभग 25 टन शिमला मिर्च का उत्पादन होता है. इस एक पॉली हाउस में पैदा होने वाली शिमला मिर्च से वह दो लाख रुपये का मुनाफा कमा लेते हैं.

खान के अनुसार यह तकनीक मुख्य रूप से इजराइल तथा हॉलैंड में अपनाई जाती है. इसके लिए दो तरह के ग्रीन हाउस नेचुरली वेंटीलेटेड तथा फेनपेड है.
भारत में नेचुरली वेटीलेटेड तकनीक को प्रमुखता से अपनाया जाता है. इसमें बिजली की भी जरूरत नहीं होती. इजराइल व हॉलैंड में इस तकनीक से फूलों की खेती होती है, जबकि भारत में सब्जी की फसल में इस तकनीक का इस्तेमाल किया जा रहा है.

इसी तरह सीहोर जिले के आमरोद गांव के किसान गजराज सिंह पॉली हाउस से खेती कर काफी खुश हैं. वह बताते हैं कि मेथी की खेती कर वह हर माह 15 से 20 हजार रुपये कमाने की उम्मीद रखते हैं.

ज्ञात हो कि पॉली हाउस तकनीक का उपयोग संरक्षित खेती के तहत किया जा रहा है. इस तकनीक से जलवायु को नियंत्रित कर दूसरे मौसम में भी खेती की जा सकती है.
ड्रिप पद्धति से सिंचाई कर तापमान व आद्र्रता को नियंत्रित किया जाता है. इससे कृत्रिम खेती की जा सकती है, इस तरह जब चाहें तब मनपसंद फसल पैदा कर सकते हैं.

राष्ट्रीय उद्यानिकी मिशन के तहत इस कार्य के लिए प्रति यूनिट लागत 935 प्रति वर्ग मीटर की दर से दी जाती है. इसमें 50 प्रतिशत राशि किसान को दी जाती है. वर्तमान में मध्य प्रदेश में लगभग 50 हजार वर्गमीटर में पॉली हाउस तकनीक अपनाई जा रही है.

अमृत जीवन हम भगवान के भगवान हमारे

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क्या हम वाकई भगवान के हैं और भगवान हमारे हैं इस सोच को अगर ध्यान दिया जाए तब एक बात तय है कि हमारी उत्पत्ति भगवान से ही हुई है और हम इस संसार में आने के बाद धीरे धीरे भूलने लगते हैं कि हम कहां से आए हैं या किसके अंश हैं या फिर किसका प्रतिनिधित्व कर रहे हैं। हम तो बस अपनी मौज में जीने लगते हैं और स्वयं की भौतिक उन्नति कैसे हो इस बारे में विचार करते रहते हैं। माया के फेर में व्यक्ति इतना उलझ जाता है कि वह आत्मिक उन्नति के बारे में सोच भी नहीं पाता और केवल अपने सुख की सोचता रहता है। जिसके कारण यह असर हुआ है कि व्यक्ति स्वार्थ से घिर गया है और केवल अपने बारे में सोचने की बुद्धि से ही काम करता है। जब बुद्धि ही ऐसी हो जाए तब फिर ज्ञान प्राप्ति के लिए किसी भी तरह का कदम वह नहीं उठा पाता है। भगवान हमारे ही है के पहले हम भगवान के हैं कि मानसिकता हमें विकसित करना होगी और अगर यह भावना हममें विकसित हो गई तब आत्मिक उन्नति अपने आप हो जाएगी।