
क्या हम वाकई भगवान के हैं और भगवान हमारे हैं इस सोच को अगर ध्यान दिया जाए तब एक बात तय है कि हमारी उत्पत्ति भगवान से ही हुई है और हम इस संसार में आने के बाद धीरे धीरे भूलने लगते हैं कि हम कहां से आए हैं या किसके अंश हैं या फिर किसका प्रतिनिधित्व कर रहे हैं। हम तो बस अपनी मौज में जीने लगते हैं और स्वयं की भौतिक उन्नति कैसे हो इस बारे में विचार करते रहते हैं। माया के फेर में व्यक्ति इतना उलझ जाता है कि वह आत्मिक उन्नति के बारे में सोच भी नहीं पाता और केवल अपने सुख की सोचता रहता है। जिसके कारण यह असर हुआ है कि व्यक्ति स्वार्थ से घिर गया है और केवल अपने बारे में सोचने की बुद्धि से ही काम करता है। जब बुद्धि ही ऐसी हो जाए तब फिर ज्ञान प्राप्ति के लिए किसी भी तरह का कदम वह नहीं उठा पाता है। भगवान हमारे ही है के पहले हम भगवान के हैं कि मानसिकता हमें विकसित करना होगी और अगर यह भावना हममें विकसित हो गई तब आत्मिक उन्नति अपने आप हो जाएगी।
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