Tuesday, 8 December 2015

खरीफ प्याज उत्पादन तकनीक

परिचय

प्याज एक महत्वपूर्ण सब्जी एवं मसाला फसल है। इसमें प्रोटीन एवं कुछ विटामिन भी अल्प मात्रा में रहते हैं। प्याज में बहुत से औषधीय गुण पाये जाते हैं। प्याज का सूप, अचार एवं सलाद के रूप में उपयोग किया जाता है। भारत के प्याज उत्पादक राज्यों में महाराष्ट्र, गुजरात, उ.प्र., उड़ीसा, कर्नाटक, तमिलनाडू, म.प्र.,आन्ध्रप्रदेश एवं बिहार प्रमुख हैं। मध्यप्रदेश भारत का सबसे बड़ा प्याज उत्पादक प्रदेश है। म.प्र. में प्याज की खेती खंण्डवा, शाजापुर, रतलाम छिंन्दवाड़ा, सागर एवं इन्दौर में मुख्य रूप से की जाती है। सामान्य रूप में सभी जिलों में प्याज की खेती की जाती है। भारत से प्याज का निर्यात मलेशिया, यू.ए.ई. कनाडा,जापान,लेबनान एवं कुवैत में निर्यात किया जाता है।

जलवायु

यद्यपि प्याज ठण्डे मौसम की फसल है,लेकिन इसे खरीफ में भी उगाया जा सकता है। कंद निर्माण के पूर्व प्याज की फसल के लिए लगभग 210 से.ग्रे.तापक्रम उपयुक्त माना जाता है। जबकि शल्क कंदों में विकास के लिए 150 से.ग्रे. से 250 से.ग्रे.का तापक्रम उत्तम रहता है।

मृदा

प्याज की खेती विभिन्न प्रकार की मृदाओं में की जा सकती है। प्याज की खेती के लिए उचित जलनिकास एवं जीवांशयुक्त उपजाऊ दोमट तथा बालुई दोमट भूमि जिसका पी.एच.मान 6.5-7.5 के मध्य हो सर्वोत्तम होती है, प्याज को अधिक क्षारीय या दलदली मृदाओं में नही उगाना चाहिए।

उन्नत किस्में

म.प्र में खरीफ प्याज की प्रमुख उन्नत किस्में निम्नलिखित हैं-
एग्री फाउंड डार्क रेड
यह किस्म भारत में सभी क्षेत्रों में उगाने के लिए उपयुक्त है। इसके शल्क कन्द गोलाकार, 4-6 सेमी. आकार वाले, परिपक्वता अवधि 95-110, औसत उपज 300 क्विंटल प्रति हेक्टेयर। यह किस्म खरीफ प्याज(वर्षात की प्याज)उगाने के लिए अनुशंसित है।
एन-53
भारत के सभी क्षेत्रों में उगाया जा सकता है, इसकी परिपक्वता अवधि 140 दिन, औसत उपज 250-300 क्विंटल प्रति हेक्टेयर, इसे खरीफ प्याज (वर्षातकी प्याज) उगाने हेतु अनुशंसित किस्म हैं।
भीमा सुपर
यह किस्म भी खरीफ एवं पिछेती खरीफ के लिये उपयुक्त है। यह किस्म 110-115 दिन में तैयार हो जाती है तथा प्रति हेक्टेयर 250-300 क्विंटल तक उपज देती है।

एग्री फाउंड डार्क रेड               एन-53 भीमा सुपर

भूमि की तैयारी

प्याज के सफल उत्पादन में भूमि की तैयारी का विशेष महत्व है। खेत की प्रथम जुताई मिट्‌टी पलटने वाले हल से करना चाहिए। इसके उपरान्त 2 से 3 जुताई कल्टीवेटर या हैरा से करें, प्रत्येक जुताई के पश्चात्‌ पाटा अवश्य लगाएं जिससे नमी सुरक्षित रहे तथा साथ ही मिट्‌टी भुर-भुरी हो जाए। भूमि को सतह से 15 से.मी.उंचाई पर1.2 मीटर चौड़ी पट्‌टी पर रोपाई की जाती है अतः खेत को रेज्ड-बेड सिस्टम से तैयार किया जाना चाहिए।

खाद एवं उर्वरक

प्याज की फसल को अधिक मात्रा में पोषक तत्वों की आवश्यकता होती है। प्याज की फसल में खाद एवं उर्वरक का प्रयोग मृदा परीक्षण के आधार पर ही करना चाहिए। गोबर की सड़ी खाद 20-25 टन/हेक्टेयर रोपाई से एक-दो माह पूर्व खेत में डालना चाहिए। इसके अतिरिक्त नत्रजन 100 कि.ग्रा. प्रति हेक्टेयर, स्फुर 50 कि.ग्रा. प्रति हेक्टेयर तथा पोटाश 50 कि.ग्रा. प्रति हेक्टेयर देने की अनुसंशा की जाती हैं। इसके अतिरिक्त सल्फर 25 कि.ग्रा. एवं जिंक 5 कि.ग्रा. प्रति हेक्टेयर प्याज की गुणवत्ता सुधारने के लिए आवश्यक होते हैं।

पौध तैयार करना

पौधशाला के लिए चुनी हुई जगह की पहले जुताई करें इसके पश्चात्‌ उसमें पर्याप्त मात्रा में गोबर की सड़ी खाद या कम्पोस्ट डालना चाहिए। पौधशाला का आकार 3 मीटर*0.75 मीटर रखा जाता हैं और दो क्यारियों के बीच 60-70 सेमी. की दूरी रखी जाती हैं जिससे कृषि कार्य आसानी से किये जा सके। पौधशाला के लिए रेतीली दोमट भूमि उपयुक्त रहती है, पौध शैय्या लगभग 15 सेमी. जमीन से ऊँचाई पर बनाना चाहिए बुवाई के बाद शैय्या में बीजों को 2-3 सेमी. मोटी सतह जिसमें छनी हुई महीन मृदा एवं सड़ी गोबर की खाद या कम्पोस्ट खाद से ढंक देना चाहिए। बुवाई से पूर्व शैय्या को 250 गेज पालीथीन द्वारा सौर्यकरण उपचारित कर लें।
बीजों को हमेशा पंक्तियों में बोना चाहिए। खरीफ मौसम की फसल के लिए 5-7 सेमी. लाइन से लाइन की दूरी रखते हैं। इसके पश्चात्‌ क्यारियों पर कम्पोस्ट, सूखी घास की पलवार(मल्चिंग) बिछा देते हैं जिससे भूमि में नमी संरक्षण हो सके। पौधशाला में अंकुरण हो जाने के बाद पलवार हटा देना चाहिए। इस बात का ध्यान रखा जाये कि पौधशाला की सिंचाई पहले फब्बारे से करना चाहिए। पौधों को अधिक वर्षा से बचाने के लिए पौधशाला या रोपणी को पॉलीटेनल में उगाना उपयुक्त होगा।

बीज की मात्रा

खरीफ मौसम के लिए 15-20 किग्रा. प्रति हेक्टेयर बीज की आवश्यकता होती हैं।

पौधशाला शैय्या पर बीज की बुआई एवं रोपाई का समय

खरीफ मौसम हेतु पौधशाला शैय्या पर बीजों की पंक्तियों में बुवाई 1-15 जून तक कर देना चाहिए, जब पौध 45 दिन की हो जाएं तो उसकी रोपाई कर देना उत्तम माना जाता है।
पौध की रोपाई कूड़ शैय्या पद्धति से तैयार खेतों पर करना चाहिए, इसमें 1.2 मीटर चौड़ी शैय्या एवं लगभग 30 से.मी. चौड़ी नाली तैयार की जाती हैं।

खरपतवार नियंत्रण

फसल को खरपतवारों से मुक्त रखने के लिए कुल 3 से 4 निराई-गुड़ाई की आवश्यकता होती है। प्याज के पौधे एक-दूसरे के नजदीक लगाये जाते है तथा इनकी जड़ें भी उथली रहती है अतः खरपतवार नष्ट करने के लिए रासायनिक पदार्थों का उपयोग किया जाना उचित होता है। इसके लिए पैन्डीमैथेलिन 2.5 से 3.5 लीटर/हेक्टेयर अथवा ऑक्सीफ्लोरोफेन 600-1000 मिली/हेक्टेयर खरपतवार नाशक पौध की रोपाई के 3 दिन पश्चात 750 लीटर पानी में मिलाकर छिड़काव करना बहुत प्रभावी और उपयुक्त पाया गया है।

सिंचाई एवं जल निकास

खरीफ मौसम की फसल में रोपण के तुरन्त बाद सिंचाई करना चाहिए अन्यथा सिंचाई में देरी से पौधे मरने की संभावना बढ़ जाती हैं। खरीफ मौसम में उगाई जाने वाली प्याज की फसल को जब मानसून चला जाता है उस समय सिंचाईयाँ आवश्यकतानुसार करना चाहिएं। इस बात का ध्यान रखा जाए कि शल्ककंद निर्माण के समय पानी की कमी नहीं होना चाहिए क्योंकि यह प्याज फसल की क्रान्तिक अवस्था होती है क्योंकि इस अवस्था में पानी की कमी के कारण उपज में भारी कमी हो जाती है, जबकि अधिक मात्रा में पानी बैंगनी धब्बा(पर्पिल ब्लाच) रोग को आमंत्रित करता है। काफी लम्बे समय तक खेत को सूखा नहीं रखना चाहिए अन्यथा शल्ककंद फट जाएंगे एवं फसल जल्दी आ जाएगी, परिणामस्वरूप उत्पादन कम प्राप्त होगा। अतः आवश्यकतानुसार 8-10 दिन के अंतराल से हल्की सिंचाई करना चाहिए।
यदि अधिक वर्षा या अन्य कारण से खेत में पानी रूक जाए तो उसे शीघ्र निकालने की व्यवस्था करना चाहिए अन्यथा फसल में फफूंदी जनित रोग लगने की संभावना बढ़ जाती हैं।

कंदों की खुदाई

खरीफ प्याज की फसल लगभग 5 माह में नवम्बर-दिसम्बर माह में खुदाई के लिए तैयार हो जाती है। जैसे ही प्याज की गाँठ अपना पूरा आकर ले लेती है और पत्तियां सूखने लगें तो लगभग 10-15 दिन पूर्व सिंचाई बंद कर देना चाहिए और प्याज के पौधों के शीर्ष को पैर की मदद से कुचल देना चाहिए। इससे कंद ठोस हो जाते हैं और उनकी वृद्धि रूक जाती है। इसके बाद कंदों को खोदकर खेत में ही कतारों में ही रखकर सुखाते है।

फसल सुरक्षा

1. थ्रिप्स
ये कीट पत्तियों का रस चूसते हैं जिसके कारण पत्तियों पर चमकीली चांदी जैसी धारियां या भूरे रंग के धब्बे बन जाते हैं। ये बहुत छोटे पीले या सफेद रंग के कीट होते हैं जो मुख्य रूप से पत्तियों के आधार या पत्तियों के मध्य में घूमते हैं।
इसके नियंत्रण हेतु नीम तेल आधारित कीटनाशियों का छिड़काव करें या इमीडाक्लोप्रि कीटनाशी 17.8 एस.एल. दवा की मात्रा 125 मिली./हे. 500-600 लीटर पानी में मिलाकर छिड़काव करें।
2. माइट
इस कीट के प्रकोप के कारण पत्तियों पर धब्बों का निर्माण हो जाता हैं और पौधे बौने रह जाते हैं। इसके नियंत्रण हेतु 0.05: डाइमेथोएट दवा का छिड़काव करें।
यह एक फफूंदी जनित रोग है, इस रोग का प्रकोप दो परिस्थितियों में अधिक होता है पहला अधिक वर्षा के कारण दूसरा पौधों को अधिक समीप रोपने से पत्तियों पर बैंगनी रंग के धब्बे बन जाते हैं। परिणामस्वरूप पौधों की बढ़वार एवं विकास पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।
3. बैंगनी धब्बा(परपल ब्लॉच)

इसके लक्षण दिखाई देने पर मेनकोजेब (2.5 ग्रा./ली. पानी) का 10 दिन के अन्तराल से छिड़काव करें। इन फफूंदनाशी दवाओं में चिपकने वाले पदार्थ जैसे सैन्उो विट, ट्राइटोन या साधारण गोंद अवश्य मिला दें जिससे घोल पत्तियों पर प्रभावी नियंत्रण हेतु चिपक सके।
खरीफ प्याज की प्रति हेक्टेयर उपज 250-300 क्विंटल तक मिल जाती है।

उपज

खेत की तैयारी

  • जुताई 2 बार,6 घण्टे प्रति जुताई /400/- प्रति घण्टा 
  • कल्टीवेटर एक बार, 6 घण्टे प्रति जूताई / 400/- प्रति घण्टा
  • खेत का समतलीकरण. क्यारियॉ. सिंचाई लालियॉ और मेड बनाना
4800.00
2400.00
2000.00


खाद एवं उर्वरक
  • गोबर की खाद/कम्पोस्ट 20 टन, / 2500/- प्रति टन
  • रासायनिक उर्वरक
  • बीज 15 किग्रा. / 650 प्रति किग्रा.
  • बीज बोना, पौधे तैयार करना, रोपाई 30 मजदूर /200/- प्रति मजदूर
  • खरपतवार नियंत्रण, सिचाई 20 / 200 प्रति मजदूर
  • निराई-गुडाई दो-दो बार, 30 मजदूर प्रति / 200/-मजदूर
  • पौघ संरक्षण उपाय, दवायें एवं मजदूरी
  • कंद छॅटाई, सफाई, भण्डारण, बोरे एवं भराई
  • विक्रय हेतू खेतों से बाजार तक परिवहन लागत
  • अन्य व्यय
50000.00
5200.00
9750.00
6000.00
4000.00
12000.00
5000.00
4000.00
5000.00
4000.00
5000.0
कुल लागत
1,19,150.00
उत्पादन 225 क्विं/हेक्टेयर,विक्रय मूल्य 1600/-प्रति क्विंटल
3,60,000.00
लाभ लागत अनुपात
1:3.02





 

मिट्टी परीक्षण के तरीके सीखे, स्टाल लगाकर किसानों को दी जानकारी किसान मेला



विश्व मृदा दिवस के मौके पर कृषि विभाग ने जिले के 1350 किसानों को हेल्थ स्वाइल कार्ड बांटा। इस दौरान स्टॉल लगाकर कृषि विभाग की योजनाअों के बारे में जानकारी दी गई। यही नहीं किसानों को मिट्टी परीक्षण के तरीके भी बताए गए। मेगा किसान मेले में जिलेभर से लगभग दो हजार किसान शामिल हुए। 

  विश्व मृदा दिवस के माैके पर कृषि विभाग ने ठाकुर छेदीलाल बैरिस्टर छेदीलाल एग्रीकल्चर कॉलेज में मेगा किसान मेले का आयोजन किया था। इस दौरान अतिथियों के हाथों 1350 किसान को स्वाइल हेल्थ कार्ड का वितरण कराया गया। कार्यक्रम के अतिथि बिलासपुर लाेकसभा के सांसद लखन लाल साहू ने कहा कि किसान अपने खेतों का मिट्टी का परीक्षण अवश्य कराएं। मिट्टी परीक्षण के बाद ही पता चलेगा कि उसमें कौन से कमी है। इस कमी को दूर करने के लिए आवश्यकता अनुसार खाद डाले और अधिक उत्पादन ले
उन्होंने कहा कि मृदा परीक्षण से मिट्टी के तत्वों की कमी या अधिकता की जानकारी मिलती है। इस तरह मिट्टी का स्वास्थ्य परीक्षण होता है। मिट्टी में जिन तत्वों की कमी है उसके अनुसार ही उर्वरक का उपयोग करने से अच्छी फसल होती है। केन्द्र सरकार ने आज के दिन को मृदा दिवस के रूप में मनाने का निर्णय लिया है और इस दिवस पर कृषकों को जागरूक करने यह आयोजन किया गया है। बिल्हा की जनपद अध्यक्ष गीताजंलि कौशिक ने कहा कि जवान और किसान हमारे देश के लिए महत्वपूर्ण है। जवान सीमा में देश को सुरक्षित रखते है और किसान हमारे देश में नागरिकों के अनाज की पूर्ति करते है। उन्होंने किसानों से कृषि विभाग की योजनाओं का लाभ लें। अपने खेतों की मिट्टी परीक्षण अवश्य कराएं। जिला पंचायत सदस्य शुकवारा सालिक राम यादव और कृषक र| राघवेन्द्र चंदेल ने भी मिट्टी परीक्षण पर जोर दिया।

देर से आए अतिथि होता रहा इंतजार

योजनाओं की जानकारी देते रहे कलाकार

17 हजार के मिट्टी परीक्षण का टारगेट


कार्यक्रम सुबह 10 बजे शुरू होना था। समय पर कृषि विभाग के अफसर भी पहुंच गए थे, लेकिन अतिथि विलंब से पहुंचे। नगरीय प्रशासन मंत्री अमर अग्रवाल, कमिश्नर सोनमणि बोरा, कलेक्टर अन्बलगन पी समेत कई जनप्रतिनिधि और अफसर पहुंचे ही नहीं। पेंड्रा क्षेत्र के किसान राम सहाय, कोटा क्षेत्र के पुनीराम साहू, मस्तूरी के साधे लाल बंजारे समेत अन्य किसान सुबह से ही पहुंच गए थे।

कृषि विभाग की ओर से किसानों के लिए मनोरंजन की व्यवस्था की गई थी। लोक कलाकार गीत-संगीत से विभागी की योजनाओं के बारे में जानकारी दे रहे थे। दूर-दराज से आए किसान इसका लुत्फ उठाते रहे। लोक कलाकार गीत-संगीत के माध्यम से खेती से लेकर धान की मिंजाई की जानकारी देते रहे।

17 हजार किसानों के मिट्टी परीक्षण का टारगेट है। इसमें 10 हजार कृषकों का मिट्टी परीक्षण के लिए संग्रह किया गया है। विभाग की ओर से किसानों को जानकारी देने एवं जागरूक करने के लिए 28 स्टाल लगाए गए थे। यही नहीं पोषक तत्वों की कमी से फसलों पर पड़ने वाले प्रभावों को ग्राफ के माध्यम से बताया गया। किसानों को जैविक खाद और आधुनिक पद्धति से खेती करने पर जोर दिया गया।

60 हजार किसानों के मिट्टी परीक्षण का लक्ष्य


जिले में 2 लाख 66 हजार 380 कृषक है। जिनमें 3 वर्षों में 60 हजार किसानों का मिट्टी परीक्षण का लक्ष्य रखा गया है। इस वर्ष 17 हजार कृषकों का लक्ष्य निर्धारित किया गया है। किसान मेले में 1350 किसानों को हेल्थ स्वाइल कार्ड दिया गया।’’ - जेएस काकोरिया, उपसंचालक, कृषि

भोपाल गैस त्रासदी को हुए पूरे तीस


  भोपाल गैस त्रासदी को हुए पूरे तीस साल हो गए हैं लेकिन यह त्रासदी आज भी हर दिन घटित हो रही है. दसियों हजार व्यक्तियों का जीवन इसके कारण नरक बन गया है.
भोपाल त्रासदी से पहले और बाद में मध्य प्रदेश सरकार और भारत सरकार ने जिस तरह से अमेरिकी बहुराष्ट्रीय कंपनी यूनियन कार्बाइड के प्रति उदारता और पीड़ितों के प्रति निर्ममता दिखाई, उस पर यकीन करना मुश्किल है. हिरोशिमा और नागासाकी पर गिराए गए परमाणु बमों के कारण उत्पन्न स्थिति के बारे में कहा गया था कि जीवित बचे लोग मरने वालों से ईर्ष्या करेंगे क्योंकि उनका जीवन मौत से भी बदतर होगा. यूनियन कार्बाइड फैक्ट्री से हुए जहरीली गैस के रिसाव से 2 दिसंबर, 1984 की रात को हजारों लोगों मारे गए, लेकिन जो जिंदा हैं वे आज भी इस विभीषिका को भुगत रहे हैं. आज भी पैदा होने वाले अनेक शिशु जन्म से ही किसी न किसी गंभीर बीमारी या विकलांगता का शिकार हैं.
1984 में सरकार ने मरने वालों की संख्या 3,787 बताई थी. 2008 में मध्य प्रदेश सरकार की कार्य योजना में यह संख्या लगभग 16,000 दी गई थी. गैस पीड़ितों को मुआवजा देने वाली अदालत ने पीड़ितों की संख्या 5.73 लाख मानी थी. लेकिन गैस पीड़ितों के कल्याण के लिए काम करने वाले कार्यकर्ता कहते हैं कि इस त्रासदी में कम से कम 23,000 व्यक्ति मारे गए हैं और लाखों व्यक्तियों का जीवन इसके कारण नरक बन गया है. उनके लिए यह त्रासदी कभी न खत्म होने वाले दुःस्वप्न की तरह है.
भारतीय राज्य की प्रतिक्रिया सचमुच स्तब्धकारी रही है. यूनियन कार्बाइड के मुख्य कार्यकारी अधिकारी वारेन एंडरसन को गिरफ्तार किया गया, लेकिन रातोंरात उन्हें जमानत दिलवा कर सरकारी सुरक्षा में दिल्ली हवाई अड्डे लाया गया और वे आराम से अमेरिका पहुंच गए जबकि उन पर और उनकी कंपनी पर भारतीय कानून के तहत मुकदमा चलना चाहिए था. सरकार ने उनके प्रत्यावर्तन की भी कोई कोशिश नहीं की. यूनियन कार्बाइड के कुछ कर्मचारियों और अध्यक्ष केशव महेन्द्रा पर मुकदमा चला और उन्हें दो साल की सजा हुई, लेकिन उन्हें तत्काल जमानत पर रिहा भी कर दिया गया.
कानूनन यूनियन कार्बाइड पर कारखाने के रख-रखाव, बची हुई अनुपयोगी सामग्री को वहां से हटाने और कारखाने की सफाई की पूरी जिम्मेदारी थी. लेकिन स्थिति यह है कि आज भी बंद कारखाने में टनों जहरीले रसायन पड़े हुए हैं और वे भूमिगत पानी के साथ मिलकर आसपास रहने वाले लोगों की खाने-पीने की चीजों में जहर घोल रहे हैं. लेकिन सरकारी एजेंसियों को कोई परवाह नहीं है. तीस साल बाद भी कारखाने की सफाई नहीं की गई है क्योंकि अभी तक यह तय नहीं हो सका है कि यह किसकी जिम्मेदारी है, और इस बारे में मुकदमें आज भी अदालतों में हैं.
1989 में भारत सरकार ने यूनियन कार्बाइड के साथ अदालत के बाहर एक समझौता कर लिया जिसके तहत कंपनी ने 47 करोड़ डॉलर का मुआवजा देना स्वीकार किया. क्योंकि गैस त्रासदी से प्रभावित लोगों की संख्या लगभग छह लाख है, इसलिए अनुमान लगाया जा सकता है कि प्रति व्यक्ति कितना मुआवजा मिल सका है. इसके अलावा त्रासदी के शिकार लोग आज भी अस्पतालों के चक्कर लगा रहे हैं. यूनियन कार्बाइड कारखाने की सफाई न होने के कारण तीस साल बाद भी लगातार फैल रहे प्रदूषण के कारण अचानक होने वाले गर्भपात की तादाद में तीन गुनी बढ़ोतरी हो गई है. कैंसर की बीमारी के भी बढ़ने की खबर है.
क्या इस त्रासदी से किसी ने कोई सबक लिया? सरकार और उसकी एजेंसियों की संवेदनशून्यता और लापरवाही को देखते हुए तो ऐसा नहीं लगता कि किसी ने भी कोई सबक सीखा है. जब तक कारखाने और उसके आसपास के पूरे इलाके की वैज्ञानिक तरीके से सफाई नहीं की जाती और प्रदूषण को फैलने से रोका नहीं जाता, तब तक असहाय नागरिकों का जीवन उसी तरह बर्बाद होता रहेगा जैसा पिछले तीस सालों में होता आया है.

Friday, 6 November 2015

फसल उत्पादन

जलवायु संबंधी जानकारियां


इस भाग में जलवायु संबंधी विभिन्न जानकारियों को शामिल किया गया है।

सब्जियों की पौध तैयारी एवं उगाने की विधियां 


इस भाग में विभिन्न प्रकार से सब्जियों के पौध की तैयारी एवं उगाने की विधियों पर विशेष जानकारी उपलब्ध है |

कम वर्षा की परिस्थिति में फसल प्रबंधन 


इस भाग में कम वर्षा की परिस्थिति में फसलों के प्रबंधन की जानकारी प्रस्तुत की गई है।

कार्यप्रणालियों का संकुल 


इस भाग में विभिन्न प्रकार की फसलों के लिए विभिन्न क्षेत्रवार एवं जलवायु आदि के अनुरुप अपनाई जाने वाली कार्यप्रणालियों की जानकारी दी गई है।

फूलों की खेती 


इसमें फूलों की खेती के बारे में जानकारी दी गयी है|

किसानों के लिए सुझाव 


इस भाग में राज्यवार और फसल अनुसार किसानों के लिए उपयोगी सुझाव दिये गये हैं जिसमें और अधिक जानकारी जोड़कर उपयोगी बनाया जा सकता है।

झारखंड के लिए अनुशंसित कृषि तकनीक 


झारखंड के लिए अनुशंसित कृषि तकनीक

बैंगन के एकीकृत कीट प्रबंधन के लिए रणनीतियाँ 


यहाँ बैंगन के एकीकृत कीट प्रबंधन की रणनीतियो के विषय मैं वर्णन किया गया है.

व्यवसायिक फसलों की खेती 


इस भाग में व्यवसायिक फसलों की जानकारी को महत्वपूर्ण परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत किया गया है जिससे इसकी खेती से जुड़े किसान और अन्य सभी लाभान्वित हो सकें।

जीरो बजट प्राकृतिक खेती 


इस लेख में प्राकृतिक खेती के ऊपर आलेख प्रस्तुत है।

फलों की खेती 


इस भाग में विभिन्न फलों की जाने वाली खेती और उस खेती का लाभदायक बनाने वालों किसानों से परिचय कराने का प्रयास किया गया है।

उत्पादन प्रौद्योगिकी 


इस भाग में फसल उत्पादन से जुड़ी जानकारी रोचक तरीके से प्रस्तुत की गई है।

खाद्य सुरक्षा मानक और कोडेक्स 


भारत सरकार द्वारा लागू किये गये सभी सुरक्षा नियमों के पालन की जानकारी यहाँ दी गयी है।

संग्रहित अनाज के कीट प्रबंधन के लिए गैजेट्स 


संग्रहित अनाज को कीट से कैसे दूर रखा जाये, इसके ऊपर एक लेख यहाँ प्रस्तुत है।

आम, केले और पपीते का एक समान पकना 


किस प्रकार आम, केले और पपीता को एक सामान पकाया जा सकता है, बिना किसी केमिकल के इस्तेमाल के, उसकी जानकारी यहाँ दी गयी है|

बेर की गोली बनाना 


इस लेख में बेर के फल से गोली बनाने की प्रक्रिया को बताया गया है|

फसलोपरांत प्रौद्योगिकी 


इस भाग में फल्सोपरांत अनाजों, दालों, फलों, और सब्जियों से संबंधित नयी प्रोद्यिगिकी का वर्णन किया गया है. किसानों के लिए महत्वपूर्ण कोल्ड स्टोरेज की मौजूदा सुविधा और देश के खाद्य सुरक्षा से जुड़े मानकों आदि का भी विश्लेषण है

केले का उत्तक संवर्धन- उत्पादन तकनीक 


नए तकनीक से केले का उत्तम उत्पादन जिससे किसान लाभान्वित हों, उसका यहाँ उल्लेख किया गया है।

उत्तर-पूर्व भारत के लिए प्रौद्योगिकी


उत्तर- पूर्व भारत में प्रचलित फसल की प्रौद्योगिकी का इस भाग में उल्लेख किया गया है।

समन्वित कीट प्रबंधन के अवयव 


इस लेख में समन्वित कीट प्रबंधन के अवयवों की जानकरी पाठकों को दी गयी है|
 

फसल उत्पादन की उन्नत कृषि प्रणाली 


इस लेख में फसल उत्पादन की उन्नत कृषि प्रणली, जो आज देश में प्रचलित है, की जानकारी उठा सकते है।

छाया घर (शेड हाउस) 


इस लेख में छाया घर पर एक विस्तृत लेख है जिससे किसान लाभ उठा सकते है।

उत्पादन प्रौद्योगिकी 


यह भाग सफलतापूर्वक खेती के उत्पादन सहित बीज उपचार, पोषक तत्व प्रबंधन, सिंचाई प्रबंधन, नियंत्रित वातावरण में उत्पादन, टिशू कल्चर आदि की जानकारी देता है।

छिड़काव सिंचाई प्रणाली 


किसानों के मदद के लिए इस लेख में छिडकाव सिंचाई प्रणाली पर प्रकाश डाला गया है|

ड्रिप सिंचाई प्रणाली 


इस लेख में ड्रिप सिंचाई प्रणाली पर विस्तृत जानकारी उपलब्ध करायी गयी है।

धनिया स्प्लिटर 


इस लेख में धनिया स्प्लिटर पर एक आलेख प्रस्तुत किया गया है|

खेती के उपकरण 


मिट्टी जाँच: महत्व एवं तकनीक 


इस लेख में बीज बोने से पहली की प्रक्रिया यानि मिट्टी की जांच, उसके तकनीक ओर महत्वों के बारे में बताया गया है|

कृषि आगत 


इस भाग में विभिन्न आदानों जैसे बीज,रोपण सामग्री, उर्वरक, कीटनाशकों, जैव उर्वरक, जैविक खाद, प्राकृतिक कीटनाशकों की तैयारी आदि की उपलब्धता और प्रबंधन का ध्यान रखने से संबंधित जानकारी दी जाती है।
  

गेंहू की सुरक्षा

खरपतवार नियंत्रण

गेहूं की बीज फसल में रबी मौसम के लगभग सभी खरपतवारों जैसे गजरी, बथूआ, प्याजी, खरतुआ, हिरनखुरी, चटरीमटरी, जंगली गाजर, सेंजी, अंकराअंकरी, कृष्णनील, गेहूँसा और जंगली जई वैगरह की समस्या रहती है| आर्जीमोन (सत्यानाशी), हिरनखुरी, कृष्णनील, गजरी, प्याजी वैगरह की रोकथाम के लिए 2-4 डी सोडियम साल्ट ( 80 फीसदी डब्ल्यूपी) को 625 ग्राम मात्रा को प्रति हेक्टेयर की दर से बोआई के 35 से 40 दिनों के अंदर 1000 लीटर पानी में घोल बना कर इस्तेमाल करें|
संकरी पट्टी वाले खरपतवारों जैसे गेहूँसा व जंगली जई की रोकथाम के लिए आई सोप्रोटयूरान (75 फीसदी) की 1 किलोग्राम या पैंदीमैथिलीन (30 फीसदी) की 3.3 लीटर या फिनाक्सिप्राप (10 ईसी) की 1 लीटर मात्रा प्रति हेक्टेयर की दर से पहली सिंचाई के 1 हफ्ते बाद (बोआई के 30 से 35 दिनों के अंदर) 1000 लीटर पानी में घोल कर इस्तेमाल करना चाहिए|
जहाँ चौड़ी पत्ती वाले व संकरी पत्ती वाले यानीं दोनों तरह के खरपतवार हों, वहाँ 2-4 डी और आइसोप्रोटयूरान मिलकर प्रयोग करें| पैंडीमैथिलिन का प्रयोग बोआई के बाद लेकिन जमाव से पहले करें|

बीज शोधन

गेहूं की फसल में दुर्गन्धयुक्त कंदूवा, करनाल बंट, अनावृत कंडूआ और गेहूं रोगों का प्रारंभिक संक्रमण बीज या भूमि या दोनों के माध्यम से होआ है| रोग कारक फफूंदी, जीवाणू व सूत्रकृमि बीज की सतह पर, सतह के नीचे या बीज के अंदर प्रसूप्तावस्था में मौजूद रहते हैं| इसलिए बीज उत्पादन के लिए शोधन किए उपचारित बीज ही इस्तेमाल करने चाहिए| यदि उपचारित बीज की उपलब्धता न हो, तो निम्न प्रकार से बीजोपचार कर के ही बोआई करें-
करनाल बंट दूषित बीज और जमीन से फैलता है| इस की रोकथाम के लिए ढाई ग्राम थीरम प्रति किलोग्राम बीज की दर से इस्तेमाल करें|
अनावृत कंडूआ रोग में बालियों में दानों के स्थान पर काला चूर्ण बन जाता है और बाद में रोग जनक के तमाम बीजाणु (काला चूर्ण) हवा में फैलते हैं और स्वस्थ बालियों में फूल आते समय उन का संक्रमण करतें हैं| इस की रोकथाम के लिए कर्बडाजिम (50 फीसदी) या कार्बाक्सिन (75 फीसदी) की ढाई ग्राम मात्रा प्रति किलोग्राम बीज दर की दर से ले कर बीज को शोधित कर के बोआई करनी चाहिए|
बीमार पौधों को देखते ही सावधानी से उखाड़ने के बाद जला कर खत्म कर देना चाहिए| मई जून के महीनों में कड़ी धुप वाले दिन में बीजों को 4 घंटे ठंडे पानी में भिगो कर पक्के फर्श पर अच्छी तरह सुखा कर अगले साल बोने के लिए भंडारित कर लेना चाहिए|
गेहूं का ईयर कौकिल रोग (सेंहू रोग) ‘एग्विना ट्रिटीसाई’ नामक सूत्रकृमि द्वारा होता है| इस रोग से पौधों की पत्तियों मूड़ कर सिकुड़ जाती हैं| इस रोग से पौधों की पत्तियाँ मुड़ कर सिकुड़ जाती हैं| इस के असर वाले पौधे छोटे रह जाते हैं और उन में स्वस्थ पौधों के मुकाबले ज्यादा टहनियां निकलती हैं| रोगग्रस्त बालियाँ ज्यादा टहनियां निकलती हैं| रोगग्रस्त गलियां छोटी और फैली हुई होती हैं और इन में दानों की जगह भूरे या काले रंग की गांठे बन जाती हैं, जिन में सूत्रकृमि रहते हैं| इस रोग की रोकथाम के लिए ईयर कौकिल गांठमुक्त बीज का इस्तेमाल करें| ईयर कौकिल गांठ मिश्रित बीज को कुछ समय के लिए 2 फीसदी नमक के घोल में डूबोएँ (200 ग्राम नमक को 10 लीटर पानी में मिलाकर) ताकि सूत्रकृमि ग्रसित काली गांठे हल्की होने को निकाल कर खत्म कर दें| बीज को साफ पानी से 2-3 बार धो कर सुखा लेने के बाद ही बोआई में प्रयोग करें|

भूमि शोधन

असिंचित क्षेत्रों में भूमिगत कीटों जैसे दीमक का प्रकोप ज्यादा होता है, इसलिए इन्हें खत्म करने के लिए खेत की आखिरी जुताई व खड़ी फसल पर प्रकोप होने पर सिंचाई के साथ खेत में क्लोरोपाइरिफास (20 ईसी) की 3 लीटर मात्रा प्रति हेक्टेयर की दर से इस्तेमाल करें| बोआई से पहले दीमक की रोकथाम के लिए क्लोरोपाइरीफास ( 20 ईसी) की 4 मिलीलीटर मात्रा प्रति किलोग्राम बीज की दर से ले कर बीज उपचारित कर के बोआई करें|

सरसों की खेती: कम लागत, उपज भरपूर, लाभ मिलने का अवसर भी


लखनऊ। कुछ दिनों पहले किसानों को सूखे की मार झेलनी पड़ी थी। अब वे धान की फसल के खराब होने से दिक्कत में हैं। वजह, बरसात नहीं हुई। सरकारीतंत्र भी इतना लापरवाह है कि नहरें सूखी गई। किसानों के खेतों की फसलों को नहरों से सिंचाई के लिए मिलने वाले पानी के रूप में संजीवनी नहीं मिल सकी। अब या तो फसल सूख चुकी है या फिर उनमें बालियां ही नहीं है।
किसान धान की फसल न होने के मलाल को थोड़ा कम कर सकते हैं। हुई हानि की भरपाई की भी कुछ हद तक हो जाएगी, वह भी थोड़ी सी सिंचाई में। किसानों को समय से सरसों की खेती करनी होगी। आइए जानें इसके लिए जरूरी कदम क्या हो सकते हैं?
यह भी जानें
कृषि वैज्ञानिक डाॅ. संजय कुमार द्विवेदी की मानें तो सरसों रबी के तिलहन की फसल है। सीमित सिंचाई में भी इसकी भरपूर पैदावार होती है। फूल आने से पहले और दाना भरने के दौरान हल्की सिंचाई करें। समय से बुआई, संतुलित उर्वरक के प्रयोग और रोग नियंत्रण कर, इस फसल से एक हेक्टेअर में 25 से 30 कुंतल उत्पादन ले सकते हैं।
मध्य अक्टूबर की खेती अधिक लाभकारी
अगैती बुआई (मध्य अक्टूबर) लाभकारी है। ऐसा करने से फसल को क्षति पहुंचाने वाले माहू कीट के प्रकोप की संभावना कम होती है। प्रति हेक्टेअर 5-6 किग्रा बीज पर्याप्त है। बुआई के पूर्व बीजशोधन करें। एक किग्रा बीज को 2.5 ग्राम थीरम और 1.5 ग्राम मैटालिक्स से शोधित करें। सफेद गेरुई तथा तुलसिता रोग नहीं होगा।
ऐसे करें खेत की तैयारी
2-3 सामान्य जुताई करें। रोटावेटर की एक जुताई में भी खेत तैयार हो जाएगा। नमी जांचे और अगर नमी कम है तो पलेवा लगाने के बाद बुवाई करें। बेहतर जमाव होगा। मिट्टी जांच के बाद उर्वरकों का प्रयोग करें। इससे अनावश्यक दी जाने वो उर्वरकों से बचा जा सकेगा। लागत भी कम होगी।
क्या हो उर्वरक की मात्रा
सामान्य तौर पर एक हेक्टेअर के लिए 120 किग्रा नाइट्रोजन और 40-40 किग्रा पोटाश व फास्फेट पर्याप्त है। फास्फोरस का प्रयोग सिंगल सुपर फास्फेट (एसएसपी) के रूप में बेहतर होगा। बेहतर उपज के लिए एक हेक्टेअर में 40 किग्रा गंधक अलग से डालें। लेकिन यह तक करें जब एसएसपी का प्रयोग न किया गया हो। नाइट्रोजन की आधी और अन्य उर्वरकों की पूरी मात्रा खेत की अंतिम तैयारी के समय डालें। शेष नाइट्रोजन माह भर बाद होने वाली पहली सिंचाई में दें।
उन्नत प्रजातियां
नरेंद्र राई, कांती, उर्वशी, माया, वैभव, आशीर्वाद, वरुणा या टी 59, बसंती, रोहिणी, वरदान, कृष्णा व पूसा बोल्ड प्रमुख प्रजातियां हैं। कुछ निजी कंपनियों के बीज भी बेहतर उपज देने वाली बताई जा रहीं हैं।
बेहतर बाजार भाव मिलने की उम्मीद
पिछले सीजन में बेमौसम बारिश और ओले से फसल खराब हुई है। इस वजह से तक सात महीने के भीतर सरसों तेल के दाम में तकरीबन 45 फीसदी की उछाल आई है। ऐसे में उन किसानों को लाभ मिलने की ज्यादा संभावनाएं हैं जिनकी फसल पहले तैयार हागी।

समस्या – समाधान


समस्या- क्या खड़ी फसल में डीएपी का उपयोग कर सकते हैं।
– माणकचंद मोदी, सारंगपुर
समाधान-

1. डीएपी का पूरा नाम डाई अमोनियम फास्फेट है इससे पौधों को दो महत्वपूर्ण तत्व अमोनियम से नत्रजन तथा फास्फेट से फास्फोरस मिलता है।
2. किसी भी खाद में जिसमें फास्फोरस रहता है को खड़ी फसल में नहीं देना चाहिए।
3. फास्फोरस मिट्टी के संपर्क में आने पर मिट्टी के कणों में स्थिर हो जाता है। इसकी पानी में घुलनशीलता कम होने के कारण यह देर से तथा धीरे-धीरे घुलता है। इस कारण यह पौधों को देर से उपलब्ध हो पाता है। इस कारण खड़ी फसल में फास्फोरस वाली खाद नहीं दी जानी चाहिए।
4. फास्फोरस वाली खाद का उपयोग आधार खाद के रूप में बीज बोने के पूर्ण या समय पर करना चाहिए। यदि यह खाद बीज के नीचे दी जाये तो वह पौधों को सरलता से उपलब्ध हो जाती है।
5
समस्या- कपास में मिलीबग का नियंत्रण कैसे करें।
– भागवत सिंह हाड़ा, होशंगाबाद
समाधान-

कपास में मिलीबग का प्रकोप प्रतिवर्ष बढ़ता चला जा रहा है। मिलीबग के शरीर का ऊपरी भाग मोम के पदार्थ से ढका रहता है। जिस कारण सामान्य तरीके से छिड़काव करने से इसका उचित नियंत्रण नहीं मिल पाता है। कई कीटों के नियंत्रण के लिये कीटनाशक के चुनाव से छिड़कने का समय व छिड़कने का तरीका अधिक महत्वपूर्ण रहता है। इन कीटों में मिलीबग भी सम्मिलित है।
द्य नियंत्रण के लिये स्पर्श कीटनाशक जैसे ट्राइजोफॉस का उपयोग करें।
द्य आपने देखा होगा कि जैसे ही हम छिड़काव आरंभ करते है। इसके शिशु नीचे गिर जाते हंै। और कुछ समय बाद फिर से रेंग कर पौधों में चढ़ जाते हैं।
द्य इसके उचित नियंत्रण के लिये पहले ऐेसे पौधों में छिड़काव करें जिनमें मिलीबग का प्रकोप कम हो। फिर भूमि पर छिड़काव करें अंत में जहां मिलीबग समूह में हो वहां छिड़काव करें। इससे शिशु जो जमीन में गिरकर फिर पौधों में रेंग कर चढ़ जाते हंै उनका भी नियंत्रण हो जायेगा।
6
समस्या- धान लगाई है वर्षा जल के अतिरेक से क्या हानि हो सकती है कृपया बतायें उचित जल प्रबंधन से और क्या हो सकता है।
– घनश्याम दास, बालाघाट
समाधान -

वैसे तो इस वर्ष की वर्षा से फसलों को हानि पहुंची है परंतु अन्य फसलों की तुलना में धान को कम हानि होने की संभावनाओं से इंकार नहीं किया जा सकता है क्योंकि धान की फसल को सतत जल की आवश्यकता रहती है हर फसलों में उचित जल प्रबंधन से पौधों की बढ़वार अच्छी होती है। धान की फसल में जल प्रबंध करके रसचूसक कीट जैसे भूरा माहो, हरा माहो, सफेद माहो एवं गंगई का नियंत्रण सरलता से किया जा सकता है। जल की उपलब्धता होने पर 5-7 दिन के अंतर से 1 या 2 बार पानी खोलने से उक्त कीटों के अंडे खेत के बाहर हो जाते हंै और प्रारंभिक आक्रमण पर अंकुश लगाया जा सकता है। अन्य फसलों में नालियां बना कर अतिरिक्त जल का निथार बहुत जरूरी होगा।
7
समस्या – मिर्च में माहो का प्रकोप हो गया है नियंत्रण के उपाय बतायें।
– रणवीर सिंह, भिंड
समाधान-

माहो अनेकों फसलों पर कोमल पत्तों का रसचूसकर बहुत हानि पहुंचाता है। रस चूसने के दौरान एक प्रकार का मीठा रस पत्तियों पर गिरता है। जिस पर हवा में उपलब्ध सूटीमोल्ड पनपने लगती है और दोहरा नुकसान करती है। आप निम्न उपाय करें-
1. कीट प्रकोप की प्रारंभिक अवस्था में नीमतेल 3 ग्राम प्रति लीटर पानी में घोल बनाकर छिड़काव करें।
2. अधिक प्रकोप दिखने पर डायमिथियेट 30 ई.सी. की 2 मि.ली. मात्रा प्रति लीटर पानी में घोल बनाकर 10 दिनों के अंतर से दो छिड़काव करें। अथवा एफीसेट 1 ग्राम प्रति लीटर पानी में घोल बनाकर 10 दिनों के अंतर से दो छिड़काव करें। अथवा एसीडाक्लोप्रिड 18.5 एस.एल. 5 मि.ली. प्रति लीटर पानी में घोल बनाकर एक छिड़काव करें।
8
समस्या- कृषि कार्य हेतु यांत्रिकी संबंधित जानकारी जिसमें अनुदान के बारे में विशेष रूप से उल्लेख हो ऐसी किताब कहां मिलेगी।
– एस.आर. नागौर, इंदौर
समाधान-

आप कृषि यंत्र तथा उनके क्रम के बारे में संपूर्ण जानकारी की किताब चाहते हैं। यदि आप हमारे कृषक जगत के सदस्य हो तो आपके पास कृषक जगत द्वारा प्रकाशित डायरी होगी उसमें अन्य विभागों के अलावा कृषि यंत्रों और अनुदान की भी जानकारी दी गई है। आप कृषक जगत भोपाल के पते पर रु. 25/- का मनीआर्डर कर किसानों को दी जाने वाली सुविधाएं मंगा सकते हैं।

Monday, 2 November 2015

Renaud Margry-Amazing Invention Flow Honey on Tap Directly

देशी चिकित्सा प्रणाली

महिला स्वास्थ्य

महिला स्वास्थ्य उसकी पूरी जिंदगी के दौरान-यौवन से लेकर रजोनिवृत्ति तक बहुत महत्वपूर्ण है। इस पोर्टल के माध्यम से किशोर बालिका स्वास्थ्य देखभाल, सुरक्षित मातृत्व और अच्छे प्रजनन स्वास्थ्य की देखभाल आदि से संबंधित महत्वपूर्ण जानकारी प्रदान दी गई है।

बाल स्वास्थ्य

बच्चों का विकास एक जटिल एवं सतत प्रक्रिया है। इसी क्रम में यह भाग बाल स्वास्थ्य से जुड़ीं विभिन्न महत्वपूर्ण जानकारियों को जानने का अवसर देता है।

आयुष

चिकित्सा और होम्योपैथी (भारतीय चिकित्सा पद्धति एवं होम्योपैथी) विभाग मार्च, 1995 में बनाया। वैकल्पिक चिकित्सा पद्धति के रुप में अपनी पहचान हासिल कर यह विभाग अपनी उपयोगिता से लोकप्रिय होते हुए महत्वपूर्ण स्थान बना रहा है।

पोषाहार

जनसंख्या विस्फोट और भोजन की मांग हमेशा साथ-साथ चलते हैं। यह भाग पोषाहार के विभिन्न पहलुओं पर रोशनी डालते हुए उनकी स्वस्थ्य जीवन में उपयोगिता बताता है।

बीमारियां-लक्षण एवं उपाय

पारंपरिक बीमारियों के अलावा लोगों की कार्यशैली और उनके आस-पास के पर्यावरणों में आ रहे परिवर्तनों से अनेक नवीन बीमारियों के लक्षण चिकित्सकों के लिए चिंता के विषय हैं। यह भाग पारंपरिक बीमारियों के साथ अनेक नवीन बीमारियों के कारकों को स्पष्ट कर जागरुकता लाने का प्रयास करता है।

स्वच्छता और स्वास्थ्य विज्ञान

स्वच्छता की एक समग्र परिभाषा में स्वच्छ पेयजल, तरल और ठोस अपशिष्ट प्रबंधन, पर्यावरण  और व्यक्तिगत स्वच्छता आदि को शामिल किया जाता है जिसका समुदाय/परिवारके स्वास्थ्य अथवा व्यक्ति पर सीधा प्रभाव पड़ सकता है। इस भाग में इसकी जानकारी दी गयी है।

मानसिक स्वास्थ्य

विश्व स्वास्थ्य संगठन ने मानसिक स्वास्थ्य को परिभाषित करते हुए कहा है कि एक व्यक्ति जो अपने या अपनी खुद की क्षमताओं को पहचानता है वह सामान्य जिंदगी के तनाव का अच्छी तरह से सामना कर सकता है। यह भाग मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ीं विभिन्न महत्वपूर्ण जानकारियों को जानने का अवसर देता है।

स्वास्थ्य योजनाएं

12 अप्रैल, 2005 में शुरू किये गए राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन में महिलाओं सहित बच्चों के स्वास्थ्य में सुधार, वंचित समूहों की स्वास्थ्य जरूरतों को पूरा करना और सार्वजनिक स्वास्थ्य को मजबूत और सक्षम बनाने के साथ कुशल स्वास्थ्य सेवा वितरण बढ़ाना आदि लक्ष्य निर्धारित हैं। यह भाग इससे जुड़ीं महत्वपूर्ण जानकारियों को जानने का अवसर देता है।

देशी चिकित्सा प्रणाली

लोगों को देशी चिकित्सा प्रणाली के उपयोग पर महत्वपूर्ण जानकारी के प्रसार की जरूरत है। आयुर्वेद, योग, प्राकृतिक चिकित्सा, यूनानी, सिद्ध और होम्योपैथी (आयुष) से संबंधित उपयोगी जानकारी, संसाधन सामग्री और उसके उपयोग को बढ़ावा देने के लिए भारतीय विकास प्रवेशद्वार अपनी सूचनाओं और बहुउपयोगी उत्पादों के माध्यम से अपना महत्वपूर्ण योगदान देने में प्रयासरत है।

प्राथमिक चिकित्सा

प्राथमिक चिकित्सा तात्कालिक और अस्थायी देखभाल अथवा दुर्घटना या अचानक बीमारी का शिकार होने की स्थिति में एक प्रशिक्षित चिकित्सक की सेवाएं प्राप्त करने से पहले दी जाती है। इसी क्रम में यह भाग प्राथमिक चिकित्सा से जुड़ीं जानकारियों को प्रस्तुत कर जागरुकता लाने का प्रयास करता है।

जहाँ महिलाओं के लिए डॉक्टर न हो

यह भाग उन स्थितियों से जुड़ीं सभी जानकारियों को देता है जिनमें महिलाओं के लिए किसी डॉक्टर की सुविधा उपलब्ध नहीं हो पाती है। महिलाओं के जीवन में आने वाली इन स्वास्थ्य समस्याओं का उल्लेख एवं उनके उपाय प्रशिक्षित लोगों द्वारा दिए गए हैं।

जीवनशैली के विकार : भारतीय परिदृश्य

आधुनिक विज्ञान ने उन्नत स्वच्छता, टीकाकरण और एंटीबायोटिक्स तथा चिकित्सकीय सुविधाओं के माध्यम से अनेक संक्रामक बीमारियों से सामान्यत: होने वाले मृत्यु के खतरे को कम कर दिया है। इसी क्रम में यह भाग इस से जुड़ीं विभिन्न महत्वपूर्ण जानकारियों को जानने का अवसर देता है।

कृषि की नवीनतम अवधारणाएँ

पोली हाउस की अवधारणा

पोली हाउस खेती में ऑफ सीजन के फूल, सब्जियां उगाई जाती हैं। यह प्रतिकूल मौसम परिस्थितियों में भी सब्जी नर्सरी के उत्पादन में उपयोगी है। फसलों का चुनाव पाली हाउस संरचना, बाजार की मांग के साथ ही उम्मीद की बाजार कीमत के आकार पर निर्भर करता है।
यह वर्ष के किसी भी भाग के दौरान पर्यावरण की दृष्टि से नियंत्रित पोली हाउस में किसी भी सब्जी की फसल को उठाने के लिए सुविधाजनक है, वहीं फसलों का चयन साधारण कम लागत वाली पॉली हाउस के मामले में अधिक महत्वपूर्ण है। ककड़ी, लौकी, शिमला मिर्च और टमाटर कम लागत वाली पॉली हाउस में सर्दियों के दौरान काफी लाभकारी पैदावार दे सकती है। उचित वेंटीलेशन गोभी के साथ, उष्णकटिबंधीय फूलगोभी और धनिया की जल्दी किस्मों सफलतापूर्वक भी गर्मी / बरसात के मौसम के दौरान पैदा किया जा सकता है।
जरबेरा, कारनेशन, गुलाब, अन्थूरियम आदि फूलों को फसलों की तरह भी पाली हाउस में ले जाया जाता है।

संरक्षित खेती शुरू करने के प्रमुख बिन्दु

  • शुरू में आप संरक्षित खेती की एक छोटी अवधि के कोर्स को पूरा करना होगा। इसके अलावा संरक्षित खेती के किसी भी सफल किसान के पास जाकर खेती को समझना होगा।
  • पौधों को प्रदूषण से बचाने के लिए साइट औद्योगिक क्षेत्र से दूर होना चाहिए।
  • किसी भी इमारत या पेड़ों की वजह से छाया भी हानिकारक है। ग्राउंड ढाल ऐसा होना चाहिए कि सतह का पानी ग्रीनहाउस से दूर रहें। यदि ग्रीनहाउस उच्च जमीनी स्तर पर है, रुके पानी के माध्यम से मिट्टी तर सकता है इसके लिए चारों ओर इसलिए उचित जल निकासी प्रावधान आवश्यक है।
  • सभी मौसम में सड़क के संबंध में स्थान ग्रीन हाउस के निर्माण की सुविधा और उत्पादन के त्वरित निपटान की अनुमति देता है। शहरों के लिए निकटता, बाजार ब्याज निगरानी आवश्यक है हालांकि, एक पाली हाउस के लिए मुख्य रूप से अंकुर उत्पादन से मतलब है जो दूर शहरों से स्थित हो सकता है।
  • एक भरोसेमंद पानी की आपूर्ति सभी श्रेणियों के पॉली हाउस लिए बनाए रखा जाना है  पर्यावरण नियंत्रण उपकरणों या बिना उसके साथ ही।
  • इसके अलावा, बिजली की आपूर्ति भी आवश्यक है।
  • पाली हाउस के एक पूर्व पश्चिम अभिविन्यास, सर्दियों में अच्छा प्रकाश और उत्तरी हवाओं से सुरक्षा सुनिश्चित करता है।
  • पर्याप्त श्रम सुविधा की उपलब्धता आवश्यक है।
  • अगर आप इस क्षेत्र में नए हैं, तो फसलों की पाली हाउस खेती के क्षेत्र में प्रवेश करने से पहले प्रशिक्षण प्राप्त करें। आप के पास पाली घरों से जानकारी के लिए जाएँ। अपने क्षेत्र में प्रशिक्षण संबंधी जानकारी के लिए आप तहसील की कृषि अधिकारी या नजदीकी कृषि विज्ञान केन्द्र या कृषि विश्वविद्यालय के लिए संपर्क कर सकते हैं।

    पोली हाउस:गाज़ियाबाद (उत्तर प्रदेश ) का उदाहरण

    पोली हाउस की मदद से फसलों को अनुकूलित वातावरण देने में मिली सफलता से अब यहां के किसानों को नई दिशा मिली है। सरकार के प्रोत्साहन से सिंभावली, हापुड़ ब्लॉक और आसपास के 25 से 30 किसानों का रुझान पोली हाउस की तरफ बढ़ा है। जिले में 10 साल पहले शुरू हुई इस व्यवस्था का ही नतीजा है कि अब यहां के किसान बड़े स्तर पर सब्जी और फूलों की खेती करने लगे हैं। बताया जाता है कि पोली हाउस के माध्यम से यहां के किसान सालाना 150 करोड़ रुपये का बिजनेस करने लगे हैं।
    राष्ट्रीय बागवानी मिशन के माध्यम से पोली हाउसों को बढ़ावा देने के लिए यूपी सरकार ने एक योजना चलाई है। पोली हाउसों के माध्यम से खेती करने वाले किसानों की आर्थिक दशा तेजी से बदल रही है। यहां के दो दर्जन से अधिक किसान सब्जी और फूल का उत्पादन कर रहे हैं।
    किसानों ने इस साल दिखाई दिलचस्पी
    जिला उद्यान अधिकारी एन. के. सहानिया ने बताया कि सरकार पोली हाउस बनाने वाले किसानों को उस पर आने वाली कीमत का लगभग 47 प्रतिशत राशि अनुदान के रूप में देती है। 53 प्रतिशत राशि किसान को अपने पास से लगाना पड़ता है। इस साल 10 किसानों को पोली हाउस बनाने के लिए आर्थिक मदद देने का टारगेट रखा था लेकिन इससे ज्यादा किसानों ने इस योजना में अपनी दिलचस्पी दिखाई। किसानों की ओर से विभाग के पास 16 प्रस्ताव आए हैं। इनमें से 10 लोगों को अनुदान राशि दी जा चुकी है। छह किसानों का प्रस्ताव शासन को भेजा गया है। शासन से मंजूरी मिलते ही उन लोगों को भी अनुदान राशि दी जाएगी।
    छोटे किसान भी पोली हाउस बना सकते हैं।
    अधिकतर पोली हाउस सिंभावली और हापुड़ ब्लॉक में हैं। अधिकतर किासनों ने 1000 वर्ग मीटर में पोली हाउस लगाने की पहल की है। इतने एरिया में पोली हाउस बनाने में लगभग 10 लाख रुपये का खर्च आता है। किसानों को प्रति पोली फार्म 4.67 लाख रुपये का अनुदान दिया जा चुका है। उनका कहना है कि किसान छोटे साइज का भी पोली फार्म बना सकते हैं। उनको उस पर जो लागत आएगी उसका लगभग 47 प्रतिशत अनुदान दिया जाएगा। किसान 500 वर्ग मीटर तक का भी पोली हाउस बना सकता है। पोली फार्मों को अनुदान की यह योजना यूपी में 2005 से है। लेकिन पहले गिने चुने लोग इसके लिए आगे आते थे। अब किसानों का रुझान इधर बढ़ा है। पिछले साल छह किसानों ने पोली फार्म बनाया।
    स्टील का स्ट्रक्चर देता है मजबूती
    पोली फार्म का स्ट्रक्चर स्टील का होता है और प्लास्टिक की सीट से ऊपर का हिस्सा ढका होता है। एक बार स्ट्रक्चर बन जाने पर पोली फार्म कम से कम 10 साल तक काम करता है। तेज हवा चलने पर प्लास्टिक सीट दो तीन साल पर बदलनी पड़ सकती है। हालांकि इस पर बहुत कम आता है। एन. के. सहानिया का कहना है कि जिन किसानों ने पोली फार्म बनाया है वे उस पर आने वाली लागत को पहले साल में ही निकाल लिए हैं। पोली फार्मों से तेज धूप और तेज बरसात से फूल व सब्जी के पौधों का बचाव होता है। इसके साथ ही इन फसलों के लिए अनुकूल वातावरण तैयार होता है। कुल 51 एजेंसियां पोली फार्म तैयार करती हैं जो सरकारी की सूचि में शामिल हैं।
    बेमौसम सब्जी और रंग-बिरंगे फूल
    पोली फार्म वाले किसान साल में लगभग तीन करोड़ का फूल बेच रहे हैं। वे जो फूल उगा रहे हैं उनमें गेंदा,जरबेर,गुलदाउदी, रजनीगंधा आदि हैं। किसान बेमौसम सब्जी भी उगा रहे हैं। यही वजह है कि किसान मार्केट में सब्जी की अच्छी कीमत पा रहे हैं। यहां के किसान पोली फार्म में शिमला मिर्च लाल और पीली दोनों किस्म की पैदा कर रहे हैं। रंगीन शिमला मिर्च हरी शिमला मिर्च के मुकाबले अधिक कीमत पर बिक रही है।

    पोली हाउस:हरियाणा सरकार की पहल

    17 करोड़ की लागत से लगभग 100 एकड़ जमीन में लगने वाले पोली हाउस लगाने के लिए किसानों को अनुदान दिया गया।
    हरियाणा सरकार की ओर से किसानों की आर्थिक स्थिति में सुधार लाने के लिए उन्हें पोली हाउस में संरक्षित खेती करने के लिए प्रेरित किया जा रहा है। पोली हाउस के माध्यम से की गई खेती अन्य खेती से कईं गुणा पैदावार लेकर किसान समृद्ध हो रहे हैं। करनाल जिले में करीब 17 करोड़ की लागत से लगभग 100 एकड़ जमीन में लगने वाले पोली हाउस लगाने के लिए किसानों को अनुदान दिया गया है।
    हरियाणा सरकार प्रदेश के किसानों को आधुनिक खेती की ओर प्रेरित कर रही है, ताकि घटती जोत में अधिक आय हो सके, इसके लिए पोली हाउस के माध्यम से की जाने वाली सरंक्षित खेती ही एक सशक्त माध्यम है। किसानों को पोली हाउस लगाने के लिए हरियाणा सरकार द्वारा 65 प्रतिशत अनुदान भी दिया जा रहा है। इससे प्रेरित होकर किसानों का पोली हाउस में खेती करने का रूझान बढ़ा भी है। करनाल जिले में सैंकडों एकड भूमि में पोली हाउस लगाए गए हैं।
    सरकार का उददेश्य है कि अधिक से अधिक किसान सरकार की इस अनुदान राशि का लाभ प्राप्त करके पोली हाउस के माध्यम से खेती करें। इसके लिए नाबार्ड द्वारा पिछले दिनों घरौंडा में राष्ट्रीयकृत बैंकों के प्रतिनिधियों की बैठक भी बुलाई गई थी, जिसमें निर्णय लिया गया कि कईं किसान पोली हाउस के माध्यम से खेती तो करना चाहते हैं, परन्तु हरियाणा सरकार के 65 प्रतिशत अनुदान के बाद भी वे शेष 35 प्रतिशत धन अर्जित करने में असमर्थ हैं। इसके लिए सहकारी बैंकों व पैक्स बैंकों के साथ-साथ कुछ राष्ट्रीय बैंकों से सम्पर्क किया जा रहा है कि वे किसानों को पोली हाउस लगाने के लिए ऋण दें। इससे न सिर्फ किसानों को फायदा होगा बल्कि बैंकों का व्यापार भी बढ़ेगा।
    जब से करनाल जिला के घरौंडा में इंडो-इजराईल के सहयोग से सब्जी उत्कृष्टता केन्द्र की स्थापना हुई है तब से किसानों का रूझान संरक्षित खेती की ओर बढ़ा है। इससे वे कम जमीन में पोली हाउस लगाकर अधिक लाभ कमा सकते हैं। पोली हाउस के माध्यम से की गई खेती कीटनाशक होती है, वहीं इसमें दवाईयों का छिड़काव नहीं होता, जिसके कारण मार्किट में इसकी लागत अधिक होती है और इसका रेट भी अधिक मिलता है। किसानों की सुविधा के लिए घरौंडा के सब्जी उत्कृष्टता केन्द्र में  करीब 30 लाख सब्जी की पौध तैयार की गई, जो कि अनुदान पर किसानों को दी जाती है। किसानों को इस केन्द्र के माध्यम से पोली हाउस में खेती करने के बारे में प्रशिक्षित किया जाता है और समय-समय पर लोगों को प्रशिक्षण के लिए यहां आमंत्रित किया जाता है। इसके माध्यम से प्रदेश के ही नहीं बल्कि देश-प्रदेश के अन्य राज्यों के लोग यहां से प्रशिक्षण लेकर पोली हाउस के माध्यम से संरक्षित खेती कर रहे हैं।
    किसान पोली हाउस के माध्यम से खेती करना चाहता है, उसे हरियाणा सरकार की योजना के अनुसार जिला बागवानी विभाग के कार्यालय से अनुदान दिया जाता है। पिछले 3 सालों में अब तक करनाल जिले में करीब 100 एकड़ जमीन पर संरक्षित खेती करने के लिए पोली हाउस, नेट हाउस आदि के लिए सरकार की तरफ से 65 प्रतिशत प्रति एकड़ अनुदान दिया गया । अब तक जिले के सैंकड़ों किसान इसका लाभ उठा चुके हैं और इस योजना के तहत करीब 17 करोड़ रुपए अनुदान के रूप में दिए जा चुके हैं।

    पालीहाउस में वर्ष भर सब्जी उत्पादन पर सफल कहानी

    नई तकनीक की आवश्यकता

    Poly Houseपर्वतीय अंचलों में अधिक ऊंचाई पर (1500 मीटर से ऊपर) बसने वाले किसानों की सब्जी खेती वर्षभर नहीं हो पाती है। क्योंकि पर्वतीय अंचल के इस ऊंचाई पर नवम्बर माह से फरवरी माह तक बर्फवारी, पाला, कुहरा, ओस, ओला, शीतलहर आदि का प्रकोप बहुत अधिक होता है। यहां रात का तापक्रम शून्य से नीचे एवं 24 घण्टे में औसत तापक्रम 2-4 डिग्री तक ही रहता है। इन्हीं कारणों से यहां के किसान सफलतापूर्वक सब्जियों  की खेती करने में असफल रहते हैं और जाड़े में सम्पूर्ण खेत को खाली छोड़ देते हैं। जब मार्च से मौसम थोड़ा गर्म होना शुरु होता है तो समस्त किसान सब्जियों  की खेती को करना प्रारम्भ कर देते हैं और मई तक इस कार्य को पूरा करके अच्छे उत्पादन की कामना करते हैं। जब सब्जियां वृद्धि एवं विकास करके अपनी अर्ध उम्र में पहुंचती हैं और फल देना प्रारम्भ करती हैं तब तक जून माह का अन्त आ जाता है और जून माह से सितम्बर माह के मध्य बार-बार भारी वर्षा होने के कारण खेती में भूमि कटाव, जल भराव के साथ-साथ लगातार बादल घिरे होने के कारण सूर्य का प्रकाश न मिलने से सब्जियों में प्रकाश संश्लेषण क्रिया बन्द हो जाती है। जिसके कारण से सब्जियों में उकठा, झुलसा, जड़ सड़न, तना सड़न, फल सड़न के साथ-साथ कीटों व खरपतवार का प्रकोप इतना बढ़ जाता  है  कि  लगभग  70-80  प्रतिशत सब्जियों  की  खेती  नष्ट  हो  जाती है। ऐसी  परिस्थिति  में किसान अपने खाने भर को सब्जियां नहीं प्राप्त कर पाता है तो वह ऐसी जटिल  परिस्थिति में व्यवसाय क्या करेगा। इस प्रकार पर्वतीय अंचल के जलवायु में उतार चढ़ाव व अनियमितता के कारण अधिकांश मूल्यवान सब्जियों की खेती वर्ष भर करना असम्भव है। अब प्रश्न  यह उठता है कि पर्वतीय अंचलों के अधिकांश क्षेत्रों में  किसानों की जोत बहुत छोटी व बिखरी हुई है, सब्जी उत्पादन हित में अनुकूल वातावरण प्राप्त नहीं होता है, जंगली जानवरों का प्रकोप बढ़ता जा रहा है, लगभग 90 प्रतिशत खेती वर्षा आधारित है। इसके अलावा मैदानी क्षेत्रों से दूर होने के कारण सब्जियों का आवागमन न हो पाने से  यहां के  बाजारों  में  भी सब्जियॉ  आवश्यकतानुसार नहीं मिल पाती हैं। जो गांव थोड़ा बाजार एवं शहरों से नजदीक हैं वह तो बाहर से आयी हुई सब्जियां खरीद लेते हैं और अपनी पोषण सुरक्षा की भरपाई कर लेते हैं। परन्तु पर्वतीय अंचलों के दूर दराज के गावों में बसे लोग इतने लाचार व गरीब हैं कि वह प्रत्येक दिन बाजार या शहर नहीं आ सकते तो ऐसी परिस्थितियों में वह प्रतिदिन सब्जियों कासेवन भी नहीं कर पाते हैं। जिसके कारण उनके परिवार की पोषण सुरक्षा ठीक ढंग से नहीं हो पाती है। यही कारण है कि पर्वतीय अंचलों में रहने वाले लोगों में कुपोषण का प्रतिशत मैदानी क्षेत्रों की अपेक्षा अधिक पाया  जाता है। चूंकि डॉक्टरों के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति को 300 ग्राम सब्जी प्रतिदिन खानी  चाहिए  क्योंकि सब्जियों में  पोषण  सुरक्षा की दृष्टि से सभी  पोषक तत्वों का समावेश होताहै। जिसको प्रतिदिन खाने से मनुष्य कुपोषण का शिकार नहीं हो सकता है। उपरोक्त कारणों  से  पर्वतीय  अंचल  का  हर  नौजवान  व  किसान  अपने रोजगार व पोषण सुरक्षा  की  तलाश  में पलायन  करता  जा रहा है और मैदानी क्षेत्रों के बड़े-बड़े शहरों में  बसता जा रहा है।  इस प्रकार से पर्वतीय कृषि बंजर होती जा रही है। थोड़े बहुत बुजुर्ग किसान बचे हैं जो अपनी उम्र क्षमता के अनुसार रूढ़ीवादी या परम्परागत खेती करके अपना भरण पोषण किसी न किसी प्रकार से कर रहे हैं।
    सर्वे के अनुसार यह पाया गया है कि आज भी पर्वतीय अंचल के प्रत्येक घर में रोज हरी सब्जी नहीं खायी जाती है और न ही उगाई जाती है। कुछ लोग तो अच्छी सब्जियों को देख तक नहीं पाते हैं खाने की क्या बात  करेंगे। लेकिन सवाल यह उठता है कि कब तक पर्वतीय अंचलों के लोग ऐसे रहेंगे। इसका जिम्मेदार कौन है और क्या किया जाए कि लोग पलायन छोड़कर यहां रूकें और व्यावसायिक खेती करके उत्पादन एवं रोजगार को बढ़ाकर अपनी पोषण सुरक्षा भी करें।
    अब प्रश्न यह उठता है कि पर्वतीय अंचलों में उपरोक्त वर्णित प्राकृतिक एवं जैविक आपदाओं से कैसे बचा जाये, सब्जी उत्पादन को कम से कम क्षेत्र में कैसे बढ़ावा दिया जाए। तो प्रश्न का सही जवाब यह  होगा कि पालीहाउस खेती को अपनाया जाय। क्योंकि पालीहाउस एक विशेष प्रकार की घरनुमा बनी संरचना होती है। जो किसी भी प्रकार की आपदाओं में फसलों को अपने अन्दर संरक्षित करके प्रति इकाई क्षेत्र उत्पादन एवं उत्पादकता को कम समय में बढ़ा देती है। जिसको 200 माइक्रान मोटाई वाली पारदर्शी एवं पराबैंगनी किरणों से प्रतिरोधी पालीथीन चादर से छाया जाता है इसलिए इसे पालीहाउस कहते हैं। यह  बॉस,  लकड़ी,  पत्थर,  लोहे  के  एंगल  एवं  जी0आई0 पाइपों के सहयोग  से बनाया जा सकता है। जिसके  अन्दर  भू-परिष्करण  क्रियाओं  को  करके  सब्जियों  को उगाया  जाता है।
    पर्वतीय अंचलों में पालीहाउस की आवश्यकता इसलिए महसूस हुई क्योंकि-
    1. पाली हाउस एक संरक्षित खेती है।
    2. इसके अन्दर लगी सब्जियों को जैविक एवं प्राकृतिक झंझावतों से होने वाले नुकसान को बचाया जा सकता है।
    3. पालीहाउस प्रति इकाई क्षेत्र उत्पादन, उत्पादकता एवं गुणवत्ता को बढ़ा देता है।
    4. वर्ष भर उत्पादन को बढ़ावा देता है।
    5. अगेती एवं बेमौसमी सब्जी उत्पादन किया जा सकता है।
    6. पालीहाउस खेती एक रोजगार परख खेती है।
    7. इसके माध्यम से सब्जी उत्पादन का क्षेत्रफल बढ़ता है और अन्य कृषि संसाधनों का विकास होता है।

    सफलता का पूर्ण विवरण-कृषक की पूर्व आर्थिकी, भूमि एवं अन्य उपलब्ध संसाधन

    पालीहाउस तकनीक की सफल कहानी का विस्तृत विवरण वर्ष 2005 के पहले का है। चम्पावत जनपद के लोहाघाट ब्लाक के सुई-डुंगरी नामक ग्राम पंचायत में रहने वाले श्री रमेश चन्द्र चौबे जिनके पास 4-5 नाली अर्थात लगभग 1000 वर्ग मीटर खेती योग्य भूमि थी। लेकिन यह जमीन आपसी अलगाव के कारण जगह-जगह बिखरी हुयी थी। चौबे जी खेती के नवीनतम तकनीकों से अनजान होने कारण रूढ़ीवादी  खेती  किया  करते  थे जिससे उनको  थोड़ा बहुत अनाज मिल जाता  था परन्तु खाने  भर  को पर्याप्त नहीं होता था। चौबेजी को सब्जियों को उगाने का ज्ञान बहुत कम था। इस कारण से उन्होंने थोड़ा बहुत पहाड़ी सब्जियॉ जैसे राई, राजमा ककड़ी,मूली आदि को परम्परागत विधि से उगाया करते थे। जिससे बहुत कम आमदनी होती थी। चौबे जी फौज से सेवानिवृत हैं और उनके पास 6 सदस्यों के परिवार के खर्च का भार है। बच्चों को पढ़ाने लिखाने व उनकी आवश्यकताओं को पूरा करने तक के लिए पेंशन से प्राप्त रू0 3600/- पूरा नहीं पड़ता था। फण्ड इत्यादि जो मिला था वह घर बनवाने एवं बच्चों की शादी में खर्च कर चुके थे। थोड़ा बहुत पैसे यदि किसी तरह कहीं से बचत करते थे तो वह दैनिक जीवन के खान-पान  एवं  स्वास्थ्य  सुरक्षा में खत्म हो जाता था। इसलिए चौबे जी बहुत परेशान रहा करते थे। और सोचते रहते थे कि कैसे क्या किया जाए जिससे प्रतिदिन साग सब्जी एवं खाने पर आने वाला खर्च अपनी इस खेती से निकल जाए। चौबे जी ने समय-समय पर कृषि व उद्यान विभाग के माध्यम से चल रहीयोजनाओं से भी सहयोग लिया। परन्तु उन्हें विभागों से कृषि निवेश तो मिलजाता था। लेकिन वैज्ञानिक एवं तकनीकी ज्ञान, प्रदर्शन एवं प्रशिक्षण का अभाव  उनको  खेती से भरपूर सफलता नहीं लेने देता था। क्योंकि जनपद के विभागों एवं कृषि विज्ञान केन्द्र में बहुत लम्बे समय से कोई अनुभवी सब्जी वैज्ञानिक एवं पालीहाउस खेती  की जानकारी  रखने  वाला कोई भी वैज्ञानिक नहीं था। जिसकी वजह से न अच्छी ट्रेनिंग हो पा रही  थी  और न  ही तकनीक का सफल प्रदर्शन हो पा रहा था। जिस कारण से चौबे  जी  ही  नहीं  बल्कि समस्त किसान पालीहाउस खेती व सब्जी उत्पादन से अनभिज्ञ थे।

    सफलता प्रयास से सम्बन्धित घटित विभिन्न घटनाएं एवं अनुभव

    पालीहाउस खेती की सफलता की कहानी जनपद चम्पावत में इस प्रकार प्रारम्भ हुई जब जनवरी 2005 में कृषि विज्ञान केन्द्र, लोहाघाट पर विषय वस्तु विशेषज्ञ उद्यान/सब्जी विज्ञान विषय पर डॉ0ए0के0सिंह  चयनित  होकर  आये  और  उन्होंने  कृषि  विज्ञान  केन्द्र  की कार्य प्रणाली के आधार पर अनेक गावों में भ्रमण किया, जनपद के समस्त
    Poly House1
    सम्बन्धित विभागों के शीर्ष अधिकारियों एवं प्रसार कर्मचारियों से मिले, किसानों के विचार व समस्याओं को सुना व समझा। इस कार्य का करने में करीब 4 माह का समय लगा। इस कार्य अनुभव के बाद डॉ0 ए0के0सिंह को पता लग गया कि यहाँ नवीनतम तकनीकी, वैज्ञानिक ज्ञान व तरीकों की कमी के साथ-साथ सफल प्रदर्शन देने  की आवश्यकता है और  पालीहाउस  में  सब्जी  खेती  के प्रदर्शन को दिखाकर समस्त पालीहाउस किसानों को प्रशिक्षण देने की जरूरत है। डॉ0 सिंह की यह सोच और प्रयास बहुत सफल हुआ क्योंकि उन्होंनेसर्वप्रथम कृषि विज्ञान केन्द्र, लोहाघाट पर बने दो पालीहाउस जो खाली पड़े रहते थे और पुराने होने के कारण फट भी गए थे उसको ठीक करके इसके अन्दर ले आउट इत्यादि को अच्छी तरह ठीक किया और अपने पूर्व में कार्य अनुभव के आधार पर वैज्ञानिक विधि  से टमाटर एवं शिमला मिर्च की खेती  का पालीहाउस पर प्रदर्शनी  लगायी। जब प्रदर्शनी सफल हुई तो डॉ0 सिंह ने कृषि विभाग, उद्यान विभाग,जलागम वविभिन्न गैर 6सरकारी संस्थाओं(एनजीओ) के संचालकों व अधिकारियों के साथ-साथ मुख्य विकास अधिकारी और जिलाधिकारी से सम्पर्क करके सभी लोगों को समय-समय पर आमन्त्रित करके प्रदर्शन को दिखाया। उसके बाद सभी अधिकारी अपने कार्य क्षेत्र से किसानों को ट्रेनिंग व भ्रमण हेतु कृषि विज्ञान केन्द्र पर भेजना शुरु कर दिया और प्रशिक्षण एवं प्रदर्शन किसानों को कराये जाने लगे। इसके साथ तकनीकी विकास हेतु प्रदर्शनों को चित्र सहित मीडिया में प्रचार-प्रसार हेतु निकलवाया गया जिससे किसान प्रदर्शन को देखने खुद व खुद कृषि विज्ञान केन्द्र में आने लगे। इन प्रयासों का यह असर हुआ कि रमेश चौबे ने अपने आप एक छोटा सा पालीहाउस बनवाया और उसमें सब्जी नर्सरी उगायी और फिर उसमें टमाटर, शिमला मिर्च, चप्पन कद्‌दू व खीरा की खेती प्रारम्भ की। उसके बाद छोटे पालीहाउस में अच्छा उत्पादन पाने के बाद चौबे जी ने जनपद चम्पावत में चल रही ग्राम्या परियोजना के माध्यम से छूट मानदेय(रू0 5000) को देकर एक बड़ा सा पालीहाउस बनवाया और कृषि विज्ञान केन्द्र के  पालीहाउस  में हो रही  शिमला, मिर्च, टमाटर, खीरा एवं छप्पन कदृदू की खेती की प्रदर्शन तकनीक को सीखकर वह स्वयं अपने पालीहाउस में इन्हीं सब्जियों का उत्पादन करना प्रारम्भ किया। चौबे जी समय-समय पर तकनीकी ज्ञान व प्रजातियों की जानकारी लेने हेतु कृषि विज्ञान केन्द में प्रति माह आते रहे और प्रशिक्षण भी लेते रहे। जिससे उनको आज पालीहाउस खेती का भरपूर ज्ञान हो गया है और वह प्रतिवर्ष अपने पालीहाउस के माध्यम से रू0 12-15 हजार अतिरिक्त कमा रहे हैं और साथ-साथ पोषण सुरक्षा हेतु सब्जियां भी खा रहे हैं। इसी पैसे से आवश्यक घरेलू खर्च को पूरा कर रहे हैं।
    Poly House2धीरे-धीरे सब्जी खेती को बढ़ावा देने हेतु आज इनके पास वर्मी कम्पोस्ट पिट, दो पालीहाउस, पानी का साधन छोटे-मोटे कृषि यन्त्र, पशुपालन इकाई मल्चिंग इकाई आदि कृषि संसाधन इकट्‌ठे कर लिए हैं। जबकि वर्ष 2005 तक इनके पास कुछ भी नहीं था और जो भी खेती से आय थी वह रू0 4-5 हजार प्रतिवर्ष थी। श्री चौबे पालीहाउस की महत्वता व परिणाम को देखते हुए एक और पालीहाउस बनवाने जा रहे हैं जिससे और अधिक आर्थिक लाभ ले सकें। वर्तमान समय में कृषि विज्ञान केन्द्र पर कार्यरत सब्जी वैज्ञानिक डॉ0 ए.के. सिंह के द्वारा अपने कार्य परिणाम के आधार पर पालीहाउसों में वर्षभर सब्जी उत्पादन करने हेतु एक आर्थिक सब्जी चक्र कलैण्डर तैयार किया है जिसको सारणी-1 में दर्शाया गया है। जिस कलैण्डर के अनुसार चौबे जी प्रतिवर्ष औसतन रू0 12000-15000 की शुद्ध बचत करके दैनिक जीवन की आवश्यकताओं को पूरा कर अपने कृषक परिवेश में भी अपने आप को खुशहाल महसूस कर रहे हैं।  जनपद चम्पावत में वर्ष 2004 के पहले भारत सरकार, प्रादेशिक सरकार की योजनाओं के अन्तर्गत विभिन्न वर्ग के कृषक प्रक्षेत्र पर 232 पालीहाउस बनाये गये थे। परन्तु सब्जी उत्पादन का वैज्ञानिक व तकनीकी ज्ञान न होने के कारण इन पालीहाउसों में किसान भाई  लोग अज्ञानतावश  भूसा,  पुआल,  लकड़ी  व  घास  रखना,  पशु  बांधना,और कपड़ा  सुखाना  आदि  घरेलू कार्यों  हेतु प्रयोग करते थे। किसी-किसी  गाँव  में कोई-कोई  किसान भाई खीरा,  ककड़ी  या  लौकी  के  1-2  बीज  लगा  देते थे जिसकी  शाखाऍ  पालीहाउस  के  नीचे एवं ऊपर फैलकर पूरे पालीहाउस को भर लेती थी और उसमें से थोड़ी बहुत सब्जियॉ कभी कभार खाने भर को पैदा हो जाती थी। परन्तु सब्जी उत्पादन में क्रान्ति तब प्रारम्भ हुयी जब वर्ष 2005-06 में कृषि विज्ञान केन्द्र लोहाघाट के द्वारा पालीहाउस खेती तकनीक पर वैज्ञानिक तकनीकों से परिपूर्ण लगन एवं परिश्रम से लगाए गये  पालीहाउस  प्रदर्शनों,  प्रशिक्षणों  एवं भ्रमण  कार्यक्रमों के अन्तर्गत चम्पावत के समस्त पालीहाउस  रखने  वाले  किसानों को केन्द्र पर बुलाकर तीन दिवसीय आवासीय प्रशिक्षण दिया गया। जिसमें तकनीक को करके व दिखाकर सिखाया गया,अखबारों एवं टेलीवीजन के माध्यम से प्रचार किया गया। जिसका  परिणाम यह हुआ कि जिन किसानों के पास पालीहाउस था वह सब्जी  पौध, टमाटर, शिमला मिर्च, चप्पन कद्‌दू खीरा एव गोभी वर्गीय सब्जियों की खेती पालीहाउसों में करने लगे है और कम जगह घेरने वाले इन्हीं पालीहाउस से औसतन रू0 8-10 हजार तक वर्तमान में प्रतिवर्ष कमा रहे हैं। इस सफलता को देखकर असर यह हुआ कि जो भी किसान इस पालीहाउस खेती को देखा वह इतने प्रभावित हुए कि विभागीय छूट पर अपना अंशदान 5-6 हजार जमा करके वर्ष 2006-08 के मध्म 260 किसान पालीहाउस बनावाकर सब्जियों की व्यावसायिक खेती प्रारम्भ कर दिया है। अब इन किसानों के लाभ को देखकर वर्तमान में लगभग 300 किसानों ने पालीहाउस लेने के लिए अपना छूट अंशदान (रू0 5-6 हजार) जमा करके विभिन्न जनपदीय विभागों में रजिस्ट्रेशन करवा चुके हैं। जो सम्भवतः 2008-10 में यह पालीहाउस लग जाएंगे। चम्पावत के पालीहाउस की सफल कहानी का एक और बिन्दु यह है कि वर्ष 2007 में चम्पावत जनपद के जिलाधिकारी ने कृषि विज्ञान केन्द, लोहाघाट के  प्रक्षेत्र पर लगे पालीहाउस में सब्जी उत्पादन का सफल  प्रदर्शन  देखकर  इतने  प्रभावित  हुए कि चम्पावत जिले के सीमावर्ती गावों में रोजगारपरक खेती विकास के लिए गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले समस्त किसानों के खेतों पर पालीहाउस बनवाने हेतु काफी मोटी रकम उद्यान विभाग को दी। जिसके द्वारा लगभग 50 पालीहाउस बनवाये जा सकेगें और इन कृषकों का प्रशिक्षण कृषि विज्ञान केन्द लोहाघाट में करवाया जायेगा इस प्रकार का उनका आदेश था जिस पर कार्यवाही प्रारम्भ हो गयी है।
    इस प्रकार से आज कृषि विज्ञान केन्द्र, लोहाघाट के प्रयासों से एवं प्रसार कार्यों से चम्पावत जनपद में जहाँ 2004 तक 232 पालीहाउसों की संख्या थी वही विगत चार सालों में बढ़कर वर्तमान में कुल पालीहाउसों की संख्या 500 से अधिक हो चुकी है और शुरु में ही 100 पालीहाउसों की संख्या और बढ़ने वाली है। चम्पावत जनपद में पालीहाउसों की संख्या दिन प्रतिदिन बढ़ती जा रही है। क्योंकि किसानों को  इससे  आर्थिक  लाभ  बगैर  नुकसान  के  मिलने  लगा है। इस वर्ष 2008 में मई-अगस्त माह तक लगातार 90 दिनों तक वर्षा के प्रकोप से सम्पूर्ण सब्जी फसल नष्ट हो गयी थी। जबकि जिन किसानों के पास पालीहाउस था उनको सब्जियां खाने व बेचने को भरपूर प्राप्त हुई। पालीहाउस के इस परिणाम को देखकर आस पड़ोस के किसान पालीहाउस खेती से प्रभावित हो रहे हैं और प्रत्येक किसान ने पालीहाउस बनाने के लिए प्रयास शुरु कर दिये हैं।

    तकनीकी का आर्थिक पहलू, व क्षेत्र में फैलाव

    पर्वतीय अंचलों में पालीहाउस त्रिभुजाकर, प्राकृतिक वातायन वाला बनाया जाता है। जिसकी कुल लागत छूट के बाद 20 हजार रूपये आती है। इसका 3 हिस्सा संरचना बनाने एवं मजदूरी में खर्च होता है और 1 हिस्सा छाने वाली पालीथीन चादर पर खर्च होता है। सामान्य तौर पर देखा जाय तो पालीहाउस का लागत-आय खर्च उसके उम्र से आंकलन करके निकाला जाता है तो प्रतिवर्ष औसत लागत रू0 150-175 प्रति वर्गमीटर के लगभग आती है अर्थात पालीहाउस में सब्जी उत्पादन को अच्छी प्रकार से किया जाए तो 2-3 वर्ष के मध्य सम्पूर्ण पाली हाउस की लागत वापस हो जाती है और  चौथे  वर्ष  से  पूर्णतया  पालीहाउस लागत  मुफ्त हो जाती  है। पालीहाउस  संरचना  लगभग  20-25  वर्षों तक  टिकाऊरहती । केवल पालीथीन को कटने, फटने या परदर्शिता को खत्म होने के बाद ही बदलना पढ़ता है। पालीहाउस की पालीथीन को हर 5-7 वर्ष के बाद बदलने पर 4500-5000 रूपये का अतिरिक्त खर्च आता है। और इस खर्च को किसान 1 वर्ष के अन्दर ही सब्जी उत्पादन करके बड़े आसानी से वापस कर लेता है। पालीहाउस में सब्जियों का उत्पादन सामान्य खेती की तुलना में 3-4 गुना ज्यादा होता है। परन्तु कभी-कभी ऐसा  प्राकृतिक प्रकोप होता है कि पालीहाउस में शत प्रतिशत सफलता मिलती है परन्तु बाहर की सब्जियों में कुछ भी नहीं मिलता है। पालीहाउस की सब्जियों का बाजार मूल्य अच्छा प्राप्त होता है। क्योंकि रंग,  रूप, आकार, प्रकार, स्वाद, टिकाऊपन, भण्डारण क्षमता और परिवहन गुणवत्ता आदि सभी गुणों से सम्पन्न होती है। पालीहाउस तकनीक एक ऐसी खेती  है जो  रोजगार को बढ़ावा देने में अत्यधिक सहयोगी बन सकती है। क्योंकि पालीहाउस बढ़ने से गुणवत्ता युक्त अधिक उत्पादन को  बेचने  के  साथ-साथ रोजगारों  को  बढाबा  दिया जा सकता है। पर्वतीय  अंचलों में जो पालीहाउस बनाया जाता है वह 10 मी0 लम्बा X 4 मी0 चौड़ा X 2 मी0 ऊॅचाई वाले साइज का होता है जिसको बनाने व खेती करने में लगने वाली विभिन्न सामग्रीयों जैसे पालीथीन सीट, खाद, बीज, दवाएं, विपणन हेतु टोकरियॉं, कृषि यन्त्र आदि की आवश्यकता होगी और इसको बनाने वाले समस्त इन्हीं किसानों के बेटे  मिस्त्री  निकलेंगे  और  सामग्रीयों  को  बेचेंगे  तो  पालीहाउस  खेती  स्वतः  रोजगार परख खेती होती जायेगी।

    आत्मा

     
    आत्मा उन प्रमुख भागीदारों की संस्था है जो जिला में कृषि के विकास को स्थायित्व प्रदान करने संबंधी कृषि की गतिविधियों में संलग्न है। यह कृषि प्रसार एवं अनुसंधान कार्य को एकीकृत रूप से कृषकों के बीच लाने में मददगार है। यह एक स्वायत्त संस्था है जो जिला में कृषि एवं सम्बद्ध तकनीकी प्रसार के लिए उत्तरदायी है। यह संस्था सीधे धन राशि प्राप्त करने (राज्य/भारत सरकार, निजी संस्थान, सदस्यता, लाभार्थी से सहयोग आदि), अनुबंध करार एवं लेखा अनुरक्षण करने में पूर्व समर्थ होने के साथ ही स्वावलंबन हेतु शुल्क तथा परिचालन व्यय करने में भी समर्थ है।आत्मा जिले में सभी प्रौद्योगिकी प्रसार गतिविधियों के लिए जिम्मेवार है। इसका कृषि विकास से जुड़े सभी संस्थाओं, गैर सरकारी संगठनों एवं अभिकरणों के साथ संबंध है। आत्मा जिले में कार्यरत संस्थाओें जैसे-कृषि विज्ञान केन्द्र, क्षेत्रीय अनुसंधान केन्द्र, तथा सभी प्रमुख लाइन विभागों जैसे- कृषि, उद्यान, पशुपालन, मत्स्यपालन, जिला अग्रणी बैंक आदि आत्मा के संगठनात्मक सदस्य है। इसमें से प्रत्येक विभाग अपनी विभागीय पहचान बनाये रखेंगें, लेकिन उनके प्रसार एवं अनुसंधान संबंधी गतिविधियों का निर्धारण आत्मा के शासी परिषद ;ळवअमतदपदह ठवंतकद्ध द्वारा किया जाएगा तथा उनका क्रियान्वयन आत्मा प्रबन्ध समिति के द्वारा होगा।


    लक्ष्य एवं उद्देश्य :-

    • क्षेत्र विशेष के संसाधन एवं लोगों की मांग पर आधारित तकनीकी सेवा का विकास करना ।
    • कृषि कार्य से सम्बद्ध सभी कृषक अनुसंधान एवं प्रसार कार्यकर्ताओं को सहभागी उद्धेश्यों हेतु जोंड़ना एवं सुदृढ़ करना।
    • कृषि प्रबंध व्यवस्था में सबलीकरण हेतु किसान समूहों का निर्माण करना।
    • क्षेत्र विशेष की आवश्यकता आधारित कृषि व्यवस्था की पहचान एवं सुदृढ़ीकरण करना।
    • योजनाओं का क्रियान्वयन सम्बद्ध विभागों, प्रशिक्षण संस्थानों, स्वयं सेवी संस्थानों, कृषक समूहों आदि द्वारा करना।
    • सभी सम्बद्ध विभागों एवं भागदारों के सामंजन द्वारा अनुसंधान-प्रसार कड़ी को सक्षम बनाना।
    • कृषि के सर्वांगीण विकास हेतु निजी क्षेत्र की भागीदारी बढ़ाना।
    • कृषि क्षेत्र में महिलाओं की भागीदारी बढ़ाना।
    • कृषि प्रसार क्षेत्र में सूचना तकनीक एव मिडिया की भूमिका को बढ़ावा देना।
    आत्मा को शासी परिषद एवं प्रबंध समिति द्वारा सहयोग किया जाएगा। आत्मा के अन्तर्गत प्रखंड स्तर पर कृषक सूचना एवं सलाहकार केन्द्र (FIAC) का संचालन तकनीकी सलाहकारों की प्रखण्ड तकनीकी दल (BTT) एवं प्रखंड किसान समूहों के किसान सलाहकार समिति (BFIAC) द्वारा होता है। गाँव एवं प्रखण्ड स्तर पर व्यवसाय आधारित किसान हित समूहों (FIG) को प्रोत्साहन देना,जिससे तकनीकी सृजन एवं प्रसारण में किसान की भूमिका एवं जवाबदेही हो।

    कृषि प्रोद्योगिकी प्रबंध अभिकरण

     
    कृषि प्रोद्योगिकी प्रबंध अभिकरण (Agricultural Technology Management Agency / ATMA / आत्मा) एक स्वायत्त पंजीकृत संस्था है जो भारत के विभिन्न जिलों में कृषि एवं सम्बद्ध तकनीकी प्रसार के लिए उत्तरदायी है। यह संस्था सीधे धन राशि प्राप्त करने (राज्य/भारत सरकार, निजी संस्थान, सदस्यता, लाभार्थी से सहयोग आदि), अनुबंध करार एवं लेखा अनुरक्षण करने में पूर्व समर्थ होने के साथ ही स्वावलंबन हेतु शुल्क तथा परिचालन व्यय करने में भी समर्थ है।
    कृषि प्रौद्योगिकी प्रबंध अभिकरण (आत्मा) उन प्रमुख भागीदारी की संस्था है जो जिला स्तर पर कृषि के विकास को स्थायित्व प्रदान करने संबंधी कृषि की गतिविधियों में संलग्न हैं। यह कृषि प्रसार एवं अनुसंधान की गतिविधियों के एकीकरण के साथ ही सार्वजनिक कृषि प्रौद्योगिकी व्यवस्था प्रबंधन के विकेन्द्रीकरण की दिशा में किया जाने वाला एक सार्थक प्रयास है।

    आत्मा के कार्यक्रम

    1 कृषक प्रशिक्षण कार्यक्रम ।
    2 अग्रिम पंक्ति प्रत्यक्षण कार्यक्रम ।
    3 कृषक वैज्ञानिक मिलन ।
    4 किसान मेला का आयोजन ।
    5 'कृषक गोष्ठी' एवं 'क्षेत्र दिवस' का आयोजन ।
    6 कृषकों की दक्षता-विकास हेतु भ्रमण का आयोजन ।
    7 उपयोगी कृषि-साहित्य का प्रकाशन ।
    8 कृषक हितार्थी समूहों का गठन एवं क्षमता संबर्घन ।
    9 कृषि के सर्वागीण विकास हेतु निजी क्षेत्रों की भागीदारी बढाना ।
    10 कृषि क्षेत्र में महिलाओं की भागीदारी को प्रोत्साहन करना ।
    11 फार्म स्कूल की स्थापना ।
    12 कृषि से संबद्ध सफलता की कहानियों का प्रकाशन एवं प्रसार ।
    13 अनुसंधान-प्रसार-कृषक-बाजार कडी के सबलीकरण की दिशा में कदम उठाना ।

    Hola bienvenidos al grupo de Horticultura, les animo a q se unan y compartan todo aquello que les parezca útil. Gracias, un saludo.

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