पोली हाउस खेती में ऑफ सीजन के फूल,
सब्जियां उगाई जाती हैं। यह प्रतिकूल मौसम परिस्थितियों में भी सब्जी
नर्सरी के उत्पादन में उपयोगी है। फसलों का चुनाव पाली हाउस संरचना, बाजार
की मांग के साथ ही उम्मीद की बाजार कीमत के आकार पर निर्भर करता है।
यह वर्ष के किसी भी भाग के दौरान
पर्यावरण की दृष्टि से नियंत्रित पोली हाउस में किसी भी सब्जी की फसल को
उठाने के लिए सुविधाजनक है, वहीं फसलों का चयन साधारण कम लागत वाली पॉली
हाउस के मामले में अधिक महत्वपूर्ण है। ककड़ी, लौकी, शिमला मिर्च और टमाटर
कम लागत वाली पॉली हाउस में सर्दियों के दौरान काफी लाभकारी पैदावार दे
सकती है। उचित वेंटीलेशन गोभी के साथ, उष्णकटिबंधीय फूलगोभी और धनिया की
जल्दी किस्मों सफलतापूर्वक भी गर्मी / बरसात के मौसम के दौरान पैदा किया जा
सकता है।
जरबेरा, कारनेशन, गुलाब, अन्थूरियम आदि फूलों को फसलों की तरह भी पाली हाउस में ले जाया जाता है।
शुरू में आप संरक्षित खेती की एक छोटी अवधि के कोर्स को पूरा
करना होगा। इसके अलावा संरक्षित खेती के किसी भी सफल किसान के पास जाकर
खेती को समझना होगा।
पौधों को प्रदूषण से बचाने के लिए साइट औद्योगिक क्षेत्र से दूर होना चाहिए।
किसी भी इमारत या पेड़ों की वजह से छाया भी हानिकारक है। ग्राउंड
ढाल ऐसा होना चाहिए कि सतह का पानी ग्रीनहाउस से दूर रहें। यदि ग्रीनहाउस
उच्च जमीनी स्तर पर है, रुके पानी के माध्यम से मिट्टी तर सकता है इसके लिए
चारों ओर इसलिए उचित जल निकासी प्रावधान आवश्यक है।
सभी मौसम में सड़क के संबंध में स्थान ग्रीन हाउस के निर्माण की
सुविधा और उत्पादन के त्वरित निपटान की अनुमति देता है। शहरों के लिए
निकटता, बाजार ब्याज निगरानी आवश्यक है हालांकि, एक पाली हाउस के लिए मुख्य
रूप से अंकुर उत्पादन से मतलब है जो दूर शहरों से स्थित हो सकता है।
एक भरोसेमंद पानी की आपूर्ति सभी श्रेणियों के पॉली हाउस लिए बनाए रखा जाना है पर्यावरण नियंत्रण उपकरणों या बिना उसके साथ ही।
इसके अलावा, बिजली की आपूर्ति भी आवश्यक है।
पाली हाउस के एक पूर्व पश्चिम अभिविन्यास, सर्दियों में अच्छा प्रकाश और उत्तरी हवाओं से सुरक्षा सुनिश्चित करता है।
पर्याप्त श्रम सुविधा की उपलब्धता आवश्यक है।
अगर आप इस क्षेत्र में नए हैं, तो फसलों
की पाली हाउस खेती के क्षेत्र में प्रवेश करने से पहले प्रशिक्षण प्राप्त
करें। आप के पास पाली घरों से जानकारी के लिए जाएँ। अपने क्षेत्र में
प्रशिक्षण संबंधी जानकारी के लिए आप तहसील की कृषि अधिकारी या नजदीकी कृषि
विज्ञान केन्द्र या कृषि विश्वविद्यालय के लिए संपर्क कर सकते हैं।
पोली हाउस:गाज़ियाबाद (उत्तर प्रदेश ) का उदाहरण
पोली हाउस की मदद से फसलों को अनुकूलित
वातावरण देने में मिली सफलता से अब यहां के किसानों को नई दिशा मिली है।
सरकार के प्रोत्साहन से सिंभावली, हापुड़ ब्लॉक और आसपास के 25 से 30
किसानों का रुझान पोली हाउस की तरफ बढ़ा है। जिले में 10 साल पहले शुरू हुई
इस व्यवस्था का ही नतीजा है कि अब यहां के किसान बड़े स्तर पर सब्जी और
फूलों की खेती करने लगे हैं। बताया जाता है कि पोली हाउस के माध्यम से यहां
के किसान सालाना 150 करोड़ रुपये का बिजनेस करने लगे हैं।
राष्ट्रीय बागवानी मिशन के माध्यम से
पोली हाउसों को बढ़ावा देने के लिए यूपी सरकार ने एक योजना चलाई है। पोली
हाउसों के माध्यम से खेती करने वाले किसानों की आर्थिक दशा तेजी से बदल रही
है। यहां के दो दर्जन से अधिक किसान सब्जी और फूल का उत्पादन कर रहे हैं।
किसानों ने इस साल दिखाई दिलचस्पी
जिला उद्यान अधिकारी एन. के. सहानिया ने
बताया कि सरकार पोली हाउस बनाने वाले किसानों को उस पर आने वाली कीमत का
लगभग 47 प्रतिशत राशि अनुदान के रूप में देती है। 53 प्रतिशत राशि किसान को
अपने पास से लगाना पड़ता है। इस साल 10 किसानों को पोली हाउस बनाने के लिए
आर्थिक मदद देने का टारगेट रखा था लेकिन इससे ज्यादा किसानों ने इस योजना
में अपनी दिलचस्पी दिखाई। किसानों की ओर से विभाग के पास 16 प्रस्ताव आए
हैं। इनमें से 10 लोगों को अनुदान राशि दी जा चुकी है। छह किसानों का
प्रस्ताव शासन को भेजा गया है। शासन से मंजूरी मिलते ही उन लोगों को भी
अनुदान राशि दी जाएगी।
छोटे किसान भी पोली हाउस बना सकते हैं।
अधिकतर पोली हाउस सिंभावली और हापुड़
ब्लॉक में हैं। अधिकतर किासनों ने 1000 वर्ग मीटर में पोली हाउस लगाने की
पहल की है। इतने एरिया में पोली हाउस बनाने में लगभग 10 लाख रुपये का खर्च
आता है। किसानों को प्रति पोली फार्म 4.67 लाख रुपये का अनुदान दिया जा
चुका है। उनका कहना है कि किसान छोटे साइज का भी पोली फार्म बना सकते हैं।
उनको उस पर जो लागत आएगी उसका लगभग 47 प्रतिशत अनुदान दिया जाएगा। किसान
500 वर्ग मीटर तक का भी पोली हाउस बना सकता है। पोली फार्मों को अनुदान की
यह योजना यूपी में 2005 से है। लेकिन पहले गिने चुने लोग इसके लिए आगे आते
थे। अब किसानों का रुझान इधर बढ़ा है। पिछले साल छह किसानों ने पोली फार्म
बनाया।
स्टील का स्ट्रक्चर देता है मजबूती
पोली फार्म का स्ट्रक्चर स्टील का होता
है और प्लास्टिक की सीट से ऊपर का हिस्सा ढका होता है। एक बार स्ट्रक्चर बन
जाने पर पोली फार्म कम से कम 10 साल तक काम करता है। तेज हवा चलने पर
प्लास्टिक सीट दो तीन साल पर बदलनी पड़ सकती है। हालांकि इस पर बहुत कम आता
है। एन. के. सहानिया का कहना है कि जिन किसानों ने पोली फार्म बनाया है वे
उस पर आने वाली लागत को पहले साल में ही निकाल लिए हैं। पोली फार्मों से
तेज धूप और तेज बरसात से फूल व सब्जी के पौधों का बचाव होता है। इसके साथ
ही इन फसलों के लिए अनुकूल वातावरण तैयार होता है। कुल 51 एजेंसियां पोली
फार्म तैयार करती हैं जो सरकारी की सूचि में शामिल हैं।
बेमौसम सब्जी और रंग-बिरंगे फूल
पोली फार्म वाले किसान साल में लगभग तीन
करोड़ का फूल बेच रहे हैं। वे जो फूल उगा रहे हैं उनमें
गेंदा,जरबेर,गुलदाउदी, रजनीगंधा आदि हैं। किसान बेमौसम सब्जी भी उगा रहे
हैं। यही वजह है कि किसान मार्केट में सब्जी की अच्छी कीमत पा रहे हैं।
यहां के किसान पोली फार्म में शिमला मिर्च लाल और पीली दोनों किस्म की पैदा
कर रहे हैं। रंगीन शिमला मिर्च हरी शिमला मिर्च के मुकाबले अधिक कीमत पर
बिक रही है।
पोली हाउस:हरियाणा सरकार की पहल
17 करोड़ की लागत से लगभग 100 एकड़ जमीन में लगने वाले पोली हाउस लगाने के लिए किसानों को अनुदान दिया गया।
हरियाणा सरकार की ओर से किसानों की
आर्थिक स्थिति में सुधार लाने के लिए उन्हें पोली हाउस में संरक्षित खेती
करने के लिए प्रेरित किया जा रहा है। पोली हाउस के माध्यम से की गई खेती
अन्य खेती से कईं गुणा पैदावार लेकर किसान समृद्ध हो रहे हैं। करनाल जिले
में करीब 17 करोड़ की लागत से लगभग 100 एकड़ जमीन में लगने वाले पोली हाउस
लगाने के लिए किसानों को अनुदान दिया गया है।
हरियाणा सरकार प्रदेश के किसानों को
आधुनिक खेती की ओर प्रेरित कर रही है, ताकि घटती जोत में अधिक आय हो सके,
इसके लिए पोली हाउस के माध्यम से की जाने वाली सरंक्षित खेती ही एक सशक्त
माध्यम है। किसानों को पोली हाउस लगाने के लिए हरियाणा सरकार द्वारा 65
प्रतिशत अनुदान भी दिया जा रहा है। इससे प्रेरित होकर किसानों का पोली हाउस
में खेती करने का रूझान बढ़ा भी है। करनाल जिले में सैंकडों एकड भूमि में
पोली हाउस लगाए गए हैं।
सरकार का उददेश्य है कि अधिक से अधिक
किसान सरकार की इस अनुदान राशि का लाभ प्राप्त करके पोली हाउस के माध्यम से
खेती करें। इसके लिए नाबार्ड द्वारा पिछले दिनों घरौंडा में राष्ट्रीयकृत
बैंकों के प्रतिनिधियों की बैठक भी बुलाई गई थी, जिसमें निर्णय लिया गया कि
कईं किसान पोली हाउस के माध्यम से खेती तो करना चाहते हैं, परन्तु हरियाणा
सरकार के 65 प्रतिशत अनुदान के बाद भी वे शेष 35 प्रतिशत धन अर्जित करने
में असमर्थ हैं। इसके लिए सहकारी बैंकों व पैक्स बैंकों के साथ-साथ कुछ
राष्ट्रीय बैंकों से सम्पर्क किया जा रहा है कि वे किसानों को पोली हाउस
लगाने के लिए ऋण दें। इससे न सिर्फ किसानों को फायदा होगा बल्कि बैंकों का
व्यापार भी बढ़ेगा।
जब से करनाल जिला के घरौंडा में
इंडो-इजराईल के सहयोग से सब्जी उत्कृष्टता केन्द्र की स्थापना हुई है तब से
किसानों का रूझान संरक्षित खेती की ओर बढ़ा है। इससे वे कम जमीन में पोली
हाउस लगाकर अधिक लाभ कमा सकते हैं। पोली हाउस के माध्यम से की गई खेती
कीटनाशक होती है, वहीं इसमें दवाईयों का छिड़काव नहीं होता, जिसके कारण
मार्किट में इसकी लागत अधिक होती है और इसका रेट भी अधिक मिलता है। किसानों
की सुविधा के लिए घरौंडा के सब्जी उत्कृष्टता केन्द्र में करीब 30 लाख
सब्जी की पौध तैयार की गई, जो कि अनुदान पर किसानों को दी जाती है। किसानों
को इस केन्द्र के माध्यम से पोली हाउस में खेती करने के बारे में
प्रशिक्षित किया जाता है और समय-समय पर लोगों को प्रशिक्षण के लिए यहां
आमंत्रित किया जाता है। इसके माध्यम से प्रदेश के ही नहीं बल्कि देश-प्रदेश
के अन्य राज्यों के लोग यहां से प्रशिक्षण लेकर पोली हाउस के माध्यम से
संरक्षित खेती कर रहे हैं।
किसान पोली हाउस के माध्यम से खेती करना
चाहता है, उसे हरियाणा सरकार की योजना के अनुसार जिला बागवानी विभाग के
कार्यालय से अनुदान दिया जाता है। पिछले 3 सालों में अब तक करनाल जिले में
करीब 100 एकड़ जमीन पर संरक्षित खेती करने के लिए पोली हाउस, नेट हाउस आदि
के लिए सरकार की तरफ से 65 प्रतिशत प्रति एकड़ अनुदान दिया गया । अब तक
जिले के सैंकड़ों किसान इसका लाभ उठा चुके हैं और इस योजना के तहत करीब 17
करोड़ रुपए अनुदान के रूप में दिए जा चुके हैं।
पालीहाउस में वर्ष भर सब्जी उत्पादन पर सफल कहानी
नई तकनीक की आवश्यकता

पर्वतीय अंचलों में अधिक ऊंचाई पर (1500 मीटर से ऊपर) बसने वाले किसानों
की सब्जी खेती वर्षभर नहीं हो पाती है। क्योंकि पर्वतीय अंचल के इस ऊंचाई
पर नवम्बर माह से फरवरी माह तक बर्फवारी, पाला, कुहरा, ओस, ओला, शीतलहर आदि
का प्रकोप बहुत अधिक होता है। यहां रात का तापक्रम शून्य से नीचे एवं 24
घण्टे में औसत तापक्रम 2-4 डिग्री तक ही रहता है। इन्हीं कारणों से यहां के
किसान सफलतापूर्वक सब्जियों की खेती करने में असफल रहते हैं और जाड़े में
सम्पूर्ण खेत को खाली छोड़ देते हैं। जब मार्च से मौसम थोड़ा गर्म होना शुरु
होता है तो समस्त किसान सब्जियों की खेती को करना प्रारम्भ कर देते हैं और
मई तक इस कार्य को पूरा करके अच्छे उत्पादन की कामना करते हैं। जब
सब्जियां वृद्धि एवं विकास करके अपनी अर्ध उम्र में पहुंचती हैं और फल देना
प्रारम्भ करती हैं तब तक जून माह का अन्त आ जाता है और जून माह से सितम्बर
माह के मध्य बार-बार भारी वर्षा होने के कारण खेती में भूमि कटाव, जल भराव
के साथ-साथ लगातार बादल घिरे होने के कारण सूर्य का प्रकाश न मिलने से
सब्जियों में प्रकाश संश्लेषण क्रिया बन्द हो जाती है। जिसके कारण से
सब्जियों में उकठा, झुलसा, जड़ सड़न, तना सड़न, फल सड़न के साथ-साथ कीटों व
खरपतवार का प्रकोप इतना बढ़ जाता है कि लगभग 70-80 प्रतिशत सब्जियों
की खेती नष्ट हो जाती है। ऐसी परिस्थिति में किसान अपने खाने भर को
सब्जियां नहीं प्राप्त कर पाता है तो वह ऐसी जटिल परिस्थिति में व्यवसाय
क्या करेगा। इस प्रकार पर्वतीय अंचल के जलवायु में उतार चढ़ाव व अनियमितता
के कारण अधिकांश मूल्यवान सब्जियों की खेती वर्ष भर करना असम्भव है। अब
प्रश्न यह उठता है कि पर्वतीय अंचलों के अधिकांश क्षेत्रों में किसानों
की जोत बहुत छोटी व बिखरी हुई है, सब्जी उत्पादन हित में अनुकूल वातावरण
प्राप्त नहीं होता है, जंगली जानवरों का प्रकोप बढ़ता जा रहा है, लगभग 90
प्रतिशत खेती वर्षा आधारित है। इसके अलावा मैदानी क्षेत्रों से दूर होने के
कारण सब्जियों का आवागमन न हो पाने से यहां के बाजारों में भी
सब्जियॉ आवश्यकतानुसार नहीं मिल पाती हैं। जो गांव थोड़ा बाजार एवं शहरों
से नजदीक हैं वह तो बाहर से आयी हुई सब्जियां खरीद लेते हैं और अपनी पोषण
सुरक्षा की भरपाई कर लेते हैं। परन्तु पर्वतीय अंचलों के दूर दराज के गावों
में बसे लोग इतने लाचार व गरीब हैं कि वह प्रत्येक दिन बाजार या शहर नहीं आ
सकते तो ऐसी परिस्थितियों में वह प्रतिदिन सब्जियों कासेवन भी नहीं कर
पाते हैं। जिसके कारण उनके परिवार की पोषण सुरक्षा ठीक ढंग से नहीं हो पाती
है। यही कारण है कि पर्वतीय अंचलों में रहने वाले लोगों में कुपोषण का
प्रतिशत मैदानी क्षेत्रों की अपेक्षा अधिक पाया जाता है। चूंकि डॉक्टरों
के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति को 300 ग्राम सब्जी प्रतिदिन खानी चाहिए
क्योंकि सब्जियों में पोषण सुरक्षा की दृष्टि से सभी पोषक तत्वों का
समावेश होताहै। जिसको प्रतिदिन खाने से मनुष्य कुपोषण का शिकार नहीं हो
सकता है।
उपरोक्त कारणों से पर्वतीय अंचल का हर नौजवान व किसान अपने
रोजगार व पोषण सुरक्षा की तलाश में पलायन करता जा रहा है और मैदानी
क्षेत्रों के बड़े-बड़े शहरों में बसता जा रहा है। इस प्रकार से पर्वतीय
कृषि बंजर होती जा रही है। थोड़े बहुत बुजुर्ग किसान बचे हैं जो अपनी उम्र
क्षमता के अनुसार रूढ़ीवादी या परम्परागत खेती करके अपना भरण पोषण किसी न
किसी प्रकार से कर रहे हैं।
सर्वे के अनुसार यह पाया गया है कि आज भी पर्वतीय अंचल के प्रत्येक घर
में रोज हरी सब्जी नहीं खायी जाती है और न ही उगाई जाती है। कुछ लोग तो
अच्छी सब्जियों को देख तक नहीं पाते हैं खाने की क्या बात करेंगे। लेकिन
सवाल यह उठता है कि कब तक पर्वतीय अंचलों के लोग ऐसे रहेंगे। इसका
जिम्मेदार कौन है और क्या किया जाए कि लोग पलायन छोड़कर यहां रूकें और
व्यावसायिक खेती करके उत्पादन एवं रोजगार को बढ़ाकर अपनी पोषण सुरक्षा भी
करें।
अब प्रश्न यह उठता है कि पर्वतीय अंचलों में उपरोक्त वर्णित प्राकृतिक
एवं जैविक आपदाओं से कैसे बचा जाये, सब्जी उत्पादन को कम से कम क्षेत्र में
कैसे बढ़ावा दिया जाए। तो प्रश्न का सही जवाब यह होगा कि पालीहाउस खेती को
अपनाया जाय। क्योंकि पालीहाउस एक विशेष प्रकार की घरनुमा बनी संरचना होती
है। जो किसी भी प्रकार की आपदाओं में फसलों को अपने अन्दर संरक्षित करके
प्रति इकाई क्षेत्र उत्पादन एवं उत्पादकता को कम समय में बढ़ा देती है।
जिसको 200 माइक्रान मोटाई वाली पारदर्शी एवं पराबैंगनी किरणों से प्रतिरोधी
पालीथीन चादर से छाया जाता है इसलिए इसे पालीहाउस कहते हैं। यह बॉस,
लकड़ी, पत्थर, लोहे के एंगल एवं जी0आई0 पाइपों के सहयोग से बनाया जा
सकता है। जिसके अन्दर भू-परिष्करण क्रियाओं को करके सब्जियों को
उगाया जाता है।
पर्वतीय अंचलों में पालीहाउस की आवश्यकता इसलिए महसूस हुई क्योंकि-
1. पाली हाउस एक संरक्षित खेती है।
2. इसके अन्दर लगी सब्जियों को जैविक एवं प्राकृतिक झंझावतों से होने वाले नुकसान को बचाया जा सकता है।
3. पालीहाउस प्रति इकाई क्षेत्र उत्पादन, उत्पादकता एवं गुणवत्ता को बढ़ा देता है।
4. वर्ष भर उत्पादन को बढ़ावा देता है।
5. अगेती एवं बेमौसमी सब्जी उत्पादन किया जा सकता है।
6. पालीहाउस खेती एक रोजगार परख खेती है।
7. इसके माध्यम से सब्जी उत्पादन का क्षेत्रफल बढ़ता है और अन्य कृषि संसाधनों का विकास होता है।
सफलता का पूर्ण विवरण-कृषक की पूर्व आर्थिकी, भूमि एवं अन्य उपलब्ध संसाधन
पालीहाउस तकनीक की सफल कहानी का विस्तृत
विवरण वर्ष 2005 के पहले का है। चम्पावत जनपद के लोहाघाट ब्लाक के
सुई-डुंगरी नामक ग्राम पंचायत में रहने वाले श्री रमेश चन्द्र चौबे जिनके
पास 4-5 नाली अर्थात लगभग 1000 वर्ग मीटर खेती योग्य भूमि थी। लेकिन यह
जमीन आपसी अलगाव के कारण जगह-जगह बिखरी हुयी थी। चौबे जी खेती के नवीनतम
तकनीकों से अनजान होने कारण रूढ़ीवादी खेती किया करते थे जिससे उनको
थोड़ा बहुत अनाज मिल जाता था परन्तु खाने भर को पर्याप्त नहीं होता था।
चौबेजी को सब्जियों को उगाने का ज्ञान बहुत कम था। इस कारण से उन्होंने
थोड़ा बहुत पहाड़ी सब्जियॉ जैसे राई, राजमा ककड़ी,मूली आदि को परम्परागत विधि
से उगाया करते थे। जिससे बहुत कम आमदनी होती थी। चौबे जी फौज से सेवानिवृत
हैं और उनके पास 6 सदस्यों के परिवार के खर्च का भार है। बच्चों को पढ़ाने
लिखाने व उनकी आवश्यकताओं को पूरा करने तक के लिए पेंशन से प्राप्त रू0
3600/- पूरा नहीं पड़ता था। फण्ड इत्यादि जो मिला था वह घर बनवाने एवं
बच्चों की शादी में खर्च कर चुके थे। थोड़ा बहुत पैसे यदि किसी तरह कहीं से
बचत करते थे तो वह दैनिक जीवन के खान-पान एवं स्वास्थ्य सुरक्षा में
खत्म हो जाता था। इसलिए चौबे जी बहुत परेशान रहा करते थे। और सोचते रहते थे
कि कैसे क्या किया जाए जिससे प्रतिदिन साग सब्जी एवं खाने पर आने वाला
खर्च अपनी इस खेती से निकल जाए। चौबे जी ने समय-समय पर कृषि व उद्यान विभाग
के माध्यम से चल रहीयोजनाओं से भी सहयोग लिया। परन्तु उन्हें विभागों से
कृषि निवेश तो मिलजाता था। लेकिन वैज्ञानिक एवं तकनीकी ज्ञान, प्रदर्शन एवं
प्रशिक्षण का अभाव उनको खेती से भरपूर सफलता नहीं लेने देता था। क्योंकि
जनपद के विभागों एवं कृषि विज्ञान केन्द्र में बहुत लम्बे समय से कोई
अनुभवी सब्जी वैज्ञानिक एवं पालीहाउस खेती की जानकारी रखने वाला कोई भी
वैज्ञानिक नहीं था। जिसकी वजह से न अच्छी ट्रेनिंग हो पा रही थी और न ही
तकनीक का सफल प्रदर्शन हो पा रहा था। जिस कारण से चौबे जी ही नहीं
बल्कि समस्त किसान पालीहाउस खेती व सब्जी उत्पादन से अनभिज्ञ थे।
सफलता प्रयास से सम्बन्धित घटित विभिन्न घटनाएं एवं अनुभव
पालीहाउस खेती की सफलता की कहानी जनपद
चम्पावत में इस प्रकार प्रारम्भ हुई जब जनवरी 2005 में कृषि विज्ञान
केन्द्र, लोहाघाट पर विषय वस्तु विशेषज्ञ उद्यान/सब्जी विज्ञान विषय पर
डॉ0ए0के0सिंह चयनित होकर आये और उन्होंने कृषि विज्ञान केन्द्र की
कार्य प्रणाली के आधार पर अनेक गावों में भ्रमण किया, जनपद के समस्त

सम्बन्धित विभागों के शीर्ष अधिकारियों
एवं प्रसार कर्मचारियों से मिले, किसानों के विचार व समस्याओं को सुना व
समझा। इस कार्य का करने में करीब 4 माह का समय लगा। इस कार्य अनुभव के बाद
डॉ0 ए0के0सिंह को पता लग गया कि यहाँ नवीनतम तकनीकी, वैज्ञानिक ज्ञान व
तरीकों की कमी के साथ-साथ सफल प्रदर्शन देने की आवश्यकता है और पालीहाउस
में सब्जी खेती के प्रदर्शन को दिखाकर समस्त पालीहाउस किसानों को
प्रशिक्षण देने की जरूरत है। डॉ0 सिंह की यह सोच और प्रयास बहुत सफल हुआ
क्योंकि उन्होंनेसर्वप्रथम कृषि विज्ञान केन्द्र, लोहाघाट पर बने दो
पालीहाउस जो खाली पड़े रहते थे और पुराने होने के कारण फट भी गए थे उसको ठीक
करके इसके अन्दर ले आउट इत्यादि को अच्छी तरह ठीक किया और अपने पूर्व में
कार्य अनुभव के आधार पर वैज्ञानिक विधि से टमाटर एवं शिमला मिर्च की खेती
का पालीहाउस पर प्रदर्शनी लगायी। जब प्रदर्शनी सफल हुई तो डॉ0 सिंह ने
कृषि विभाग, उद्यान विभाग,जलागम वविभिन्न गैर 6सरकारी संस्थाओं(एनजीओ) के
संचालकों व अधिकारियों के साथ-साथ मुख्य विकास अधिकारी और जिलाधिकारी से
सम्पर्क करके सभी लोगों को समय-समय पर आमन्त्रित करके प्रदर्शन को दिखाया।
उसके बाद सभी अधिकारी अपने कार्य क्षेत्र से किसानों को ट्रेनिंग व भ्रमण
हेतु कृषि विज्ञान केन्द्र पर भेजना शुरु कर दिया और प्रशिक्षण एवं
प्रदर्शन किसानों को कराये जाने लगे। इसके साथ तकनीकी विकास हेतु
प्रदर्शनों को चित्र सहित मीडिया में प्रचार-प्रसार हेतु निकलवाया गया
जिससे किसान प्रदर्शन को देखने खुद व खुद कृषि विज्ञान केन्द्र में आने
लगे। इन प्रयासों का यह असर हुआ कि रमेश चौबे ने अपने आप एक छोटा सा
पालीहाउस बनवाया और उसमें सब्जी नर्सरी उगायी और फिर उसमें टमाटर, शिमला
मिर्च, चप्पन कद्दू व खीरा की खेती प्रारम्भ की। उसके बाद छोटे पालीहाउस
में अच्छा उत्पादन पाने के बाद चौबे जी ने जनपद चम्पावत में चल रही
ग्राम्या परियोजना के माध्यम से छूट मानदेय(रू0 5000) को देकर एक बड़ा सा
पालीहाउस बनवाया और कृषि विज्ञान केन्द्र के पालीहाउस में हो रही शिमला,
मिर्च, टमाटर, खीरा एवं छप्पन कदृदू की खेती की प्रदर्शन तकनीक को सीखकर
वह स्वयं अपने पालीहाउस में इन्हीं सब्जियों का उत्पादन करना प्रारम्भ
किया। चौबे जी समय-समय पर तकनीकी ज्ञान व प्रजातियों की जानकारी लेने हेतु
कृषि विज्ञान केन्द में प्रति माह आते रहे और प्रशिक्षण भी लेते रहे। जिससे
उनको आज पालीहाउस खेती का भरपूर ज्ञान हो गया है और वह प्रतिवर्ष अपने
पालीहाउस के माध्यम से रू0 12-15 हजार अतिरिक्त कमा रहे हैं और साथ-साथ
पोषण सुरक्षा हेतु सब्जियां भी खा रहे हैं। इसी पैसे से आवश्यक घरेलू खर्च
को पूरा कर रहे हैं।

धीरे-धीरे सब्जी खेती को बढ़ावा देने हेतु
आज इनके पास वर्मी कम्पोस्ट पिट, दो पालीहाउस, पानी का साधन छोटे-मोटे
कृषि यन्त्र, पशुपालन इकाई मल्चिंग इकाई आदि कृषि संसाधन इकट्ठे कर लिए
हैं। जबकि वर्ष 2005 तक इनके पास कुछ भी नहीं था और जो भी खेती से आय थी वह
रू0 4-5 हजार प्रतिवर्ष थी। श्री चौबे पालीहाउस की महत्वता व परिणाम को
देखते हुए एक और पालीहाउस बनवाने जा रहे हैं जिससे और अधिक आर्थिक लाभ ले
सकें। वर्तमान समय में कृषि विज्ञान केन्द्र पर कार्यरत सब्जी वैज्ञानिक
डॉ0 ए.के. सिंह के द्वारा अपने कार्य परिणाम के आधार पर पालीहाउसों में
वर्षभर सब्जी उत्पादन करने हेतु एक आर्थिक सब्जी चक्र कलैण्डर तैयार किया
है जिसको सारणी-1 में दर्शाया गया है। जिस कलैण्डर के अनुसार चौबे जी
प्रतिवर्ष औसतन रू0 12000-15000 की शुद्ध बचत करके दैनिक जीवन की
आवश्यकताओं को पूरा कर अपने कृषक परिवेश में भी अपने आप को
खुशहाल महसूस कर रहे हैं। जनपद चम्पावत में वर्ष 2004 के पहले भारत
सरकार, प्रादेशिक सरकार की योजनाओं के अन्तर्गत विभिन्न वर्ग के कृषक
प्रक्षेत्र पर 232 पालीहाउस बनाये गये थे। परन्तु सब्जी उत्पादन का
वैज्ञानिक व तकनीकी ज्ञान न होने के कारण इन पालीहाउसों में किसान भाई लोग
अज्ञानतावश भूसा, पुआल, लकड़ी व घास रखना, पशु बांधना,और कपड़ा
सुखाना आदि घरेलू कार्यों हेतु प्रयोग करते थे। किसी-किसी गाँव में
कोई-कोई किसान भाई खीरा, ककड़ी या लौकी के 1-2 बीज लगा देते थे
जिसकी शाखाऍ पालीहाउस के नीचे एवं ऊपर फैलकर पूरे पालीहाउस को भर लेती
थी और उसमें से थोड़ी बहुत सब्जियॉ कभी कभार खाने भर को पैदा हो जाती थी।
परन्तु सब्जी उत्पादन में क्रान्ति तब प्रारम्भ हुयी जब वर्ष 2005-06 में
कृषि विज्ञान केन्द्र लोहाघाट के द्वारा पालीहाउस खेती तकनीक पर वैज्ञानिक
तकनीकों से परिपूर्ण लगन एवं परिश्रम से लगाए गये पालीहाउस प्रदर्शनों,
प्रशिक्षणों एवं भ्रमण कार्यक्रमों के अन्तर्गत चम्पावत के समस्त
पालीहाउस रखने वाले किसानों को केन्द्र पर बुलाकर तीन दिवसीय आवासीय
प्रशिक्षण दिया गया। जिसमें तकनीक को करके व दिखाकर सिखाया गया,अखबारों एवं
टेलीवीजन के माध्यम से प्रचार किया गया। जिसका परिणाम यह हुआ कि जिन
किसानों के पास पालीहाउस था वह सब्जी पौध, टमाटर, शिमला मिर्च, चप्पन
कद्दू खीरा एव गोभी वर्गीय सब्जियों की खेती पालीहाउसों में करने लगे है
और कम जगह घेरने वाले इन्हीं पालीहाउस से औसतन रू0 8-10 हजार तक वर्तमान
में प्रतिवर्ष कमा रहे हैं। इस सफलता को देखकर असर यह हुआ कि जो भी किसान
इस पालीहाउस खेती को देखा वह इतने प्रभावित हुए कि विभागीय छूट पर अपना
अंशदान 5-6 हजार जमा करके वर्ष 2006-08 के मध्म 260 किसान पालीहाउस बनावाकर
सब्जियों की व्यावसायिक खेती प्रारम्भ कर दिया है। अब इन किसानों के लाभ
को देखकर वर्तमान में लगभग 300 किसानों ने पालीहाउस लेने के लिए अपना छूट
अंशदान (रू0 5-6 हजार) जमा करके विभिन्न जनपदीय विभागों में रजिस्ट्रेशन
करवा चुके हैं। जो सम्भवतः 2008-10 में यह पालीहाउस लग जाएंगे। चम्पावत के
पालीहाउस की सफल कहानी का एक और बिन्दु यह है कि वर्ष 2007 में चम्पावत
जनपद के जिलाधिकारी ने कृषि विज्ञान केन्द, लोहाघाट के प्रक्षेत्र पर लगे
पालीहाउस में सब्जी उत्पादन का सफल प्रदर्शन देखकर इतने प्रभावित हुए
कि चम्पावत जिले के सीमावर्ती गावों में रोजगारपरक खेती विकास के लिए गरीबी
रेखा से नीचे रहने वाले समस्त किसानों के खेतों पर पालीहाउस बनवाने हेतु
काफी मोटी रकम उद्यान विभाग को दी। जिसके द्वारा लगभग 50 पालीहाउस बनवाये
जा सकेगें और इन कृषकों का प्रशिक्षण कृषि विज्ञान केन्द लोहाघाट में
करवाया जायेगा इस प्रकार का उनका आदेश था जिस पर कार्यवाही प्रारम्भ हो गयी
है।
इस प्रकार से आज कृषि विज्ञान केन्द्र,
लोहाघाट के प्रयासों से एवं प्रसार कार्यों से चम्पावत जनपद में जहाँ 2004
तक 232 पालीहाउसों की संख्या थी वही विगत चार सालों में बढ़कर वर्तमान में
कुल पालीहाउसों की संख्या 500 से अधिक हो चुकी है और शुरु में ही 100
पालीहाउसों की संख्या और बढ़ने वाली है। चम्पावत जनपद में पालीहाउसों की
संख्या दिन प्रतिदिन बढ़ती जा रही है। क्योंकि किसानों को इससे आर्थिक
लाभ बगैर नुकसान के मिलने लगा है। इस वर्ष 2008 में मई-अगस्त माह तक
लगातार 90 दिनों तक वर्षा के प्रकोप से सम्पूर्ण सब्जी फसल नष्ट हो गयी थी।
जबकि जिन किसानों के पास पालीहाउस था उनको सब्जियां खाने व बेचने को भरपूर
प्राप्त हुई। पालीहाउस के इस परिणाम को देखकर आस पड़ोस के किसान पालीहाउस
खेती से प्रभावित हो रहे हैं और प्रत्येक किसान ने पालीहाउस बनाने के लिए
प्रयास शुरु कर दिये हैं।
तकनीकी का आर्थिक पहलू, व क्षेत्र में फैलाव
पर्वतीय अंचलों में पालीहाउस त्रिभुजाकर,
प्राकृतिक वातायन वाला बनाया जाता है। जिसकी कुल लागत छूट के बाद 20 हजार
रूपये आती है। इसका 3 हिस्सा संरचना बनाने एवं मजदूरी में खर्च होता है और 1
हिस्सा छाने वाली पालीथीन चादर पर खर्च होता है। सामान्य तौर पर देखा जाय
तो पालीहाउस का लागत-आय खर्च उसके उम्र से आंकलन करके निकाला जाता है तो
प्रतिवर्ष औसत लागत रू0 150-175 प्रति वर्गमीटर के लगभग आती है अर्थात
पालीहाउस में सब्जी उत्पादन को अच्छी प्रकार से किया जाए तो 2-3 वर्ष के
मध्य सम्पूर्ण पाली हाउस की लागत वापस हो जाती है और चौथे वर्ष से
पूर्णतया पालीहाउस लागत मुफ्त हो जाती है। पालीहाउस संरचना लगभग
20-25 वर्षों तक टिकाऊरहती । केवल पालीथीन को कटने, फटने या परदर्शिता को
खत्म होने के बाद ही बदलना पढ़ता है। पालीहाउस की पालीथीन को हर 5-7 वर्ष
के बाद बदलने पर 4500-5000 रूपये का अतिरिक्त खर्च आता है। और इस खर्च को
किसान 1 वर्ष के अन्दर ही सब्जी उत्पादन करके बड़े आसानी से वापस कर लेता
है। पालीहाउस में सब्जियों का उत्पादन सामान्य खेती की तुलना में 3-4 गुना
ज्यादा होता है। परन्तु कभी-कभी ऐसा प्राकृतिक प्रकोप होता है कि पालीहाउस
में शत प्रतिशत सफलता मिलती है परन्तु बाहर की सब्जियों में कुछ भी नहीं
मिलता है। पालीहाउस की सब्जियों का बाजार मूल्य अच्छा प्राप्त होता है।
क्योंकि रंग, रूप, आकार, प्रकार, स्वाद, टिकाऊपन, भण्डारण क्षमता और
परिवहन गुणवत्ता आदि सभी गुणों से सम्पन्न होती है। पालीहाउस तकनीक एक ऐसी
खेती है जो रोजगार को बढ़ावा देने में अत्यधिक सहयोगी बन सकती है। क्योंकि
पालीहाउस बढ़ने से गुणवत्ता युक्त अधिक उत्पादन को बेचने के साथ-साथ
रोजगारों को बढाबा दिया जा सकता है। पर्वतीय अंचलों में जो पालीहाउस
बनाया जाता है वह 10 मी0 लम्बा X 4 मी0 चौड़ा X 2 मी0 ऊॅचाई वाले साइज का
होता है जिसको बनाने व खेती करने में लगने वाली विभिन्न सामग्रीयों जैसे
पालीथीन सीट, खाद, बीज, दवाएं, विपणन हेतु टोकरियॉं, कृषि यन्त्र आदि की
आवश्यकता होगी और इसको बनाने वाले समस्त इन्हीं किसानों के बेटे मिस्त्री
निकलेंगे और सामग्रीयों को बेचेंगे तो पालीहाउस खेती स्वतः
रोजगार परख खेती होती जायेगी।