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Friday, 6 November 2015
फसल उत्पादन
गेंहू की सुरक्षा
खरपतवार नियंत्रण
संकरी पट्टी वाले खरपतवारों जैसे गेहूँसा व जंगली जई की रोकथाम के लिए आई सोप्रोटयूरान (75 फीसदी) की 1 किलोग्राम या पैंदीमैथिलीन (30 फीसदी) की 3.3 लीटर या फिनाक्सिप्राप (10 ईसी) की 1 लीटर मात्रा प्रति हेक्टेयर की दर से पहली सिंचाई के 1 हफ्ते बाद (बोआई के 30 से 35 दिनों के अंदर) 1000 लीटर पानी में घोल कर इस्तेमाल करना चाहिए|
जहाँ चौड़ी पत्ती वाले व संकरी पत्ती वाले यानीं दोनों तरह के खरपतवार हों, वहाँ 2-4 डी और आइसोप्रोटयूरान मिलकर प्रयोग करें| पैंडीमैथिलिन का प्रयोग बोआई के बाद लेकिन जमाव से पहले करें|
बीज शोधन
गेहूं की फसल में दुर्गन्धयुक्त कंदूवा, करनाल बंट, अनावृत कंडूआ और गेहूं रोगों का प्रारंभिक संक्रमण बीज या भूमि या दोनों के माध्यम से होआ है| रोग कारक फफूंदी, जीवाणू व सूत्रकृमि बीज की सतह पर, सतह के नीचे या बीज के अंदर प्रसूप्तावस्था में मौजूद रहते हैं| इसलिए बीज उत्पादन के लिए शोधन किए उपचारित बीज ही इस्तेमाल करने चाहिए| यदि उपचारित बीज की उपलब्धता न हो, तो निम्न प्रकार से बीजोपचार कर के ही बोआई करें-करनाल बंट दूषित बीज और जमीन से फैलता है| इस की रोकथाम के लिए ढाई ग्राम थीरम प्रति किलोग्राम बीज की दर से इस्तेमाल करें|
अनावृत कंडूआ रोग में बालियों में दानों के स्थान पर काला चूर्ण बन जाता है और बाद में रोग जनक के तमाम बीजाणु (काला चूर्ण) हवा में फैलते हैं और स्वस्थ बालियों में फूल आते समय उन का संक्रमण करतें हैं| इस की रोकथाम के लिए कर्बडाजिम (50 फीसदी) या कार्बाक्सिन (75 फीसदी) की ढाई ग्राम मात्रा प्रति किलोग्राम बीज दर की दर से ले कर बीज को शोधित कर के बोआई करनी चाहिए|
बीमार पौधों को देखते ही सावधानी से उखाड़ने के बाद जला कर खत्म कर देना चाहिए| मई जून के महीनों में कड़ी धुप वाले दिन में बीजों को 4 घंटे ठंडे पानी में भिगो कर पक्के फर्श पर अच्छी तरह सुखा कर अगले साल बोने के लिए भंडारित कर लेना चाहिए|
गेहूं का ईयर कौकिल रोग (सेंहू रोग) ‘एग्विना ट्रिटीसाई’ नामक सूत्रकृमि द्वारा होता है| इस रोग से पौधों की पत्तियों मूड़ कर सिकुड़ जाती हैं| इस रोग से पौधों की पत्तियाँ मुड़ कर सिकुड़ जाती हैं| इस के असर वाले पौधे छोटे रह जाते हैं और उन में स्वस्थ पौधों के मुकाबले ज्यादा टहनियां निकलती हैं| रोगग्रस्त बालियाँ ज्यादा टहनियां निकलती हैं| रोगग्रस्त गलियां छोटी और फैली हुई होती हैं और इन में दानों की जगह भूरे या काले रंग की गांठे बन जाती हैं, जिन में सूत्रकृमि रहते हैं| इस रोग की रोकथाम के लिए ईयर कौकिल गांठमुक्त बीज का इस्तेमाल करें| ईयर कौकिल गांठ मिश्रित बीज को कुछ समय के लिए 2 फीसदी नमक के घोल में डूबोएँ (200 ग्राम नमक को 10 लीटर पानी में मिलाकर) ताकि सूत्रकृमि ग्रसित काली गांठे हल्की होने को निकाल कर खत्म कर दें| बीज को साफ पानी से 2-3 बार धो कर सुखा लेने के बाद ही बोआई में प्रयोग करें|
भूमि शोधन
सरसों की खेती: कम लागत, उपज भरपूर, लाभ मिलने का अवसर भी
लखनऊ। कुछ दिनों पहले किसानों को सूखे की मार झेलनी पड़ी थी। अब वे धान की फसल के खराब होने से दिक्कत में हैं। वजह, बरसात नहीं हुई। सरकारीतंत्र भी इतना लापरवाह है कि नहरें सूखी गई। किसानों के खेतों की फसलों को नहरों से सिंचाई के लिए मिलने वाले पानी के रूप में संजीवनी नहीं मिल सकी। अब या तो फसल सूख चुकी है या फिर उनमें बालियां ही नहीं है।
किसान धान की फसल न होने के मलाल को थोड़ा कम कर सकते हैं। हुई हानि की भरपाई की भी कुछ हद तक हो जाएगी, वह भी थोड़ी सी सिंचाई में। किसानों को समय से सरसों की खेती करनी होगी। आइए जानें इसके लिए जरूरी कदम क्या हो सकते हैं?
यह भी जानें
कृषि वैज्ञानिक डाॅ. संजय कुमार द्विवेदी की मानें तो सरसों रबी के तिलहन की फसल है। सीमित सिंचाई में भी इसकी भरपूर पैदावार होती है। फूल आने से पहले और दाना भरने के दौरान हल्की सिंचाई करें। समय से बुआई, संतुलित उर्वरक के प्रयोग और रोग नियंत्रण कर, इस फसल से एक हेक्टेअर में 25 से 30 कुंतल उत्पादन ले सकते हैं।
मध्य अक्टूबर की खेती अधिक लाभकारी
अगैती बुआई (मध्य अक्टूबर) लाभकारी है। ऐसा करने से फसल को क्षति पहुंचाने वाले माहू कीट के प्रकोप की संभावना कम होती है। प्रति हेक्टेअर 5-6 किग्रा बीज पर्याप्त है। बुआई के पूर्व बीजशोधन करें। एक किग्रा बीज को 2.5 ग्राम थीरम और 1.5 ग्राम मैटालिक्स से शोधित करें। सफेद गेरुई तथा तुलसिता रोग नहीं होगा।
ऐसे करें खेत की तैयारी
2-3 सामान्य जुताई करें। रोटावेटर की एक जुताई में भी खेत तैयार हो जाएगा। नमी जांचे और अगर नमी कम है तो पलेवा लगाने के बाद बुवाई करें। बेहतर जमाव होगा। मिट्टी जांच के बाद उर्वरकों का प्रयोग करें। इससे अनावश्यक दी जाने वो उर्वरकों से बचा जा सकेगा। लागत भी कम होगी।
क्या हो उर्वरक की मात्रा
सामान्य तौर पर एक हेक्टेअर के लिए 120 किग्रा नाइट्रोजन और 40-40 किग्रा पोटाश व फास्फेट पर्याप्त है। फास्फोरस का प्रयोग सिंगल सुपर फास्फेट (एसएसपी) के रूप में बेहतर होगा। बेहतर उपज के लिए एक हेक्टेअर में 40 किग्रा गंधक अलग से डालें। लेकिन यह तक करें जब एसएसपी का प्रयोग न किया गया हो। नाइट्रोजन की आधी और अन्य उर्वरकों की पूरी मात्रा खेत की अंतिम तैयारी के समय डालें। शेष नाइट्रोजन माह भर बाद होने वाली पहली सिंचाई में दें।
उन्नत प्रजातियां
नरेंद्र राई, कांती, उर्वशी, माया, वैभव, आशीर्वाद, वरुणा या टी 59, बसंती, रोहिणी, वरदान, कृष्णा व पूसा बोल्ड प्रमुख प्रजातियां हैं। कुछ निजी कंपनियों के बीज भी बेहतर उपज देने वाली बताई जा रहीं हैं।
बेहतर बाजार भाव मिलने की उम्मीद
पिछले सीजन में बेमौसम बारिश और ओले से फसल खराब हुई है। इस वजह से तक सात महीने के भीतर सरसों तेल के दाम में तकरीबन 45 फीसदी की उछाल आई है। ऐसे में उन किसानों को लाभ मिलने की ज्यादा संभावनाएं हैं जिनकी फसल पहले तैयार हागी।
समस्या – समाधान
समस्या- क्या खड़ी फसल में डीएपी का उपयोग कर सकते हैं।
– माणकचंद मोदी, सारंगपुर
समाधान-
1. डीएपी का पूरा नाम डाई अमोनियम फास्फेट है इससे पौधों को दो महत्वपूर्ण तत्व अमोनियम से नत्रजन तथा फास्फेट से फास्फोरस मिलता है।
2. किसी भी खाद में जिसमें फास्फोरस रहता है को खड़ी फसल में नहीं देना चाहिए।
3. फास्फोरस मिट्टी के संपर्क में आने पर मिट्टी के कणों में स्थिर हो जाता है। इसकी पानी में घुलनशीलता कम होने के कारण यह देर से तथा धीरे-धीरे घुलता है। इस कारण यह पौधों को देर से उपलब्ध हो पाता है। इस कारण खड़ी फसल में फास्फोरस वाली खाद नहीं दी जानी चाहिए।
4. फास्फोरस वाली खाद का उपयोग आधार खाद के रूप में बीज बोने के पूर्ण या समय पर करना चाहिए। यदि यह खाद बीज के नीचे दी जाये तो वह पौधों को सरलता से उपलब्ध हो जाती है।

समस्या- कपास में मिलीबग का नियंत्रण कैसे करें।
– भागवत सिंह हाड़ा, होशंगाबाद
समाधान-
कपास में मिलीबग का प्रकोप प्रतिवर्ष बढ़ता चला जा रहा है। मिलीबग के शरीर का ऊपरी भाग मोम के पदार्थ से ढका रहता है। जिस कारण सामान्य तरीके से छिड़काव करने से इसका उचित नियंत्रण नहीं मिल पाता है। कई कीटों के नियंत्रण के लिये कीटनाशक के चुनाव से छिड़कने का समय व छिड़कने का तरीका अधिक महत्वपूर्ण रहता है। इन कीटों में मिलीबग भी सम्मिलित है।
द्य नियंत्रण के लिये स्पर्श कीटनाशक जैसे ट्राइजोफॉस का उपयोग करें।
द्य आपने देखा होगा कि जैसे ही हम छिड़काव आरंभ करते है। इसके शिशु नीचे गिर जाते हंै। और कुछ समय बाद फिर से रेंग कर पौधों में चढ़ जाते हैं।
द्य इसके उचित नियंत्रण के लिये पहले ऐेसे पौधों में छिड़काव करें जिनमें मिलीबग का प्रकोप कम हो। फिर भूमि पर छिड़काव करें अंत में जहां मिलीबग समूह में हो वहां छिड़काव करें। इससे शिशु जो जमीन में गिरकर फिर पौधों में रेंग कर चढ़ जाते हंै उनका भी नियंत्रण हो जायेगा।

समस्या- धान लगाई है वर्षा जल के अतिरेक से क्या हानि हो सकती है कृपया बतायें उचित जल प्रबंधन से और क्या हो सकता है।
– घनश्याम दास, बालाघाट
समाधान -
वैसे तो इस वर्ष की वर्षा से फसलों को हानि पहुंची है परंतु अन्य फसलों की तुलना में धान को कम हानि होने की संभावनाओं से इंकार नहीं किया जा सकता है क्योंकि धान की फसल को सतत जल की आवश्यकता रहती है हर फसलों में उचित जल प्रबंधन से पौधों की बढ़वार अच्छी होती है। धान की फसल में जल प्रबंध करके रसचूसक कीट जैसे भूरा माहो, हरा माहो, सफेद माहो एवं गंगई का नियंत्रण सरलता से किया जा सकता है। जल की उपलब्धता होने पर 5-7 दिन के अंतर से 1 या 2 बार पानी खोलने से उक्त कीटों के अंडे खेत के बाहर हो जाते हंै और प्रारंभिक आक्रमण पर अंकुश लगाया जा सकता है। अन्य फसलों में नालियां बना कर अतिरिक्त जल का निथार बहुत जरूरी होगा।

समस्या – मिर्च में माहो का प्रकोप हो गया है नियंत्रण के उपाय बतायें।
– रणवीर सिंह, भिंड
समाधान-
माहो अनेकों फसलों पर कोमल पत्तों का रसचूसकर बहुत हानि पहुंचाता है। रस चूसने के दौरान एक प्रकार का मीठा रस पत्तियों पर गिरता है। जिस पर हवा में उपलब्ध सूटीमोल्ड पनपने लगती है और दोहरा नुकसान करती है। आप निम्न उपाय करें-
1. कीट प्रकोप की प्रारंभिक अवस्था में नीमतेल 3 ग्राम प्रति लीटर पानी में घोल बनाकर छिड़काव करें।
2. अधिक प्रकोप दिखने पर डायमिथियेट 30 ई.सी. की 2 मि.ली. मात्रा प्रति लीटर पानी में घोल बनाकर 10 दिनों के अंतर से दो छिड़काव करें। अथवा एफीसेट 1 ग्राम प्रति लीटर पानी में घोल बनाकर 10 दिनों के अंतर से दो छिड़काव करें। अथवा एसीडाक्लोप्रिड 18.5 एस.एल. 5 मि.ली. प्रति लीटर पानी में घोल बनाकर एक छिड़काव करें।

समस्या- कृषि कार्य हेतु यांत्रिकी संबंधित जानकारी जिसमें अनुदान के बारे में विशेष रूप से उल्लेख हो ऐसी किताब कहां मिलेगी।
– एस.आर. नागौर, इंदौर
समाधान-
आप कृषि यंत्र तथा उनके क्रम के बारे में संपूर्ण जानकारी की किताब चाहते हैं। यदि आप हमारे कृषक जगत के सदस्य हो तो आपके पास कृषक जगत द्वारा प्रकाशित डायरी होगी उसमें अन्य विभागों के अलावा कृषि यंत्रों और अनुदान की भी जानकारी दी गई है। आप कृषक जगत भोपाल के पते पर रु. 25/- का मनीआर्डर कर किसानों को दी जाने वाली सुविधाएं मंगा सकते हैं।
– माणकचंद मोदी, सारंगपुर
समाधान-
1. डीएपी का पूरा नाम डाई अमोनियम फास्फेट है इससे पौधों को दो महत्वपूर्ण तत्व अमोनियम से नत्रजन तथा फास्फेट से फास्फोरस मिलता है।
2. किसी भी खाद में जिसमें फास्फोरस रहता है को खड़ी फसल में नहीं देना चाहिए।
3. फास्फोरस मिट्टी के संपर्क में आने पर मिट्टी के कणों में स्थिर हो जाता है। इसकी पानी में घुलनशीलता कम होने के कारण यह देर से तथा धीरे-धीरे घुलता है। इस कारण यह पौधों को देर से उपलब्ध हो पाता है। इस कारण खड़ी फसल में फास्फोरस वाली खाद नहीं दी जानी चाहिए।
4. फास्फोरस वाली खाद का उपयोग आधार खाद के रूप में बीज बोने के पूर्ण या समय पर करना चाहिए। यदि यह खाद बीज के नीचे दी जाये तो वह पौधों को सरलता से उपलब्ध हो जाती है।

समस्या- कपास में मिलीबग का नियंत्रण कैसे करें।
– भागवत सिंह हाड़ा, होशंगाबाद
समाधान-
कपास में मिलीबग का प्रकोप प्रतिवर्ष बढ़ता चला जा रहा है। मिलीबग के शरीर का ऊपरी भाग मोम के पदार्थ से ढका रहता है। जिस कारण सामान्य तरीके से छिड़काव करने से इसका उचित नियंत्रण नहीं मिल पाता है। कई कीटों के नियंत्रण के लिये कीटनाशक के चुनाव से छिड़कने का समय व छिड़कने का तरीका अधिक महत्वपूर्ण रहता है। इन कीटों में मिलीबग भी सम्मिलित है।
द्य नियंत्रण के लिये स्पर्श कीटनाशक जैसे ट्राइजोफॉस का उपयोग करें।
द्य आपने देखा होगा कि जैसे ही हम छिड़काव आरंभ करते है। इसके शिशु नीचे गिर जाते हंै। और कुछ समय बाद फिर से रेंग कर पौधों में चढ़ जाते हैं।
द्य इसके उचित नियंत्रण के लिये पहले ऐेसे पौधों में छिड़काव करें जिनमें मिलीबग का प्रकोप कम हो। फिर भूमि पर छिड़काव करें अंत में जहां मिलीबग समूह में हो वहां छिड़काव करें। इससे शिशु जो जमीन में गिरकर फिर पौधों में रेंग कर चढ़ जाते हंै उनका भी नियंत्रण हो जायेगा।

समस्या- धान लगाई है वर्षा जल के अतिरेक से क्या हानि हो सकती है कृपया बतायें उचित जल प्रबंधन से और क्या हो सकता है।
– घनश्याम दास, बालाघाट
समाधान -
वैसे तो इस वर्ष की वर्षा से फसलों को हानि पहुंची है परंतु अन्य फसलों की तुलना में धान को कम हानि होने की संभावनाओं से इंकार नहीं किया जा सकता है क्योंकि धान की फसल को सतत जल की आवश्यकता रहती है हर फसलों में उचित जल प्रबंधन से पौधों की बढ़वार अच्छी होती है। धान की फसल में जल प्रबंध करके रसचूसक कीट जैसे भूरा माहो, हरा माहो, सफेद माहो एवं गंगई का नियंत्रण सरलता से किया जा सकता है। जल की उपलब्धता होने पर 5-7 दिन के अंतर से 1 या 2 बार पानी खोलने से उक्त कीटों के अंडे खेत के बाहर हो जाते हंै और प्रारंभिक आक्रमण पर अंकुश लगाया जा सकता है। अन्य फसलों में नालियां बना कर अतिरिक्त जल का निथार बहुत जरूरी होगा।

समस्या – मिर्च में माहो का प्रकोप हो गया है नियंत्रण के उपाय बतायें।
– रणवीर सिंह, भिंड
समाधान-
माहो अनेकों फसलों पर कोमल पत्तों का रसचूसकर बहुत हानि पहुंचाता है। रस चूसने के दौरान एक प्रकार का मीठा रस पत्तियों पर गिरता है। जिस पर हवा में उपलब्ध सूटीमोल्ड पनपने लगती है और दोहरा नुकसान करती है। आप निम्न उपाय करें-
1. कीट प्रकोप की प्रारंभिक अवस्था में नीमतेल 3 ग्राम प्रति लीटर पानी में घोल बनाकर छिड़काव करें।
2. अधिक प्रकोप दिखने पर डायमिथियेट 30 ई.सी. की 2 मि.ली. मात्रा प्रति लीटर पानी में घोल बनाकर 10 दिनों के अंतर से दो छिड़काव करें। अथवा एफीसेट 1 ग्राम प्रति लीटर पानी में घोल बनाकर 10 दिनों के अंतर से दो छिड़काव करें। अथवा एसीडाक्लोप्रिड 18.5 एस.एल. 5 मि.ली. प्रति लीटर पानी में घोल बनाकर एक छिड़काव करें।

समस्या- कृषि कार्य हेतु यांत्रिकी संबंधित जानकारी जिसमें अनुदान के बारे में विशेष रूप से उल्लेख हो ऐसी किताब कहां मिलेगी।
– एस.आर. नागौर, इंदौर
समाधान-
आप कृषि यंत्र तथा उनके क्रम के बारे में संपूर्ण जानकारी की किताब चाहते हैं। यदि आप हमारे कृषक जगत के सदस्य हो तो आपके पास कृषक जगत द्वारा प्रकाशित डायरी होगी उसमें अन्य विभागों के अलावा कृषि यंत्रों और अनुदान की भी जानकारी दी गई है। आप कृषक जगत भोपाल के पते पर रु. 25/- का मनीआर्डर कर किसानों को दी जाने वाली सुविधाएं मंगा सकते हैं।
Monday, 2 November 2015
देशी चिकित्सा प्रणाली
महिला स्वास्थ्य
महिला स्वास्थ्य उसकी पूरी जिंदगी के
दौरान-यौवन से लेकर रजोनिवृत्ति तक बहुत महत्वपूर्ण है। इस पोर्टल के
माध्यम से किशोर बालिका स्वास्थ्य देखभाल, सुरक्षित मातृत्व और अच्छे
प्रजनन स्वास्थ्य की देखभाल आदि से संबंधित महत्वपूर्ण जानकारी प्रदान दी
गई है।
बाल स्वास्थ्य
बच्चों का विकास एक जटिल एवं सतत
प्रक्रिया है। इसी क्रम में यह भाग बाल स्वास्थ्य से जुड़ीं विभिन्न
महत्वपूर्ण जानकारियों को जानने का अवसर देता है।
आयुष
चिकित्सा और होम्योपैथी (भारतीय चिकित्सा
पद्धति एवं होम्योपैथी) विभाग मार्च, 1995 में बनाया। वैकल्पिक चिकित्सा
पद्धति के रुप में अपनी पहचान हासिल कर यह विभाग अपनी उपयोगिता से लोकप्रिय
होते हुए महत्वपूर्ण स्थान बना रहा है।
पोषाहार
जनसंख्या विस्फोट और भोजन की मांग हमेशा
साथ-साथ चलते हैं। यह भाग पोषाहार के विभिन्न पहलुओं पर रोशनी डालते हुए
उनकी स्वस्थ्य जीवन में उपयोगिता बताता है।
बीमारियां-लक्षण एवं उपाय
पारंपरिक बीमारियों के अलावा लोगों की
कार्यशैली और उनके आस-पास के पर्यावरणों में आ रहे परिवर्तनों से अनेक नवीन
बीमारियों के लक्षण चिकित्सकों के लिए चिंता के विषय हैं। यह भाग पारंपरिक
बीमारियों के साथ अनेक नवीन बीमारियों के कारकों को स्पष्ट कर जागरुकता
लाने का प्रयास करता है।
स्वच्छता और स्वास्थ्य विज्ञान
स्वच्छता की एक समग्र परिभाषा में स्वच्छ
पेयजल, तरल और ठोस अपशिष्ट प्रबंधन, पर्यावरण और व्यक्तिगत स्वच्छता आदि
को शामिल किया जाता है जिसका समुदाय/परिवारके स्वास्थ्य अथवा व्यक्ति पर
सीधा प्रभाव पड़ सकता है। इस भाग में इसकी जानकारी दी गयी है।
मानसिक स्वास्थ्य
विश्व स्वास्थ्य संगठन ने मानसिक स्वास्थ्य को परिभाषित करते हुए कहा है कि एक व्यक्ति जो अपने या अपनी खुद की क्षमताओं को पहचानता है वह सामान्य जिंदगी के तनाव का अच्छी तरह से सामना कर सकता है। यह भाग मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ीं विभिन्न महत्वपूर्ण जानकारियों को जानने का अवसर देता है।स्वास्थ्य योजनाएं
12 अप्रैल, 2005 में शुरू किये गए राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन में महिलाओं सहित बच्चों के स्वास्थ्य में सुधार, वंचित समूहों की स्वास्थ्य जरूरतों को पूरा करना और सार्वजनिक स्वास्थ्य को मजबूत और सक्षम बनाने के साथ कुशल स्वास्थ्य सेवा वितरण बढ़ाना आदि लक्ष्य निर्धारित हैं। यह भाग इससे जुड़ीं महत्वपूर्ण जानकारियों को जानने का अवसर देता है।देशी चिकित्सा प्रणाली
लोगों को देशी चिकित्सा प्रणाली के उपयोग पर महत्वपूर्ण जानकारी के प्रसार की जरूरत है। आयुर्वेद, योग, प्राकृतिक चिकित्सा, यूनानी, सिद्ध और होम्योपैथी (आयुष) से संबंधित उपयोगी जानकारी, संसाधन सामग्री और उसके उपयोग को बढ़ावा देने के लिए भारतीय विकास प्रवेशद्वार अपनी सूचनाओं और बहुउपयोगी उत्पादों के माध्यम से अपना महत्वपूर्ण योगदान देने में प्रयासरत है।प्राथमिक चिकित्सा
प्राथमिक चिकित्सा तात्कालिक और अस्थायी
देखभाल अथवा दुर्घटना या अचानक बीमारी का शिकार होने की स्थिति में एक
प्रशिक्षित चिकित्सक की सेवाएं प्राप्त करने से पहले दी जाती है। इसी क्रम में यह भाग प्राथमिक चिकित्सा से जुड़ीं जानकारियों को प्रस्तुत कर जागरुकता लाने का प्रयास करता है।
जहाँ महिलाओं के लिए डॉक्टर न हो
यह
भाग उन स्थितियों से जुड़ीं सभी जानकारियों को देता है जिनमें महिलाओं के
लिए किसी डॉक्टर की सुविधा उपलब्ध नहीं हो पाती है। महिलाओं के जीवन में
आने वाली इन स्वास्थ्य समस्याओं का उल्लेख एवं उनके उपाय प्रशिक्षित लोगों
द्वारा दिए गए हैं।
जीवनशैली के विकार : भारतीय परिदृश्य
आधुनिक विज्ञान ने उन्नत स्वच्छता,
टीकाकरण और एंटीबायोटिक्स तथा चिकित्सकीय सुविधाओं के माध्यम से अनेक
संक्रामक बीमारियों से सामान्यत: होने वाले मृत्यु के खतरे को कम कर दिया
है। इसी क्रम में यह भाग इस से जुड़ीं विभिन्न महत्वपूर्ण जानकारियों को जानने का अवसर देता है।
कृषि की नवीनतम अवधारणाएँ
पोली हाउस की अवधारणा
पोली हाउस खेती में ऑफ सीजन के फूल,
सब्जियां उगाई जाती हैं। यह प्रतिकूल मौसम परिस्थितियों में भी सब्जी
नर्सरी के उत्पादन में उपयोगी है। फसलों का चुनाव पाली हाउस संरचना, बाजार
की मांग के साथ ही उम्मीद की बाजार कीमत के आकार पर निर्भर करता है।
यह वर्ष के किसी भी भाग के दौरान
पर्यावरण की दृष्टि से नियंत्रित पोली हाउस में किसी भी सब्जी की फसल को
उठाने के लिए सुविधाजनक है, वहीं फसलों का चयन साधारण कम लागत वाली पॉली
हाउस के मामले में अधिक महत्वपूर्ण है। ककड़ी, लौकी, शिमला मिर्च और टमाटर
कम लागत वाली पॉली हाउस में सर्दियों के दौरान काफी लाभकारी पैदावार दे
सकती है। उचित वेंटीलेशन गोभी के साथ, उष्णकटिबंधीय फूलगोभी और धनिया की
जल्दी किस्मों सफलतापूर्वक भी गर्मी / बरसात के मौसम के दौरान पैदा किया जा
सकता है।
जरबेरा, कारनेशन, गुलाब, अन्थूरियम आदि फूलों को फसलों की तरह भी पाली हाउस में ले जाया जाता है।
संरक्षित खेती शुरू करने के प्रमुख बिन्दु
अगर आप इस क्षेत्र में नए हैं, तो फसलों
की पाली हाउस खेती के क्षेत्र में प्रवेश करने से पहले प्रशिक्षण प्राप्त
करें। आप के पास पाली घरों से जानकारी के लिए जाएँ। अपने क्षेत्र में
प्रशिक्षण संबंधी जानकारी के लिए आप तहसील की कृषि अधिकारी या नजदीकी कृषि
विज्ञान केन्द्र या कृषि विश्वविद्यालय के लिए संपर्क कर सकते हैं।
पोली हाउस:गाज़ियाबाद (उत्तर प्रदेश ) का उदाहरण
पोली हाउस की मदद से फसलों को अनुकूलित
वातावरण देने में मिली सफलता से अब यहां के किसानों को नई दिशा मिली है।
सरकार के प्रोत्साहन से सिंभावली, हापुड़ ब्लॉक और आसपास के 25 से 30
किसानों का रुझान पोली हाउस की तरफ बढ़ा है। जिले में 10 साल पहले शुरू हुई
इस व्यवस्था का ही नतीजा है कि अब यहां के किसान बड़े स्तर पर सब्जी और
फूलों की खेती करने लगे हैं। बताया जाता है कि पोली हाउस के माध्यम से यहां
के किसान सालाना 150 करोड़ रुपये का बिजनेस करने लगे हैं।
राष्ट्रीय बागवानी मिशन के माध्यम से
पोली हाउसों को बढ़ावा देने के लिए यूपी सरकार ने एक योजना चलाई है। पोली
हाउसों के माध्यम से खेती करने वाले किसानों की आर्थिक दशा तेजी से बदल रही
है। यहां के दो दर्जन से अधिक किसान सब्जी और फूल का उत्पादन कर रहे हैं।
किसानों ने इस साल दिखाई दिलचस्पी
जिला उद्यान अधिकारी एन. के. सहानिया ने
बताया कि सरकार पोली हाउस बनाने वाले किसानों को उस पर आने वाली कीमत का
लगभग 47 प्रतिशत राशि अनुदान के रूप में देती है। 53 प्रतिशत राशि किसान को
अपने पास से लगाना पड़ता है। इस साल 10 किसानों को पोली हाउस बनाने के लिए
आर्थिक मदद देने का टारगेट रखा था लेकिन इससे ज्यादा किसानों ने इस योजना
में अपनी दिलचस्पी दिखाई। किसानों की ओर से विभाग के पास 16 प्रस्ताव आए
हैं। इनमें से 10 लोगों को अनुदान राशि दी जा चुकी है। छह किसानों का
प्रस्ताव शासन को भेजा गया है। शासन से मंजूरी मिलते ही उन लोगों को भी
अनुदान राशि दी जाएगी।
छोटे किसान भी पोली हाउस बना सकते हैं।
अधिकतर पोली हाउस सिंभावली और हापुड़
ब्लॉक में हैं। अधिकतर किासनों ने 1000 वर्ग मीटर में पोली हाउस लगाने की
पहल की है। इतने एरिया में पोली हाउस बनाने में लगभग 10 लाख रुपये का खर्च
आता है। किसानों को प्रति पोली फार्म 4.67 लाख रुपये का अनुदान दिया जा
चुका है। उनका कहना है कि किसान छोटे साइज का भी पोली फार्म बना सकते हैं।
उनको उस पर जो लागत आएगी उसका लगभग 47 प्रतिशत अनुदान दिया जाएगा। किसान
500 वर्ग मीटर तक का भी पोली हाउस बना सकता है। पोली फार्मों को अनुदान की
यह योजना यूपी में 2005 से है। लेकिन पहले गिने चुने लोग इसके लिए आगे आते
थे। अब किसानों का रुझान इधर बढ़ा है। पिछले साल छह किसानों ने पोली फार्म
बनाया।
स्टील का स्ट्रक्चर देता है मजबूती
पोली फार्म का स्ट्रक्चर स्टील का होता
है और प्लास्टिक की सीट से ऊपर का हिस्सा ढका होता है। एक बार स्ट्रक्चर बन
जाने पर पोली फार्म कम से कम 10 साल तक काम करता है। तेज हवा चलने पर
प्लास्टिक सीट दो तीन साल पर बदलनी पड़ सकती है। हालांकि इस पर बहुत कम आता
है। एन. के. सहानिया का कहना है कि जिन किसानों ने पोली फार्म बनाया है वे
उस पर आने वाली लागत को पहले साल में ही निकाल लिए हैं। पोली फार्मों से
तेज धूप और तेज बरसात से फूल व सब्जी के पौधों का बचाव होता है। इसके साथ
ही इन फसलों के लिए अनुकूल वातावरण तैयार होता है। कुल 51 एजेंसियां पोली
फार्म तैयार करती हैं जो सरकारी की सूचि में शामिल हैं।
बेमौसम सब्जी और रंग-बिरंगे फूल
पोली फार्म वाले किसान साल में लगभग तीन
करोड़ का फूल बेच रहे हैं। वे जो फूल उगा रहे हैं उनमें
गेंदा,जरबेर,गुलदाउदी, रजनीगंधा आदि हैं। किसान बेमौसम सब्जी भी उगा रहे
हैं। यही वजह है कि किसान मार्केट में सब्जी की अच्छी कीमत पा रहे हैं।
यहां के किसान पोली फार्म में शिमला मिर्च लाल और पीली दोनों किस्म की पैदा
कर रहे हैं। रंगीन शिमला मिर्च हरी शिमला मिर्च के मुकाबले अधिक कीमत पर
बिक रही है।
पोली हाउस:हरियाणा सरकार की पहल
17 करोड़ की लागत से लगभग 100 एकड़ जमीन में लगने वाले पोली हाउस लगाने के लिए किसानों को अनुदान दिया गया।
हरियाणा सरकार की ओर से किसानों की
आर्थिक स्थिति में सुधार लाने के लिए उन्हें पोली हाउस में संरक्षित खेती
करने के लिए प्रेरित किया जा रहा है। पोली हाउस के माध्यम से की गई खेती
अन्य खेती से कईं गुणा पैदावार लेकर किसान समृद्ध हो रहे हैं। करनाल जिले
में करीब 17 करोड़ की लागत से लगभग 100 एकड़ जमीन में लगने वाले पोली हाउस
लगाने के लिए किसानों को अनुदान दिया गया है।
हरियाणा सरकार प्रदेश के किसानों को
आधुनिक खेती की ओर प्रेरित कर रही है, ताकि घटती जोत में अधिक आय हो सके,
इसके लिए पोली हाउस के माध्यम से की जाने वाली सरंक्षित खेती ही एक सशक्त
माध्यम है। किसानों को पोली हाउस लगाने के लिए हरियाणा सरकार द्वारा 65
प्रतिशत अनुदान भी दिया जा रहा है। इससे प्रेरित होकर किसानों का पोली हाउस
में खेती करने का रूझान बढ़ा भी है। करनाल जिले में सैंकडों एकड भूमि में
पोली हाउस लगाए गए हैं।
सरकार का उददेश्य है कि अधिक से अधिक
किसान सरकार की इस अनुदान राशि का लाभ प्राप्त करके पोली हाउस के माध्यम से
खेती करें। इसके लिए नाबार्ड द्वारा पिछले दिनों घरौंडा में राष्ट्रीयकृत
बैंकों के प्रतिनिधियों की बैठक भी बुलाई गई थी, जिसमें निर्णय लिया गया कि
कईं किसान पोली हाउस के माध्यम से खेती तो करना चाहते हैं, परन्तु हरियाणा
सरकार के 65 प्रतिशत अनुदान के बाद भी वे शेष 35 प्रतिशत धन अर्जित करने
में असमर्थ हैं। इसके लिए सहकारी बैंकों व पैक्स बैंकों के साथ-साथ कुछ
राष्ट्रीय बैंकों से सम्पर्क किया जा रहा है कि वे किसानों को पोली हाउस
लगाने के लिए ऋण दें। इससे न सिर्फ किसानों को फायदा होगा बल्कि बैंकों का
व्यापार भी बढ़ेगा।
जब से करनाल जिला के घरौंडा में
इंडो-इजराईल के सहयोग से सब्जी उत्कृष्टता केन्द्र की स्थापना हुई है तब से
किसानों का रूझान संरक्षित खेती की ओर बढ़ा है। इससे वे कम जमीन में पोली
हाउस लगाकर अधिक लाभ कमा सकते हैं। पोली हाउस के माध्यम से की गई खेती
कीटनाशक होती है, वहीं इसमें दवाईयों का छिड़काव नहीं होता, जिसके कारण
मार्किट में इसकी लागत अधिक होती है और इसका रेट भी अधिक मिलता है। किसानों
की सुविधा के लिए घरौंडा के सब्जी उत्कृष्टता केन्द्र में करीब 30 लाख
सब्जी की पौध तैयार की गई, जो कि अनुदान पर किसानों को दी जाती है। किसानों
को इस केन्द्र के माध्यम से पोली हाउस में खेती करने के बारे में
प्रशिक्षित किया जाता है और समय-समय पर लोगों को प्रशिक्षण के लिए यहां
आमंत्रित किया जाता है। इसके माध्यम से प्रदेश के ही नहीं बल्कि देश-प्रदेश
के अन्य राज्यों के लोग यहां से प्रशिक्षण लेकर पोली हाउस के माध्यम से
संरक्षित खेती कर रहे हैं।
किसान पोली हाउस के माध्यम से खेती करना
चाहता है, उसे हरियाणा सरकार की योजना के अनुसार जिला बागवानी विभाग के
कार्यालय से अनुदान दिया जाता है। पिछले 3 सालों में अब तक करनाल जिले में
करीब 100 एकड़ जमीन पर संरक्षित खेती करने के लिए पोली हाउस, नेट हाउस आदि
के लिए सरकार की तरफ से 65 प्रतिशत प्रति एकड़ अनुदान दिया गया । अब तक
जिले के सैंकड़ों किसान इसका लाभ उठा चुके हैं और इस योजना के तहत करीब 17
करोड़ रुपए अनुदान के रूप में दिए जा चुके हैं।
पालीहाउस में वर्ष भर सब्जी उत्पादन पर सफल कहानी
नई तकनीक की आवश्यकता

सर्वे के अनुसार यह पाया गया है कि आज भी पर्वतीय अंचल के प्रत्येक घर में रोज हरी सब्जी नहीं खायी जाती है और न ही उगाई जाती है। कुछ लोग तो अच्छी सब्जियों को देख तक नहीं पाते हैं खाने की क्या बात करेंगे। लेकिन सवाल यह उठता है कि कब तक पर्वतीय अंचलों के लोग ऐसे रहेंगे। इसका जिम्मेदार कौन है और क्या किया जाए कि लोग पलायन छोड़कर यहां रूकें और व्यावसायिक खेती करके उत्पादन एवं रोजगार को बढ़ाकर अपनी पोषण सुरक्षा भी करें।
अब प्रश्न यह उठता है कि पर्वतीय अंचलों में उपरोक्त वर्णित प्राकृतिक एवं जैविक आपदाओं से कैसे बचा जाये, सब्जी उत्पादन को कम से कम क्षेत्र में कैसे बढ़ावा दिया जाए। तो प्रश्न का सही जवाब यह होगा कि पालीहाउस खेती को अपनाया जाय। क्योंकि पालीहाउस एक विशेष प्रकार की घरनुमा बनी संरचना होती है। जो किसी भी प्रकार की आपदाओं में फसलों को अपने अन्दर संरक्षित करके प्रति इकाई क्षेत्र उत्पादन एवं उत्पादकता को कम समय में बढ़ा देती है। जिसको 200 माइक्रान मोटाई वाली पारदर्शी एवं पराबैंगनी किरणों से प्रतिरोधी पालीथीन चादर से छाया जाता है इसलिए इसे पालीहाउस कहते हैं। यह बॉस, लकड़ी, पत्थर, लोहे के एंगल एवं जी0आई0 पाइपों के सहयोग से बनाया जा सकता है। जिसके अन्दर भू-परिष्करण क्रियाओं को करके सब्जियों को उगाया जाता है।
पर्वतीय अंचलों में पालीहाउस की आवश्यकता इसलिए महसूस हुई क्योंकि-
1. पाली हाउस एक संरक्षित खेती है।
2. इसके अन्दर लगी सब्जियों को जैविक एवं प्राकृतिक झंझावतों से होने वाले नुकसान को बचाया जा सकता है।
3. पालीहाउस प्रति इकाई क्षेत्र उत्पादन, उत्पादकता एवं गुणवत्ता को बढ़ा देता है।
4. वर्ष भर उत्पादन को बढ़ावा देता है।
5. अगेती एवं बेमौसमी सब्जी उत्पादन किया जा सकता है।
6. पालीहाउस खेती एक रोजगार परख खेती है।
7. इसके माध्यम से सब्जी उत्पादन का क्षेत्रफल बढ़ता है और अन्य कृषि संसाधनों का विकास होता है।
सफलता का पूर्ण विवरण-कृषक की पूर्व आर्थिकी, भूमि एवं अन्य उपलब्ध संसाधन
पालीहाउस तकनीक की सफल कहानी का विस्तृत
विवरण वर्ष 2005 के पहले का है। चम्पावत जनपद के लोहाघाट ब्लाक के
सुई-डुंगरी नामक ग्राम पंचायत में रहने वाले श्री रमेश चन्द्र चौबे जिनके
पास 4-5 नाली अर्थात लगभग 1000 वर्ग मीटर खेती योग्य भूमि थी। लेकिन यह
जमीन आपसी अलगाव के कारण जगह-जगह बिखरी हुयी थी। चौबे जी खेती के नवीनतम
तकनीकों से अनजान होने कारण रूढ़ीवादी खेती किया करते थे जिससे उनको
थोड़ा बहुत अनाज मिल जाता था परन्तु खाने भर को पर्याप्त नहीं होता था।
चौबेजी को सब्जियों को उगाने का ज्ञान बहुत कम था। इस कारण से उन्होंने
थोड़ा बहुत पहाड़ी सब्जियॉ जैसे राई, राजमा ककड़ी,मूली आदि को परम्परागत विधि
से उगाया करते थे। जिससे बहुत कम आमदनी होती थी। चौबे जी फौज से सेवानिवृत
हैं और उनके पास 6 सदस्यों के परिवार के खर्च का भार है। बच्चों को पढ़ाने
लिखाने व उनकी आवश्यकताओं को पूरा करने तक के लिए पेंशन से प्राप्त रू0
3600/- पूरा नहीं पड़ता था। फण्ड इत्यादि जो मिला था वह घर बनवाने एवं
बच्चों की शादी में खर्च कर चुके थे। थोड़ा बहुत पैसे यदि किसी तरह कहीं से
बचत करते थे तो वह दैनिक जीवन के खान-पान एवं स्वास्थ्य सुरक्षा में
खत्म हो जाता था। इसलिए चौबे जी बहुत परेशान रहा करते थे। और सोचते रहते थे
कि कैसे क्या किया जाए जिससे प्रतिदिन साग सब्जी एवं खाने पर आने वाला
खर्च अपनी इस खेती से निकल जाए। चौबे जी ने समय-समय पर कृषि व उद्यान विभाग
के माध्यम से चल रहीयोजनाओं से भी सहयोग लिया। परन्तु उन्हें विभागों से
कृषि निवेश तो मिलजाता था। लेकिन वैज्ञानिक एवं तकनीकी ज्ञान, प्रदर्शन एवं
प्रशिक्षण का अभाव उनको खेती से भरपूर सफलता नहीं लेने देता था। क्योंकि
जनपद के विभागों एवं कृषि विज्ञान केन्द्र में बहुत लम्बे समय से कोई
अनुभवी सब्जी वैज्ञानिक एवं पालीहाउस खेती की जानकारी रखने वाला कोई भी
वैज्ञानिक नहीं था। जिसकी वजह से न अच्छी ट्रेनिंग हो पा रही थी और न ही
तकनीक का सफल प्रदर्शन हो पा रहा था। जिस कारण से चौबे जी ही नहीं
बल्कि समस्त किसान पालीहाउस खेती व सब्जी उत्पादन से अनभिज्ञ थे।
सफलता प्रयास से सम्बन्धित घटित विभिन्न घटनाएं एवं अनुभव
पालीहाउस खेती की सफलता की कहानी जनपद
चम्पावत में इस प्रकार प्रारम्भ हुई जब जनवरी 2005 में कृषि विज्ञान
केन्द्र, लोहाघाट पर विषय वस्तु विशेषज्ञ उद्यान/सब्जी विज्ञान विषय पर
डॉ0ए0के0सिंह चयनित होकर आये और उन्होंने कृषि विज्ञान केन्द्र की
कार्य प्रणाली के आधार पर अनेक गावों में भ्रमण किया, जनपद के समस्त
सम्बन्धित विभागों के शीर्ष अधिकारियों
एवं प्रसार कर्मचारियों से मिले, किसानों के विचार व समस्याओं को सुना व
समझा। इस कार्य का करने में करीब 4 माह का समय लगा। इस कार्य अनुभव के बाद
डॉ0 ए0के0सिंह को पता लग गया कि यहाँ नवीनतम तकनीकी, वैज्ञानिक ज्ञान व
तरीकों की कमी के साथ-साथ सफल प्रदर्शन देने की आवश्यकता है और पालीहाउस
में सब्जी खेती के प्रदर्शन को दिखाकर समस्त पालीहाउस किसानों को
प्रशिक्षण देने की जरूरत है। डॉ0 सिंह की यह सोच और प्रयास बहुत सफल हुआ
क्योंकि उन्होंनेसर्वप्रथम कृषि विज्ञान केन्द्र, लोहाघाट पर बने दो
पालीहाउस जो खाली पड़े रहते थे और पुराने होने के कारण फट भी गए थे उसको ठीक
करके इसके अन्दर ले आउट इत्यादि को अच्छी तरह ठीक किया और अपने पूर्व में
कार्य अनुभव के आधार पर वैज्ञानिक विधि से टमाटर एवं शिमला मिर्च की खेती
का पालीहाउस पर प्रदर्शनी लगायी। जब प्रदर्शनी सफल हुई तो डॉ0 सिंह ने
कृषि विभाग, उद्यान विभाग,जलागम वविभिन्न गैर 6सरकारी संस्थाओं(एनजीओ) के
संचालकों व अधिकारियों के साथ-साथ मुख्य विकास अधिकारी और जिलाधिकारी से
सम्पर्क करके सभी लोगों को समय-समय पर आमन्त्रित करके प्रदर्शन को दिखाया।
उसके बाद सभी अधिकारी अपने कार्य क्षेत्र से किसानों को ट्रेनिंग व भ्रमण
हेतु कृषि विज्ञान केन्द्र पर भेजना शुरु कर दिया और प्रशिक्षण एवं
प्रदर्शन किसानों को कराये जाने लगे। इसके साथ तकनीकी विकास हेतु
प्रदर्शनों को चित्र सहित मीडिया में प्रचार-प्रसार हेतु निकलवाया गया
जिससे किसान प्रदर्शन को देखने खुद व खुद कृषि विज्ञान केन्द्र में आने
लगे। इन प्रयासों का यह असर हुआ कि रमेश चौबे ने अपने आप एक छोटा सा
पालीहाउस बनवाया और उसमें सब्जी नर्सरी उगायी और फिर उसमें टमाटर, शिमला
मिर्च, चप्पन कद्दू व खीरा की खेती प्रारम्भ की। उसके बाद छोटे पालीहाउस
में अच्छा उत्पादन पाने के बाद चौबे जी ने जनपद चम्पावत में चल रही
ग्राम्या परियोजना के माध्यम से छूट मानदेय(रू0 5000) को देकर एक बड़ा सा
पालीहाउस बनवाया और कृषि विज्ञान केन्द्र के पालीहाउस में हो रही शिमला,
मिर्च, टमाटर, खीरा एवं छप्पन कदृदू की खेती की प्रदर्शन तकनीक को सीखकर
वह स्वयं अपने पालीहाउस में इन्हीं सब्जियों का उत्पादन करना प्रारम्भ
किया। चौबे जी समय-समय पर तकनीकी ज्ञान व प्रजातियों की जानकारी लेने हेतु
कृषि विज्ञान केन्द में प्रति माह आते रहे और प्रशिक्षण भी लेते रहे। जिससे
उनको आज पालीहाउस खेती का भरपूर ज्ञान हो गया है और वह प्रतिवर्ष अपने
पालीहाउस के माध्यम से रू0 12-15 हजार अतिरिक्त कमा रहे हैं और साथ-साथ
पोषण सुरक्षा हेतु सब्जियां भी खा रहे हैं। इसी पैसे से आवश्यक घरेलू खर्च
को पूरा कर रहे हैं।

इस प्रकार से आज कृषि विज्ञान केन्द्र,
लोहाघाट के प्रयासों से एवं प्रसार कार्यों से चम्पावत जनपद में जहाँ 2004
तक 232 पालीहाउसों की संख्या थी वही विगत चार सालों में बढ़कर वर्तमान में
कुल पालीहाउसों की संख्या 500 से अधिक हो चुकी है और शुरु में ही 100
पालीहाउसों की संख्या और बढ़ने वाली है। चम्पावत जनपद में पालीहाउसों की
संख्या दिन प्रतिदिन बढ़ती जा रही है। क्योंकि किसानों को इससे आर्थिक
लाभ बगैर नुकसान के मिलने लगा है। इस वर्ष 2008 में मई-अगस्त माह तक
लगातार 90 दिनों तक वर्षा के प्रकोप से सम्पूर्ण सब्जी फसल नष्ट हो गयी थी।
जबकि जिन किसानों के पास पालीहाउस था उनको सब्जियां खाने व बेचने को भरपूर
प्राप्त हुई। पालीहाउस के इस परिणाम को देखकर आस पड़ोस के किसान पालीहाउस
खेती से प्रभावित हो रहे हैं और प्रत्येक किसान ने पालीहाउस बनाने के लिए
प्रयास शुरु कर दिये हैं।
तकनीकी का आर्थिक पहलू, व क्षेत्र में फैलाव
पर्वतीय अंचलों में पालीहाउस त्रिभुजाकर,
प्राकृतिक वातायन वाला बनाया जाता है। जिसकी कुल लागत छूट के बाद 20 हजार
रूपये आती है। इसका 3 हिस्सा संरचना बनाने एवं मजदूरी में खर्च होता है और 1
हिस्सा छाने वाली पालीथीन चादर पर खर्च होता है। सामान्य तौर पर देखा जाय
तो पालीहाउस का लागत-आय खर्च उसके उम्र से आंकलन करके निकाला जाता है तो
प्रतिवर्ष औसत लागत रू0 150-175 प्रति वर्गमीटर के लगभग आती है अर्थात
पालीहाउस में सब्जी उत्पादन को अच्छी प्रकार से किया जाए तो 2-3 वर्ष के
मध्य सम्पूर्ण पाली हाउस की लागत वापस हो जाती है और चौथे वर्ष से
पूर्णतया पालीहाउस लागत मुफ्त हो जाती है। पालीहाउस संरचना लगभग
20-25 वर्षों तक टिकाऊरहती । केवल पालीथीन को कटने, फटने या परदर्शिता को
खत्म होने के बाद ही बदलना पढ़ता है। पालीहाउस की पालीथीन को हर 5-7 वर्ष
के बाद बदलने पर 4500-5000 रूपये का अतिरिक्त खर्च आता है। और इस खर्च को
किसान 1 वर्ष के अन्दर ही सब्जी उत्पादन करके बड़े आसानी से वापस कर लेता
है। पालीहाउस में सब्जियों का उत्पादन सामान्य खेती की तुलना में 3-4 गुना
ज्यादा होता है। परन्तु कभी-कभी ऐसा प्राकृतिक प्रकोप होता है कि पालीहाउस
में शत प्रतिशत सफलता मिलती है परन्तु बाहर की सब्जियों में कुछ भी नहीं
मिलता है। पालीहाउस की सब्जियों का बाजार मूल्य अच्छा प्राप्त होता है।
क्योंकि रंग, रूप, आकार, प्रकार, स्वाद, टिकाऊपन, भण्डारण क्षमता और
परिवहन गुणवत्ता आदि सभी गुणों से सम्पन्न होती है। पालीहाउस तकनीक एक ऐसी
खेती है जो रोजगार को बढ़ावा देने में अत्यधिक सहयोगी बन सकती है। क्योंकि
पालीहाउस बढ़ने से गुणवत्ता युक्त अधिक उत्पादन को बेचने के साथ-साथ
रोजगारों को बढाबा दिया जा सकता है। पर्वतीय अंचलों में जो पालीहाउस
बनाया जाता है वह 10 मी0 लम्बा X 4 मी0 चौड़ा X 2 मी0 ऊॅचाई वाले साइज का
होता है जिसको बनाने व खेती करने में लगने वाली विभिन्न सामग्रीयों जैसे
पालीथीन सीट, खाद, बीज, दवाएं, विपणन हेतु टोकरियॉं, कृषि यन्त्र आदि की
आवश्यकता होगी और इसको बनाने वाले समस्त इन्हीं किसानों के बेटे मिस्त्री
निकलेंगे और सामग्रीयों को बेचेंगे तो पालीहाउस खेती स्वतः
रोजगार परख खेती होती जायेगी।
आत्मा
आत्मा उन प्रमुख भागीदारों की संस्था है जो जिला में कृषि के विकास को
स्थायित्व प्रदान करने संबंधी कृषि की गतिविधियों में संलग्न है। यह कृषि
प्रसार एवं अनुसंधान कार्य को एकीकृत रूप से कृषकों के बीच लाने में मददगार
है। यह एक स्वायत्त संस्था है जो जिला में कृषि एवं सम्बद्ध तकनीकी प्रसार
के लिए उत्तरदायी है। यह संस्था सीधे धन राशि प्राप्त करने (राज्य/भारत
सरकार, निजी संस्थान, सदस्यता, लाभार्थी से सहयोग आदि), अनुबंध करार एवं
लेखा अनुरक्षण करने में पूर्व समर्थ होने के साथ ही स्वावलंबन हेतु शुल्क
तथा परिचालन व्यय करने में भी समर्थ है।आत्मा जिले में सभी प्रौद्योगिकी प्रसार गतिविधियों के लिए जिम्मेवार है।
इसका कृषि विकास से जुड़े सभी संस्थाओं, गैर सरकारी संगठनों एवं अभिकरणों
के साथ संबंध है। आत्मा जिले में कार्यरत संस्थाओें जैसे-कृषि विज्ञान
केन्द्र, क्षेत्रीय अनुसंधान केन्द्र, तथा सभी प्रमुख लाइन विभागों जैसे-
कृषि, उद्यान, पशुपालन, मत्स्यपालन, जिला अग्रणी बैंक आदि आत्मा के
संगठनात्मक सदस्य है। इसमें से प्रत्येक विभाग अपनी विभागीय पहचान बनाये
रखेंगें, लेकिन उनके प्रसार एवं अनुसंधान संबंधी गतिविधियों का निर्धारण
आत्मा के शासी परिषद ;ळवअमतदपदह ठवंतकद्ध द्वारा किया जाएगा तथा उनका
क्रियान्वयन आत्मा प्रबन्ध समिति के द्वारा होगा।
लक्ष्य एवं उद्देश्य :-
- क्षेत्र विशेष के संसाधन एवं लोगों की मांग पर आधारित तकनीकी सेवा का विकास करना ।
- कृषि कार्य से सम्बद्ध सभी कृषक अनुसंधान एवं प्रसार कार्यकर्ताओं को सहभागी उद्धेश्यों हेतु जोंड़ना एवं सुदृढ़ करना।
- कृषि प्रबंध व्यवस्था में सबलीकरण हेतु किसान समूहों का निर्माण करना।
- क्षेत्र विशेष की आवश्यकता आधारित कृषि व्यवस्था की पहचान एवं सुदृढ़ीकरण करना।
- योजनाओं का क्रियान्वयन सम्बद्ध विभागों, प्रशिक्षण संस्थानों, स्वयं सेवी संस्थानों, कृषक समूहों आदि द्वारा करना।
- सभी सम्बद्ध विभागों एवं भागदारों के सामंजन द्वारा अनुसंधान-प्रसार कड़ी को सक्षम बनाना।
- कृषि के सर्वांगीण विकास हेतु निजी क्षेत्र की भागीदारी बढ़ाना।
- कृषि क्षेत्र में महिलाओं की भागीदारी बढ़ाना।
- कृषि प्रसार क्षेत्र में सूचना तकनीक एव मिडिया की भूमिका को बढ़ावा देना।
कृषि प्रोद्योगिकी प्रबंध अभिकरण
कृषि प्रोद्योगिकी प्रबंध अभिकरण (Agricultural Technology Management Agency / ATMA / आत्मा) एक स्वायत्त पंजीकृत संस्था है जो भारत के विभिन्न जिलों में कृषि एवं सम्बद्ध तकनीकी प्रसार के लिए उत्तरदायी है। यह संस्था सीधे धन राशि प्राप्त करने (राज्य/भारत सरकार, निजी संस्थान, सदस्यता, लाभार्थी से सहयोग आदि), अनुबंध करार एवं लेखा अनुरक्षण करने में पूर्व समर्थ होने के साथ ही स्वावलंबन हेतु शुल्क तथा परिचालन व्यय करने में भी समर्थ है।
कृषि प्रौद्योगिकी प्रबंध अभिकरण (आत्मा) उन प्रमुख भागीदारी की संस्था है जो जिला स्तर पर कृषि के विकास को स्थायित्व प्रदान करने संबंधी कृषि की गतिविधियों में संलग्न हैं। यह कृषि प्रसार एवं अनुसंधान की गतिविधियों के एकीकरण के साथ ही सार्वजनिक कृषि प्रौद्योगिकी व्यवस्था प्रबंधन के विकेन्द्रीकरण की दिशा में किया जाने वाला एक सार्थक प्रयास है।
आत्मा के कार्यक्रम
1 कृषक प्रशिक्षण कार्यक्रम ।2 अग्रिम पंक्ति प्रत्यक्षण कार्यक्रम ।
3 कृषक वैज्ञानिक मिलन ।
4 किसान मेला का आयोजन ।
5 'कृषक गोष्ठी' एवं 'क्षेत्र दिवस' का आयोजन ।
6 कृषकों की दक्षता-विकास हेतु भ्रमण का आयोजन ।
7 उपयोगी कृषि-साहित्य का प्रकाशन ।
8 कृषक हितार्थी समूहों का गठन एवं क्षमता संबर्घन ।
9 कृषि के सर्वागीण विकास हेतु निजी क्षेत्रों की भागीदारी बढाना ।
10 कृषि क्षेत्र में महिलाओं की भागीदारी को प्रोत्साहन करना ।
11 फार्म स्कूल की स्थापना ।
12 कृषि से संबद्ध सफलता की कहानियों का प्रकाशन एवं प्रसार ।
13 अनुसंधान-प्रसार-कृषक-बाजार कडी के सबलीकरण की दिशा में कदम उठाना ।
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