Thursday, 29 October 2015

खारे पानी में मीठा फल

Feb 15,2009 / जागरण याहू
नई दिल्ली, [रणविजय सिंह]। बीएसएफ के रिटायर्ड कमानडेंट बलजीत सिंह त्यागी ने बंजर भूमि पर फलदार पेड़ लगाने में तीन बार विफल रहने पर भी हिम्मत नहीं हारे। कृषि वैज्ञानिकों से पता चला कि भूमिगत पानी खारा होने से यहा पेड़ नहीं उग सकते। उन्होंने अपनी मेहनत व लगन से डेढ़ लाख लीटर क्षमता के वाटर हार्वेस्टिंग व भूमिगत जल रिचार्ज टैंक से जमीन को मीठे पानी से तर कर दिया। जिससे बाझ जमीन की कोख उर्वरा हो गई। आज उसका आचल चीकू, आवला, जोधपुरी बेर सहित कई मीठे फलों से भर गया है। जबकि इस लगन के पीछे बीएसएफ का स्लोगन ड्यूटी अनटिल डेथ प्रेरणा स्त्रोत रहा। जिसका अर्थ है मौत आने तक कर्तव्य निभाना। रिटायर्ड कमाडेंट बलजीत त्यागी [78] ने बीएसएफ में जान की बाजी लगाकर इस मंत्र का पालन किया था। लेकिन कुछ कर गुजरने के जज्बे के दम पर वाटर हार्वेस्टिंग से बंजर भूमि को उपजाऊ बना दिया। इसके लिए दिल्ली सरकार ने सन् 2007 में उन्हें पुरस्कृत भी किया था।

उन्होंने कहा कि नजफगढ़ स्थित छावला बीएसएफ कैंप के पास की सवा दो एकड़ जमीन पर तीन बार पेड़ लगाया। जो हर बार सूख जाते थे। इसके बाद उन्होंने पूसा व उजवा कृषि विज्ञान केंद्र के वैज्ञानिकों से सलाह ली। वैज्ञानिकों ने बताया कि उक्त जमीन का भूमिगत जल खारा है। समस्या से निबटने के लिए फार्म में बारिश का पानी एकत्र करने के लिए जल संचय टैंक बनाया। जो 11 फुट गहरा, 22 फुट लंबा व 16 फुट चौड़ा है। साथ ही बारिश का पानी बर्बाद न हो इसके लिए भूजल रिचार्ज टैंक भी लगाया। इस जल से सिंचाई कर पौधे लगाए तो वे फलों से लद गए। जिसमें जोधपुरी बेर की तीन किस्में उमरान, गेला व सेब प्रमुख हैं। आम का पेड़ भी लगाया है। उनका सफर इतने पर ही नहीं रुका फिलहाल वे बॉटनिकल गार्डन भी बनवा रहे हैं।

कम पानी में भी अधिक धान की पैदावार

                                                Author: 
मोनिका तिवारी
Source: 
कुरुक्षेत्र, सितम्बर 2015
भारत के किसानों, खासकर पूर्वी और उत्तर-पूर्वी भारत के किसानों की दुनिया भर में जहाँ भी चर्चा होती है, वहाँ यह जरूर बताया जाता है कि वहाँ के किसान मानसून के भरोसे खेती करते हैं। यदि मानसून ने साथ दिया तो भरपूर उपज होती है और किसान खुशहाल होते हैं। जब मानसून ने साथ नहीं दिया तो किसान कंगाली के कगार पर पहुँच जाते हैं। इन सब स्थितियों पर काबू पाने के लिए भारत समेत दुनिया भर की एजेंसियाँ सक्रिय हैं। भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के पटना केन्द्र ने ‘स्वर्ण श्रेया’ धान की नई किस्म विकसित की है। इसमें धान की अन्य प्रचलित किस्मों के मुकाबले 35 से 40 फीसदी कम पानी की जरूरत होती है और धान की उपज में कोई कमी नहीं आती। एक किसान की डायरी का एक-एक पन्ना जरूर पढ़ें।


आजमगढ़ के एक किसान की डायरी


वर्ष 2013 में बाढ़ से तबाह हुई धान की फसल 2014 में सूखे से तबाह होने के कगार पर थी। बीते वर्ष पूँजी लगाकर काफी उम्मीद से धान की खेती की लेकिन बाढ़ ने सब बर्बाद कर दिया। सरकार की तरफ से बाढ़ राहत या फसल बीमा का लाभ भी नहीं मिल सका। इसके बाद हमने फिर कर्ज लेकर रबी फसल की खेती की। लेकिन असमय बरसात ने फसल को चौपट कर दिया। मानसून आने के बाद किसी तरह पैसे का इन्तजाम कर धान की बुवाई की लेकिन उम्मीद से 50 फीसदी कम बारिश होने से यह फसल भी बर्बादी की कगार पर है। समझ में नहीं आता है कि कर्ज का भुगतान करने के लिए जमीन बेचूं या बीबी के गहने।

पंजाब के जोगिन्दर नगर के एक किसान की डायरी


हमारे यहाँ जल स्रोतों में भरपूर पानी होने के बावजूद भी आईपीएच की बड़ी सिंचाई योजनाएँ हाँफ गई हैं जिससे किसानों की मुश्किलें और बढ़ गई हैं। सिंचाई योजनाओं के जलविहीन हो जाने से पैदा हुई सूखे की स्थिति में धान की खेती तबाह होने लगी है। पानी के बिना धान के खेतों में दरारें उभर आई हैं और सिंचाई के पानी को लेकर किसानों में हायतौबा मचने लगी है। पानी के बिना दरारों से अटी हम जैसे सैकड़ों किसानों के खेतों में अब धान की खेती मुरझाने लगी है, तब भी विभागीय स्तर पर नहर की दशा सुधारने की सुध नहीं ली गई। यदि शीघ्र ही सरकार इस पर ध्यान नहीं देती है तो इस साल धान की खड़ी फसल बर्बाद होने में देर नहीं लगेगी। यदि इस साल फसल बर्बाद हो गई तो फिर अपनी सिमरन की धूमधाम से शादी कैसे कर पाऊँगा।

ऊपर वर्णित दो किसानों की डायरी के अंश से पता चलता है कि इन्हें धान की फसल बोने के लिए तो पानी मिला लेकिन बाद में पर्याप्त मात्रा में पानी का इन्तजाम नहीं होने से इनकी धान की खड़ी फसल सूखने लगी और अंततः वही हुआ जोकि किसानों के साथ अक्सर होता है। लेकिन धान की खेती करने वाले ऐसे किसानों को अब परेशान होने की जरूरत नहीं है क्योंकि भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (आईसीएआर) के पटना स्थित पूर्व क्षेत्र के अनुसंधान परिसर में कृषि वैज्ञानिकों ने कम पानी वाले क्षेत्रों के किसानों के लिए धान की नई प्रजाति ‘स्वर्ण श्रेया’ विकसित की है। स्वर्ण श्रेया अन्य प्रजातियों की तुलना में 35 से 40 प्रतिशत कम पानी में भी तैयार हो सकती है।

आईसीएआर पटना के निदेशक डाॅ. बी.पी. भट्ट के मुताबिक केन्द्र के वैज्ञानिकों द्वारा वर्षों के सतत अनुसंधान एवं परिश्रम के परिणामस्वरूप धान की इस किस्म को विकसित किया गया है। और फसल की उपज उतनी ही होती है, जितनी होनी चाहिए। स्वर्ण श्रेया में किसानों को कितनी उपज मिलती है, इस सवाल पर डाॅ. भट्ट का कहना है कि अन्तरराष्ट्रीय चावल अनुसंधान संस्थान की एक विशेष योजना के तहत पटना स्थित केन्द्र का चुनाव स्ट्रेस टोलरेंट राइस फॉर अफ्रीका एंड साउथ एशिया (स्ट्रासा) परियोजना के लिए हुआ। वह बताते हैं कि शुरुआत में कई तरह की किस्मों के साथ परीक्षण हुआ लेकिन बाद में जो स्वर्ण श्रेया के लिए प्रमुख बीज निकल कर आया उसमें से चावल के लम्बे दाने तैयार हुए। देखा गया कि इस धान के पौधों में 85 दिन में फूल आ गए और रोपाई के 120 से 125 दिनों में फसल तैयार हो जाती है। परीक्षण के दौरान देखा गया कि इसके पौधों की ऊँचाई 105 से 110 सेन्टीमीटर की होती है। जब इसके धान को पौधों से निकाल कर देखा गया तो इसमें से 60.2 फीसदी की रिकवरी पाई गई।

आईसीएआर पटना के पादप प्रजनन विभाग में वैज्ञानिक डाॅ. संतोष कुमार के मुताबिक धान की प्रचलित किस्मों की रोपाई से होने वाली धान की खेती में प्रति किलो धान पैदा करने के लिए लगभग 4000-5000 लीटर पानी की आवश्यकता होती है वहीं स्वर्ण श्रेया प्रजाति लगाने से केवल 2500-3000 लीटर पानी की आवश्यकता पड़ती है। धान की यह नई किस्म सूखी सीधी बुआई (एरोबिक परिस्थितियों) के लिए बहुत उपयोगी है। धान की यह नई किस्म कम समय (120-125 दिन) में परिपक्व होने वाली, कम पानी में भी अधिक उपज देने वाली (45-50 क्विंटल/हेक्टेयर), सूखा सहनशील तथा विविध रोगों एवं कीटों के प्रति प्रतिरोधी है। धान की इस नई प्रजाति की सीधी बुवाई जून (10-25 जून के बीच) में 25-30 किलो/हेक्टेयर बीज दर से की जा सकती है एवं महज 120-125 दिनों (अक्टूबर के अन्तिम सप्ताह से नवम्बर के पहले सप्ताह के बीच) कटाई कर सकते हैं। नवम्बर माह के पहले सप्ताह में कटने से गेहूँ की बुवाई भी सही समय पर हो सकती है। अत्यधिक सूखा पड़ने की अवस्था में भी यह प्रजाति किसानों को प्रति हेक्टेयर 25-30 क्विंटल तक उपज देगी। वह बताते हैं कि स्वर्ण श्रेया की खेती से असिंचित एवं कम पानी वाले क्षेत्रों के किसानों को कम लागत, कम मेहनत एवं कम समय में अधिक उत्पादन का लाभ मिलेगा। यह वर्षा आधारित असिंचित क्षेत्रों के साथ-साथ सिंचित क्षेत्रों की उन जगहों के लिए भी उपयोगी है जहाँ पानी की उपलब्धता कम होती है।

डाॅ. भट्ट ने बताया कि स्वर्ण श्रेया के फील्ड ट्रयल में सफल हो जाने के बाद 14 मई, 2015 को बिहार स्टेट सीड सब कमेटी की बैठक में इसे रिलीज कर दिया गया। इसके बाद 26 मई, 2015 को इस बारे में अधिसूचना भी जारी कर दी गई। अधिसूचना जारी होने का अर्थ है कि अब किसान अपने खेतों में इसकी खेती कर सकते हैं। उन्होंने बताया कि चालू मानसून में तो किसान स्वर्ण श्रेया की खेती नहीं कर सकते हैं क्योंकि इसकी बुवाई का समय बीत गया। लेकिन अगले मानसून में इसकी खेती जरूर कर सकते हैं। राज्य के सूखा प्रभावित सभी इलाकों में स्वर्ण श्रेया धान के बीज उपलब्ध हों, इसके लिए इस बार पर्याप्त रकबे में स्वर्ण श्रेया की खेती की गई है।

राँची विश्वविद्यालय में अर्थशास्त्र के प्रोफेसर रहे और अब अवकाश ग्रहण करने के बाद उत्तरी बिहार में फसलों की बदलती प्रवृत्ति पर अनुसंधान कर रहे यदुनंदन तिवारी बताते हैं कि बिहार या पूर्वी उत्तर प्रदेश के धान किसानों की स्थिति पंजाब या हरियाणा के धान किसानों से बिल्कुल अलग है। पंजाब या हरियाणा में किसान बाजार के प्रभाव में आकर धान की खेती तो करने लगे पर उनके लिए यह सिर्फ एक फसल है। यह फसल उनकी खाद्य सुरक्षा का अंग नहीं है। ऐसा इसलिए क्योंकि पंजाब-हरियाणा के लोगों का मुख्य भोजन रोटी है और चावल वे कभी-कभार शौकिया तौर पर खाते हैं। चूँकि इस समय भारत में ही नहीं बल्कि विदेशों में भी बासमती चावल की भारी मांग है इसलिए पंजाब-हरियाणा के किसान इसे उपजाने में लगे हैं। पूर्वी उत्तर प्रदेश, बिहार पश्चिम बंगाल या पूर्वोत्तर के राज्यों में धान की फसल वहाँ के निवासियों की खाद्य सुरक्षा का अंग है। वहाँ के लोग धान इसलिए उपजाते हैं क्योंकि यही उनका रोज का मुख्य खाना है। जब उनके अपने खेत में धान नहीं होगा तो उसे बाहर से चावल खरीद कर खाना होगा। ऐसी अप्रिय स्थिति से बचने के लिए पूर्वी भारत के किसान अपने खेत में कुछ लगाए न लगाए, धान की फसल जरूर लगाते हैं।

यदुनंदन तिवारी बताते हैं कि बिहार के धान के पैदा होने वाले किसी भी इलाके में आप चले जाइए, वहाँ आप नहर या बोरवेल से कम ही सिंचाई होते देखेंगे। अधिकतर किसानों की खेती मानसून पर निर्भर करती है। यदि मानसून ने साथ दिया तो उनके चेहरे पर खुशी होती है और यदि मानसून ने दगा दे दिया तो फिर पूरे साल फाकाकशी के साथ सिर पर हजारों रुपये का कर्ज। ऐसी परिस्थिति में भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के पटना केन्द्र द्वारा खोजी गई धान की नई प्रजाति स्वर्ण श्रेया किसानों के लिए एक तरह से वरदान साबित हो सकती है। इस किस्म में एक और फायदा यह है कि इसकी सीधी (एरेबिक) खेती हो सकती है। इस पद्धति में किसानों की परेशानी कुछ कम हो जाती है।

ऐसा नहीं है कि धान की इस किस्म के खोजे जाने से सिर्फ किसान ही खुश हैं। उद्योग जगत भी आईसीएआर की इस नई खोज से खासा उत्साहित है। देश में उद्योग जगत का सबसे बड़ा संगठन फेडरेशन आॅफ चेम्बर्स आॅफ कामर्स एंड इंडस्ट्री से जुड़े एक कृषि अर्थशास्त्री का कहना है कि स्वर्ण श्रेया के बारे में जो दावा किया गया है, यदि वह सही हुआ तो वाकई में इससे भारतीय खेती का परिदृश्य बदल जाएगा। इसमें परम्परागत किस्म से 40 फीसदी तक कम पानी की खपत होने की बात कही गई है। आज की तारीख में तो पानी ही सबसे महत्त्वपूर्ण हो गया है। धान वैसे भी ज्यादा पानी से तैयार होने वाली फसल है। इसमें कम पानी की जरूरत, मतलब खराब मानसून में भी बंपर फसल की गारंटी। जिन इलाकों में बोरवेल से सिंचाई होती है, वहाँ भी पानी की बचत, सिंचाई का खर्च बचेगा। इसका तत्काल प्रभाव तो यह पड़ेगा कि इससे किसानों में खुशहाली बढ़ेगी और दूरगामी प्रभाव यह पड़ेगा कि देश की अर्थव्यवस्था की विकास दर तेज होगी। उनका कहना है कि जब किसान खुशहाल होंगे तो वह ज्यादा सामान खरीदेंगे और जब ज्यादा सामान बिकेगा तो उद्योग जगत खुश। इस चक्र का अंततः असर देश की अर्थव्यवस्था की विकास दर पर पड़ेगा।

भारतीय उद्योग परिसंघ से जुड़े एक अर्थशास्त्री बताते हैं कि किसानों की खुशहाली से उद्योग जगत का भविष्य काफी हद तक जुड़ा होता है। तभी तो जब मानसून के कम आने या सूखे की खबर प्रसारित होती है तो शेयर बाजार का संवेदी सूचकांक धड़ाम हो जाता है। उनके मुताबिक देश के अधिकतर हिस्से में मानसून के सहारे ही खेती होती है। रही धान की बात तो इसकी खेती अब लगभग पूरे देश में की जाने लगी है। दक्षिण, पूर्वी और पूर्वोत्तर भारत में तो पहले से यह मुख्य फसल है। आईसीएआर के पटना केन्द्र ने जो स्वर्ण श्रेया धान की खोज की है, वह यदि सफल होता है तो यह वास्तव में क्रान्तिकारी होगा क्योंकि किसी न किसी राज्य में कम बारिश का प्रभाव तो झेलना ही होता है। इससे उद्योग जगत को भी राहत मिलेगी क्योंकि ग्रामीण अर्थव्यवस्था जब समृद्ध होगी और उस क्षेत्र से वस्तुओं की मांग निकलती रहेगी। अभी ग्रामीण क्षेत्र इसलिए भी महत्त्वपूर्ण हो गया है क्योंकि कुछ सामानों की तो मांग शहरी इलाकों के मुकाबले ग्रामीण इलाकों में ज्यादा है।

RBI issues direction on implementation of Gold Monetisation Scheme (GMS), 2015

The Reserve Bank of India today issued a Direction to all Scheduled Commercial Banks (excluding Regional Rural Banks) on implementation of the Gold Monetisation Scheme, 2015 notified by the Central Government.
The Scheme
The GMS will replace the existing Gold Deposit Scheme, 1999. However, the deposits outstanding under the Gold Deposit Scheme will be allowed to run till maturity unless the depositors prematurely withdraw them.
Resident Indians (Individuals, HUF, Trusts including Mutual Funds/Exchange Traded Funds registered under SEBI (Mutual Fund) Regulations and Companies) can make deposits under the scheme.
The minimum deposit at any one time shall be raw gold (bars, coins, jewellery excluding stones and other metals) equivalent to 30 grams of gold of 995 fineness. There is no maximum limit for deposit under the scheme. The gold will be accepted at the Collection and Purity Testing Centres (CPTC) certified by Bureau of Indian Standards (BIS) and notified by the Central Government under the Scheme. The deposit certificates will be issued by banks in equivalence of 995 fineness of gold.
The principal and interest of the deposit under the scheme will be denominated in gold.
The designated banks will accept gold deposits under the Short Term (1-3 years) Bank Deposit (STBD) as well as Medium (5-7 years) and Long (12-15 years) Term Government Deposit Schemes. While the former will be accepted by banks on their own account, the latter will be on behalf of Government of India. There will be provision for premature withdrawal subject to a minimum lock-in period and penalty to be determined by individual banks.
Interest on deposits under the scheme will start accruing from the date of conversion of gold deposited into tradable gold bars after refinement or 30 days after the receipt of gold at the CPTC or the bank’s designated branch, as the case may be and whichever is earlier.
During the period from the date of receipt of gold by the CPTC or the designated branch, as the case may be, to the date on which interest starts accruing in the deposit, the gold accepted by the CPTC or the designated branch of the bank shall be treated as an item in safe custody held by the designated bank.
Reserve requirements
The short term bank deposits will attract applicable cash reserve ratio (CRR) and statutory liquidity ratio (SLR). However, the stock of gold held by the banks will count towards the general SLR requirement.
KYC to apply
The opening of gold deposit accounts will be subject to the same rules with regard to customer identification as are applicable to any other deposit account.
Utilisation of gold mobilised under GMS
The designated banks may sell or lend the gold accepted under STBD to MMTC for minting India Gold Coins (IGC) and to jewellers, or sell it to other designated banks participating in GMS. The gold deposited under MLTGD will be auctioned by MMTC or any other agency authorised by the Central Government and the sale proceeds credited to the Central Government’s account with the Reserve Bank. The entities participating in the auction may include the Reserve Bank, MMTC, banks and any other entities notified by the Central Government. Banks may utilise the gold purchased in the auction for purposes indicated above.
Risk Management
Designated banks should put in place a suitable risk management mechanism, including appropriate limits, to manage the risk arising from gold price movements in respect of their net exposure to gold. For this purpose, they have been allowed to access the international exchanges, London Bullion Market Association or make use of over-the-counter contracts to hedge exposures to bullion prices subject to the guidelines issued by the Reserve Bank.
Grievance redress
Complaints against designated banks regarding any discrepancy in issuance of receipts and deposit certificates, redemption of deposits, payment of interest will be handled first by the bank’s grievance redress process and then by the Reserve Bank’s Banking Ombudsman.
It may be recalled that the Government of India announced the Gold Monetisation Scheme vide its Office Memorandum F.No.20/6/2015-FT dated September 15, 2015. The objective of the Scheme is to mobilise gold held by households and institutions of the country and facilitate its use for productive purposes, and in the long run, to reduce country’s reliance on the import of gold. The Reserve Bank has issued the Direction to banks in exercise of powers conferred on it under Section 35 A of the Banking Regulation Act, 1949.
The list of CPTCs and Refiners is under finalization and will be notified by Central Government soon. Indian Banks Association is finalizing the necessary documentation including the tripartite agreements to be entered into by the designated banks, CPTCs and the Refiners under the Scheme. Banks are also putting in place the requisite systems and procedures to implement the scheme. The exact date of implementation will be announced by RBI in the next few days.
Alpana Killawala
Principal Chief General Manager
Press Release : 2015-2016/974

Tuesday, 27 October 2015

ग्रामीण पर्यटन को बढ़ावा देने की तैयारी

गांवों में पर्यटन को बढ़ावा देने के प्रस्ताव को कैबिनेट की मंजूरी मिलने के बाद उत्तर प्रदेश सरकार ने खास पर्यटन स्थलों से जुड़े गांवों में सुविधाओं के विकास पर जोर देना शुरू किया है। ग्रामीण पर्यटन नीति को बीते सप्ताह ही राज्य मंत्रिमंडल ने मंजूरी दी थी। इसी के तहत प्रदेश सरकार ने ग्रामीण पर्यटन प्रबंधन समिति (आरएमटीसी) का गठन किया है, जो इन कार्यों को देखेगी। इसके अध्यक्ष जिलाधिकारी होंगे और हर माह इसकी समीक्षा बैठक होगी। नीति के तहत प्रदेश सरकार 1950 से पहले बने महलों और हवेलियों के पुनरुद्घार के लिए आर्थिक सहायता देगी। इसके तहत 1950 से पूर्व बने महल और हवेलियों को भी पर्यटकों के लिए विकसित किया जाएगा, जिसके तहत उनमें प्रसाधन, पेयजल और भवन के पुनरुद्धार के लिए पांच लाख रुपये की धनराशि उपलब्ध कराई जाएगी।

इसके अंतर्गत अधिकतम चार कक्षों या निजी संग्रहालयों और गैलरी के निर्माण के लिए भी यह धनराशि उपलब्ध कराई जाएगी। तैयार कराई गई इन इकाइयों को पेइंग गेस्ट योजना के तहत पंजीकरण कराना अनिवार्य होगा तथा इन्हें कम से कम पांच वर्षों तक चालू रखना भी अनिवार्य होगा। महानिदेशक पर्यटन अमृत अभिजात के मुताबिक उत्तर प्रदेश सरकार ने प्रदेश के गांवों को करीब से देखने की विदशी पर्यटकों की इस चाहत को ध्यान में रखते हुए ग्रामीण पर्यटन नीति तैयार की है। अभिजात ने बताया कि प्रदेश के ग्रामीण पर्यटन के विकास के लिए मूलभूत अवस्थापना विकास की वृहद योजना तैयार की गई है, जिसके तहत हर वर्ष तीन गांवों का विकास किया जाएगा।

महानिदेशक ने बताया कि ग्रामीण पर्यटन की दृष्टि से राज्य में ऐसे गांवों को चिह्निïत किया जाएगा, जहां पर्यटन की अपार संभावनाएं उपलब्ध हों। इसमें उन गांवों को प्राथमिकता दी जाएगी, जो स्वयं के संसाधनों से युक्त हों, जैसे- सांसद, विधायक निधि, ग्राम विकास योजना से प्राप्त धनराशि से उस गांव का विकास किया गया हो। चयनित गांव के पर्यटन विकास के लिए राज्य सरकार एक करोड़ रुपये देगी। विशेष परिस्थिति में जिलाधिकारी, क्षेत्रीय पर्यटक अधिकारी तथा ग्राम प्रधान की अनुशंसा के आधार पर इस योजना को अधिकतम दो वर्षों में पूरा किया जाएगा। योजना की लागत का अधिकतम 10 प्रतिशत कौशल विकास तथा ग्राम स्तर पर गाइड प्रशिक्षण एवं उपकरणों पर खर्च किया जाएगा।

राष्ट्रीय कृषि और ग्रामीण विकास बैंक

राष्ट्रीय कृषि और ग्रामीण विकास बैंक (नाबार्ड) मुम्बई, महाराष्ट्र अवस्थित भारत का एक शीर्ष बैंक है।[3] इसे "कृषि ऋण से जुड़े क्षेत्रों में, योजना और परिचालन के नीतिगत मामलों में तथा भारत के ग्रामीण अंचल की अन्य आर्थिक गतिविधियों के लिए मान्यता प्रदान की गयी है।

इतिहास

शिवरामन समिति (शिवरामन कमिटी) की सिफारिशों के आधार पर राष्ट्रीय कृषि और ग्रामीण विकास बैंक अधिनियम 1981 को लागू करने के लिए संसद के एक अधिनियम के द्वारा 12 जुलाई 1982, को नाबार्ड की स्थापना की गयी। इसने कृषि ऋण विभाग (एसीडी (ACD) एवं भारतीय रिजर्व बैंक के ग्रामीण योजना और ऋण प्रकोष्ठ (रुरल प्लानिंग एंड क्रेडिट सेल) (आरपीसीसी (RPCC)) तथा कृषि पुनर्वित्त और विकास निगम (एआरडीसी (ARCD)) को प्रतिस्थापित कर अपनी जगह बनाई. यह ग्रामीण क्षेत्रों में ऋण उपलब्ध कराने के लिए प्रमुख एजेंसियों में से एक है।
कृषि, लघु उद्योग, कुटीर एवं ग्रामीण उद्योग, हस्तशिल्प और अन्य ग्रामीण शिल्पों के उन्नयन और विकास के लिए ऋण-प्रवाह सुविधाजनक बनाने के अधिदेश के साथ नाबार्ड 12 जुलाई 1982 को एक शीर्ष विकासात्मक बैंक के रूप में स्थापित किया गया था। उसे ग्रामीण क्षेत्रों में अन्य संबंधित क्रियाकलापों को सहायता प्रदान करने, एकीकृत और सतत ग्रामीण विकास को बढ़ावा देने और ग्रामीण क्षेत्रों में समृद्धि सुनिश्चित करने का भी अधिदेश प्राप्त है।

भूमिका

ग्रामीण समृद्धि के फैसिलिटेटर के रूप में अपनी भूमिका का निर्वाह करने के लिए नाबार्ड को निम्नलिखित जिम्मेदारियाँ सौंपी गई हैं :    
  1. ग्रामीण क्षेत्रों में ऋणदाता संस्थाओं को पुनर्वित्त उपलब्ध कराना
  2. संस्थागत विकास करना या उसे बढ़ावा देना
  3. क्लाइंट बैंकों का मूल्यांकन, निगरानी और निरीक्षण करना.
  4. ग्रामीण क्षेत्रों में विभिन्न विकासात्मक गतिविधियों को बढ़ावा देने के लिए जो संस्थान निवेश और उत्पादन ऋण उपलब्ध कराते हैं उनके वित्तपोषण की एक शीर्ष एजेंसी के रूप में यह कार्य करता है।
  5. ऋण वितरण प्रणाली की अवशोषण क्षमता के लिए संस्थान के निर्माण की दिशा में उपाय करता है, जिसमे निगरानी, पुनर्वास योजनाओं के क्रियान्वयन, ऋण संस्थाओं के पुनर्गठन, कर्मियों के प्रशिक्षण में सुधार, इत्यादि शामिल हैं।
  6. सभी संस्थाएं जो मूलतः जमीनी स्तर पर विकास में लगे काम से जुडी हैं, उनकी ग्रामीण वित्तपोषण की गतिविधियों के साथ समन्वय रखता है, तथा भारत सरकार, राज्य सरकारों, भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई (RBI)) एवं नीति निर्धारण के मामलों से जुडी अन्य राष्ट्रीय स्तर की संस्थाओं के साथ तालमेल बनाए रखता है।
  7. यह अपनी पुनर्वित्त परियोजनाओं की निगरानी एवं मूल्यांकन का उत्तरदायित्व ग्रहण करता है।
नाबार्ड का पुनर्वित्त राज्य सहकारी कृषि और ग्रामीण विकास बैंकों (SCARDBs), राज्य सहकारी बैंकों ((SCBs), क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों (RRBs) बैंकों, वाणिज्यिक बैंकों (सीबीएस (CBS)) और आरबीआई अनुमोदित अन्य वित्तीय संस्थानों के लिए उपलब्ध है। जबकि निवेश ऋण का अंतिम लाभार्थियों में व्यक्तियों, साझेदारी से संबंधित संस्थानों, कंपनियों, राज्य के स्वामित्व वाले निगमों, या सहकारी समितियों को शामिल किया जा सकता है, जबकि आम तौर पर उत्पादन ऋण व्यक्तियों को ही दिया जाता है।
नाबार्ड का अपना मुख्य कार्यालय मुंबई, भारत में है।
नाबार्ड अपने 28 क्षेत्रीय कार्यालय और एक उप कार्यालय, जो सभी राज्यों / केंद्र शासित प्रदेशों की राजधानियों में स्थित हैं, के माध्यम से देश भर में परिचालित है। प्रत्येक क्षेत्रीय कार्यालय [आरओ] में प्रधान कार्यकारी के रूप में एक मुख्य महाप्रबंधक [CGMs] है और प्रधान कार्यालय में कई शीर्ष अधिकारी कार्यकारी होते हैं जैसेकि कार्यकारी निदेशक [ईडी], प्रबंध निर्देशकों [एमडी] और अध्यक्ष.संपूर्ण देश में इसके 336 जिला कार्यालय, पोर्ट ब्लेयर में एक उप-कार्यालय और श्रीनगर में एक सेल है। इसके पास 6 प्रशिक्षण संस्थान भी हैं।
नाबार्ड को इसके 'एसएचजी (SHG) बैंक लिंकेज कार्यक्रम' के लिए भी जाना जाता है जो भारत के बैंकों को स्वावलंबी समूहों (एसएचजीज (SHGs)) उधार देने के लिए प्रोत्साहित करता है। क्योंकि एसएचजीज का गठन विशेषकर गरीब महिलाओं को लेकर किया गया है, इससे यह माइक्रोफाइनांस के लिए महत्वपूर्ण भारतीय उपकरण के रूप में विकसित हो गया है। इस कार्यक्रम के माध्यम से मार्च 2006 तक 33 मिलियन सदस्यों का प्रतिनिधित्व करने वाले 2200000 लाख स्वयं सहायता समूह ऋण से जुड़ चुके थे।[4]
नाबार्ड के पास प्राकृतिक संसाधन प्रबंधन कार्यक्रम का भी एक (विभाग) पोर्टफोलियो है जिसमें के एक समर्पित उद्देश्य के लिए स्थापित कोष के माध्यम से जल संभर विकास, आदिवासी विकास और नवोन्मेषी फार्म जैसे विभिन्न क्षेत्रों को शामिल किया गया है।

ग्रामीण नवोन्मेष

भारत में ग्रामीण विकास के क्षेत्र में नाबार्ड की भूमिका अभूतपूर्व है।[5] कृषि, कुटीर उद्योग और ग्रामीण उद्योगों के विकास के लिए ऋण प्रवाह को सुविधाजनक बनाने और विकास को बढ़ावा देने के अधिदेश के साथ भारत सरकार ने राष्ट्रीय कृषि और ग्रामीण विकास बैंक (नाबार्ड) की स्थापना एक शीर्षस्थ विकास बैंक के रूप में की. नाबार्ड द्वारा कृषिगत गतिविधियों के लिए स्वीकृत ऋण प्रवाह (क्रेडिट फ्लो) 2005-2006 में 1574800 मिलियन रुपए तक पहुंच गया। कुल सकल घरेलू उत्पाद में 8.4 फीसदी की दर से बढ़ने का अनुमान है। आने वाले वर्षों में भारतीय अर्थव्यवस्था अपनी सम्पूर्णता में उच्च विकास दर के लिए प्रस्तुत है। सामान्य रूप से भारत के समग्र विकास में तथा विशिष्टरूप से ग्रामीण एवं कृषि के विकास में नाबार्ड की भूमिका अहम रूप से निर्णायक रही है।
विकास और सहयोग के लिए स्विस एजेंसी की सहायता के माध्यम से, नाबार्ड ने ग्रामीण अवसंरचना विकास निधि की स्थापना की. आरआईडीएफ योजना के तहत 2,44,651 परियोजनाओं के लिए रू. 512830000000 मंजूर दी गई हैं जिसके अंतर्गत सिंचाई, ग्रामीण सड़कों और पुलों के निर्माण, स्वास्थ्य और शिक्षा, मिट्टी का संरक्षण, जल की परियोजनाएं इत्यादि शामिल हैं। ग्रामीण नवोन्मेष कोष एक ऐसा कोष है जिसे इस प्रकार डिजाइन किया गया है जिसमे नवोंमेश का समर्थन, जोखिम के प्रति मित्रवत व्यवहार, इन क्षेत्रों में अपरंपरागत प्रयोग करेगा जिसमे ग्रामीण क्षेत्रों में आजीविका के अवसर और रोजगार को बढ़ावा देने की क्षमता होगी.[6] व्यक्तियों, गैर सरकारी संगठनों, सहकारिता, स्वावलंबी समूहों और पंचायती राज संस्थाओं को सहायता के हाथ बढ़ा दिये गए हैं, जिनमे ग्रामीण क्षेत्रों में जीवन की गुणवत्ता में सुधार लाने की दक्षता और नवोन्मेषी विचारों को लागू करने की इच्छा है। लाख 2 करोर 50 लाख की सदस्यता के जरिये, 600000 सहकारिता संस्थाएं भारत में जमीनी मौलिक स्तर पर लगभग अर्थव्यवस्था के हर क्षेत्र में काम कर रही हैं। स्वसहायता समूहों और अन्य प्रकार के संस्थानों के बीच सहकारी समितियों के साथ संबंध हैं।
आरआईडीएफ के प्रयोजन के लिए व्यावहारिक मतलब के माध्यम से ग्रामीण और कृषि क्षेत्र में नवाचार को बढ़ावा देना है। कार्यक्रम की प्रभावशीलता कई कारकों पर निर्भर करती है, लेकिन जिस संगठन को सहायता दी जाती है गयी है उसके प्रकार, अनुकूलतम व्यावसायिक तरीके से विचारों को क्रियान्वित करने में विशेष रूप से जटिल है। सहकारी संस्था सामाजिक-आर्थिक उद्देश्य के लिए सदस्य प्रेरित औपचारिक संगठन है, जबकि एसएचजी एक अनौपचारिक संस्था है। स्वयंसेवी संस्था सामाजिक रंग में अधिक ढली है, जबकि पंचायती राज राजनीति से जुड़ा है। यह संस्थान क्या कानूनी स्थिति को बरकरार रखते हुए कार्यक्रम की प्रभावशीलता को प्रभावित करती है? कैसे और किस हद तक? गैर सरकारी सहायता संगठनों (एनजीओ (NGO)), स्वसहायता समूहों एसजीएच (SHG) एवं पीआरआई (PRIs) की तुलना में सहकारी संगठन, (कृषि एवं ग्रामीण क्षेत्र) में कार्य करने में (वित्तीय क्षमता एवं प्रभावशीलता) में बेहतर है।[7]
वर्ष 2007-08 में हाल ही में, नाबार्ड ने 'प्राकृतिक संसाधन प्रबंधन के लिए छतरी सुरक्षा कार्यक्रम (यूपीएनआरएम (UPNRM)) के तहत एक नया प्रत्यक्ष ऋण सुविधा शुरू कर दी है। इस सुविधा के अंतर्गत प्राकृतिक संसाधन प्रबंधन गतिविधियों के तहत ब्याज की उचित दर पर ऋण के रूप में वित्तीय समर्थन प्रदान किया जा सकता है। पहले से ही 35 परियोजनाओं को मंजूरी दे दी गयी है जिसमे ऋण की राशि लगभग 1000 मिलियन रूपये तक पहुंच गयी है। स्वीकृत परियोजनाओं के अंतर्गत महाराष्ट्र में आदिवासियों द्वारा शहद-संग्रह, कर्नाटक[8] में पर्यावरण-पर्यटन, एक महिला निर्माता कंपनी ('मसुता (MASUTA)') द्वारा तस्सर मूल्य श्रृंखला (tussar value chain) आदि शामिल हैं।[9][10]

महत्त्वपूर्ण

मुख्यालय मुम्बई, महाराष्ट्र, भारत
स्थापना 12 जुलाई 1982[1]
प्रबंध निर्देशक Dr. Prakash Bakshi[2]
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मुद्रा भारतीय रुपया
आरक्षित भारतीय रुपया81,220 करोड़ (US$16.73 बिलियन) (2007)
जालस्थल Official Website

Friday, 23 October 2015

कृषि का महत्त्व

चित्र:Rice-Harvest.jpgभारत की अर्थव्यवस्था में कृषि का स्थान अत्यन्त ही महत्त्वपूर्ण है। देश के कुल निर्यात व्यापार में कृषि उत्पादित वस्तुओं का प्रतिशत काफ़ी अधिक रहता है। भारत में आवश्यक खाद्यान्न की लगभग सभी पूर्ति कृषि के माध्यम से ही की जाती है। वर्तमान समय में भी एक बहुत बड़ी आबादी को कृषि के माध्यम से रोज़गार प्राप्त है। यह ऐसे में बहुत महत्त्वपूर्ण हो जाता है, जबकि देश में बेरोज़गारी की समस्या दिन-प्रतिदिन बढ़ती ही जा रही है। भारतीय कृषि को 'देश की रीढ़' माना गया है, क्योंकि यही वह उपाय है, जो देश की खुशहाली के लिए अत्यंत आवश्यक है।

महत्त्वपूर्ण तथ्य

देश की उन्नति तथा उसके समग्र विकास के लिए कृषि का महत्त्व कितना अधिक है, इस बात की निम्नलिखित तथ्यों से पुष्टि की जा सकती है-
  1. कृषि उद्योग भारत की अधिकांश जनता को रोज़गार प्रदान करता है। इस देश की 52 प्रतिशत आबादी प्रत्यक्ष रूप से कृषि पर निर्भर है। कृषि उत्पादों को कच्चे माल के रूप में अनेक उद्योगों में प्रयोग करके लाखों व्यक्तियों को रोज़गार प्राप्त होता है। इसके अतिरिक्त परिवहन कम्पनियों को कृषि पदार्थ, जैसे- खाद्यान्न, कपास, जूट, गन्ना, तिलहन आदि, एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाने में भी भारी आय होती है। इस प्रकार भारतीय कृषि देश के निवासियों के लिये जीवन-निर्वाह का सबसे महत्त्वपूर्ण साधन है।
  2. भारत की खाद्यान्न आवश्यकता की लगभग शत-प्रतिशत पूर्ति भारतीय कृषि द्वारा ही की जाती है। इसके अतिरिक्त चीनी, वस्त्र, पटसन, तेल आदि उद्योग प्रायः पूरी तरह भारतीय कृषि पर ही निर्भर करते हैं। क्योंकि इनकी आवश्यकता के कच्चे माल की पूर्ति मुख्यतः घरेलू उत्पादन द्वारा ही होती है। कुछ लम्बे रेशे की रूई तथा पटसन की कमी रहती है, जो विदेशों से प्राप्त की जाती है।
  3. विश्व की सबसे बड़ी कृषि संबंधी अर्थव्यवस्थाओं में से एक भारत में कृषि क्षेत्र का योगदान वर्ष 2008-2009 में सकल घरेलू उत्पाद (2004-2005 की स्थिर कीमतों पर) का 15.7 प्रतिशत रहा, जबकि 2004-2005 में यह 18.9 प्रतिशत था।
  4. भारतीय कृषि मानसून पर निर्भर है। इसी कारण भारतीय कृषि को 'मानसून का जुआ' कहा गया है। यदि मानसून यथा-समय एवं यथेष्ट मात्रा में आ जाता है तो कृषि उत्मादन भी ठीक हो जाता है, जिससे देश में खाद्यान्नों की आवश्यकता की पूर्ति हो जाती है और उद्योंगों को भी यथेष्ट कच्चा माल प्राप्त हो जाता है। ऐसी स्थिति में सरकार अपनी कर व्यवस्था को तदानुसार ही निश्चित कर सकती है।
  5. भारत के कुल निर्यात व्यापार में कृषि वस्तुओं का प्रतिशत काफ़ी रहता है। वर्ष 1960-1961 में कुल 642 करोड़ रुपये का निर्यात हुआ, जिसमें से कृषि वस्तुओं तथा कृषि कच्चे पदार्थों पर आधारित उद्योग का निर्यात 284 करोड़ रुपये था। कृषि एवं सम्बद्ध उत्पादों का निर्यात वर्ष 2008-2009 में बढ़कर 77.783 करोड़ रुपये हो गया, जो देश के कुल निर्यात का 9.1 प्रतिशत है।
  6. भारत में कृषि के महत्व का कारण यह है कि इससे अनेक प्रमुख उद्योगों को कच्चा माल मिलता है। सूती वस्त्र, पटसन, चीनी, वनस्पति आदि उद्योग कृषि पर ही निर्भर हैं।

भारतीय कृषि की समस्याएँ

भारत कृषि प्रधान देश है, परन्तु यहाँ कृषि की दशा सन्तोषजनक नहीं है। कृषि उत्पादन में वृद्धि पूर्व में जनवृद्धि दर से भी कम रही। इसी कारण 1975 तक देश की खाद्य समस्या जटिल बनी रही। निम्न स्तर पर सीमित विकास के बावजूद आज भी भारतीय कृषि परम्परावादी है। भारतीय किसान खेती व्यसाय के रूप में नहीं करता है, बल्कि जीविकोपार्जन के लिये करता है। कृषि की पुरानी परम्परागत विधियों, पूंजी की कमी, भूमि सुधार की अपूर्णता, विपणन एवं वित्त संबंधी कठिनाइयों, आदि के कारण भारतीय कृषि की उत्पादकता अत्यन्त न्यून है। अब नई पीढ़ी में शिक्षा एवं कृषि को कमाई का साधन मानने की प्रर्वति से भी कृषि एवं कृषक की आर्थिक दशा में कुछ सुधार आने लगा है। भारतीय कृषि की प्रमुख निम्न समस्याएँ ऐसी हैं, जिनसे भारतीय कृषि शताब्दियों से पीड़ित है-

भूमि पर जनसंख्या का निरंतर बढ़ता हुआ भार

भारत में जनसंख्या तीव्रगति से बढ़ रही है, जो मार्च 2001 में 102.82 करोड़ को पार कर चुकी है। अतः भूमि पर जनसंख्या का भार निरंतर बढ़ता जा रहा है। जनसंख्या वृद्धि के कारण प्रति व्यक्ति उपलब्ध भूमि का औसत कम होता जा रहा है।
1901 में यह 0.8 हेक्टेयर था, 1931 में 0.72, 1941 में 0.64, 1951 में 0.75, 1961 में 0.30, 1971 में 0.19, 1981 में 0.18 एवं वर्तमान में 0.08 हेक्टेअर हो गया है। विश्व का यह औसत 4.5 हेक्टेअर प्रति व्यक्ति पीछे है। कनाडा 2.12 हेक्टेअर, अर्जेन्टीना में 1.25, रूस में 1.23, संयुक्त राज्य अमेरीका में 0.89 तथा ऑस्ट्रेलिया में 3.39 हेक्टेअर है। पौष्टिक भोजन देने के लिये भारत में यह क्षेत्र बहुत ही कम है। संचित क्षेत्रफल में प्रति हेक्टेअर उत्पादन बढ़ाने के लिये अनेक संकर किस्मों का अधिकारिक प्रयोग किया गया है। 1970-1971 में नईं किस्मों के अन्तर्गत 154 लाख हेक्टेअर भूमि थी, जो बढ़कर 2008-2009 में 839 लाख हेक्टेअर हो गई है।

भूमि का असंतुलित वितरण

एक ओर जनसंख्या का भार भूमि पर बढ़ता जा रहा है, प्रति व्यक्ति खेती योग्य भूमि कम होती जा रही है, दूसरी ओर भूमि का वितरण अत्यन्त असंतुलित है। देश में आज भी किसानो के पास समस्त कृषि भूमि का 62 प्रतिशत है तथा 90 प्रतिशत किसानों के पास कुल कृषि भूमि का केवल 38 प्रतिशत है।

चित्र:Sugarcane.jpgकृषि की न्यून उत्पादकता

1970 तक देश के अधिकांश भागों में औसत उत्पादन स्तर अधिकांश विकसित व कई विकासशील देशों (इण्डोनेशिया, फ़िलिपीन्स, मेक्सिको, ब्राजील, ईसीएम के देश आदि) से भी काफ़ी कम रहा, किन्तु 'हरित क्रान्ति' एवं निरन्तर सरकार द्वारा कृषकों को लाभप्रद मूल्य दिलाने की प्रवृत्ति से कृषक अनेक प्रकार की नई तकनीकि अपनाते रहे हैं। रबी की फ़सल काल में सरसों एवं खरीफ में सोयाबीनमूंगफली का बढ़ता उत्पादन सरकार द्वारा ऊँची कीमतें[1] निर्धारित करने से ही सम्भव हो सका है। आज राजस्थान सरसों एवं तिल, गुजरात मूंगफली एवं मध्य प्रदेश सोयाबीन उत्पादक प्रमुख प्रदेश बन गये हैं।

उत्पादन कम होने के कारण

भाग्यवादी भारतीय किसान

चित्र:Tea-Worker.jpgकृषि उत्पादन संबंधी उसे पर्याप्त अनुभव नहीं हैं, किन्तु अनेक बार शीत लहर, पाला व अनेक बार ओले अथवा सर्दी फ़सल नष्ट कर देते हैं। उसे अपने श्रम का उचित प्रतिफल प्राप्त नहीं हो पाता। अतः वह कृषि को व्यवसाय के रूप में नहीं बल्कि, जीवन-यापन की प्रणाली के रूप में अपनाता है। स्वभवतः वह वांछनीय मात्रा में उत्पादन उपलब्ध नहीं कर सकता। किसान की इसी भाग्यवादी प्रवृत्ति में परिवर्तन करने की एक रीति यह है कि उसे अधिकाधिक शिक्षित करने का प्रयत्न किया जाए। इसके अतिरिक्त प्राकृतिक संकटों का सामना करने के लिये वैज्ञानिक साधनों का प्रयोग करने की चेष्टा करनी चाहिए।

खाद का दुरुपयोग

भारत में पशुओं की संख्या अत्यधिक है और उनके गोबर तथा मूत्र से प्रतिवर्ष 2.89 करोड़ टन खाद प्राप्त की जा सकती है। इसके अतिरिक्त कम्पोस्ट तथा अन्य बेकार वस्तुओं से लगभग 93 लाख टन खाद उपलब्ध हो सकती है। दुर्भाग्य से गोबर का अधिकांश भाग ईंधन के रूप में जला दिया जाता है, क्योंकि ग्रामीण क्षेत्रों में अन्य सस्ते ईंधन का अभाव है। फलतः खेतों को पर्याप्त मात्रा में खाद नहीं मिल पाती, जिससे उत्पादन की स्थिति अच्छी नहीं है।
वर्तमान में कृषि के विकास में रासायनिक उर्वरकों ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। पोषण की दृष्टि से उर्वरकों की प्रति-हेक्टेअर खपत वर्ष 2005-2006 के 10.5 किग्रा. से बढ़कर 2008-2009 में 128.6 किग्रा. हो गई। तथापि, मृदा की सीमांत उत्पादकता अभी भी चुनौती बनी हुई है। इसके लिये मृदा विश्लेषण के आधार पर वर्धित एनपीके के अनुप्रयोग और उचित पोषणों के अनुप्रयोग की आवश्यकता है। अब दस लाख से ऊपर जनसंख्या वाले महानगरों में ठोस अपशिष्टों के निपटान एवं सीवेज अपशिष्ट निपटान के लिए विशेष यान्त्रिक प्रणालियां नगरों की सीमा से दूर विकसित की जा रही हैं। कम्पोस्ट खाद घरेलू गैस, सिंचाई का उपयोगी जल, अन्य उपयोगी पदार्थगैस विभिन्न प्रक्रियांओं द्वारा प्राप्त की जाती हैं। इससे खेतों की उत्पादकता बढ़ने, भू-अपरदन घटने एवं ईंधन की आपूर्ति होने से लकड़ी व वनों पर दबाव भी घटता है।

सिंचाई के साधनों का सीमित विकास

भारतीय कृषि प्रधानतः मानसून पर निर्भर है, क्योंकि आज भी कुल कृषि योग्य भूमि के 41 प्रतिशत में सिंचाई होती है। देश में वृहत और मध्यम सिंचाई योजनाओं के जरिए सिंचाई की पर्याप्त संभवनाओं का सृजन किया गया है। देश में सिंचाई की कुल संभावना वर्ष 1991-1992 के 81.1 मिलियन हेक्टेअर से बढ़कर मार्च 2007 तक 102.77 मिलियन हेक्टेअर हो गई है। मानसून पर इतनी अधिक निर्भरता का प्रभाव यह होता है कि देश के अधिकांश भाग की कृषि प्रकृति की दया पर निर्भर है। दूसरी महत्त्वपूर्ण बात यह है कि जब तक सिंचाई की व्यवस्था नहीं होती, तब तक भूमि में खाद देना भी सम्भव नहीं है, क्योंकि खाद का यथोचित प्रयोग करने के लिये काफ़ी जल चाहिए, अन्यथा सामान्य खेती के सूखने का भी भय रहता है। सिंचाई की यह कमीं कम वर्षा वाले पठारी भागों एवं सारे उत्तर पश्चिमी भारत में विशेष रूप से महसूस की जाती है, क्योंकि औसत वर्षा 100 सेण्टीमीटर से भी कम एवं वर्षा की अनिश्चितता 35 प्रतिशत से भी अधिक रहती है।

बीज

किसानों के लिये उच्च गुणवत्ता वाले बीजों की प्रायः कमी बनी रहती है। फलस्वरूप उसे बाज़ार से सस्ता और घटिया बीज ही उपलब्ध हो पाता है, इससे भी किसानों की आय में कमी आ जाती है। इसके लिये सरकारी मशीनरी की कार्यप्रणाली एवं लालफीताशाही समान रूप से दोषी है। अच्छे तथा सुधरी हुई किस्मों के बीजों का प्रचार सामुदायिक विकास केन्द्रों के माध्यम से किया जाना चाहिए तथा पंचायतों एवं सरकारी सहकारी समितियों के द्वारा बढि़या बीजों की वितरण व्यवस्था को विश्वसनीय एवं सुनिश्चित करना आवश्यक है।

पशुओं की हीनावस्था

भारतीय कृषि में पशुओं का अधिक महत्त्वपूर्ण स्थान रहा है, किन्तु इनकी स्थिति अच्छी नहीं है। इस लिये अब ग्रामीण क्षेत्रों में अब तेजी से किराये के हल, पावर टिलर्स, कुएं पर मोटर पम्प या ट्यूबबेल एवं गहाई के लिये थ्रेसर जैसी गैर पशु आधारित प्रणालियों का उपयोग बढ़ता जा रहा है। आज पशुपालन, मुख्यतः डेयरी उत्पादों, पशु मांस व अन्य पशु उत्पादों के लिए विशेष महत्त्वपूर्ण बनता जा रहा है, क्योंकि पशु को भी तेजी से आर्थिक इकाई माना जाने लगा है।

भूमि की शक्ति का ह्रास

दीर्घ अवधि में निरंतर प्रयोग में आने के कारण भारतीय कृषि भूमि की उत्पादकता का ह्रास हो गया है। अतः भूमि की खोई हुई शक्ति को पुनः प्राप्त करने के लिए उसमें कम्पोस्ट खाद या प्रकृतिक जीवंश से पूर्ण खाद तथा उर्वरक देकर उसकी उपजाउ शक्ति बढ़ाने की चेष्टा की जाए।

भूमि का उपविभाजन एवं उपखण्डन

भारत में 90 प्रतिशत किसानों के पास कुल भूमि का 38 प्रतिशत भाग है। इसका अर्थ यह है कि एक किसान के पास औसत 0.2 हेक्टेअर से भी कम भूमि है। इतना ही नहीं यह भूमि कई टुकड़ों में बटी हुई है। इतने छोटे-छोटे भू-खण्डों पर खेती करना आर्थिक दृष्टि से उपादेय नहीं है। इससे भी कृषि एवं कृषक की दशा हीन रहती है। भूमि के छोटे-छोटे टुकड़ों की समस्या को हल करने के लिये सभी राज्यों में चकबन्दी की योजनाएँ चालू है। इन योजनाओं को भी सफल बनाने में भी पंचायतों एवं सहकारी समितियों का सहयोग प्राप्त करना चाहिए और भूमि के अधिकांश भाग को खेती के लिये लाभदायक बनाने की चेष्टा करनी चाहिए। इस संबंध में सहकारी समितियाँ भूमि की क्षतिपूर्ति के लिये ऋण देकर सहयोग प्रदान कर सकती है।

कृषि साख संस्थाओं की कमी

भारत में कृषि कार्यों के लिए करोड़ों रुपये की साख की आवश्यकता प्रतिवर्ष होती है। कुछ दशक पूर्व तक इसकी पूर्ति महाजन, साहूकार एवं देशी बैंकरो द्वारा की जाती थी, किन्तु अब नियोजित अर्थव्यवस्था के अन्तर्गत कृषि एक प्राथमिकता प्राप्त क्षेत्र घोषित किया जा चुका है। अब देश की बैंकिंग व्यवस्था अपने कुल ऋणों का एक निश्चित प्रतिशत इस क्षेत्र के लिए देने को बाध्य है। इस समय बैंकों द्वारा दिए जाने वाले ऋण का लगभग 41 प्रतिशत प्राथमिकता प्राप्त क्षेत्र को दिया जा रहा है। इसमें कृषि का प्रतिशत 17 है।

कृषि रोग आदि

कभी-कभी फ़सलों की अनेक बीमारियाँ, बाढ़, ओले, पाला, शीतलहर, विभिन्न कीड़े मकोड़े, चूहे व वन्य जीव भी फ़सलों को हानि पहुँचाते रहते हैं। जिससे भूमि का वास्तविक उत्पादन बहुत कम रह जाता है। इन तत्वों को वैज्ञानिक उपकरणें की सहायता से ही नियंत्रित किया जा सकता है।

विक्रय व्यवस्था

भारतीय किसान की एक महत्त्वपूर्ण समस्या यह रही है कि उसे अपना माल मण्डियों में बेचना पड़ता है। ये मण्डियाँ या तो बहुत दूर हैं, जहाँ पहुँचने के लिये यातायात के साधन पर्याप्त नहीं हैं या इनके विक्रय की व्यवस्था ठीक नहीं है। अतः किसान को अपने माल के उचित दाम प्राप्त करने में कठिनाई होती है। इस कठिनाई के कारण ही कभी-कभी तो वह अपना माल ग्राम के साहूकार को ही बेंच देता है, जिससे उसे और भी कम मूल्य प्राप्त होता है।

पंचवर्षीय योजनाओं के अन्तर्गत कृषि विकास

स्वतंत्रता प्राप्ति के उपरांत देश में खाद्यान्न की कमी को दूर करने के लिये कृषि के विकास पर विशेष ध्यान दिया गया। 1966 में हरित क्रान्ति के आगमन से भारत में पारम्परिक कृषि व्यवहारों का प्रतिस्थापन औद्योगिक प्रौद्योगिकी एवं फार्म व्यवहारों से किया जाने लगा। जिससे कृषि की दशा में तेजी से सुधार हुआ। कृषि के क्षेत्र में नवीन तकनीकि को अपनाया गया, उन्नत बीजों का प्रयोग बढ़ा, उर्वरकों एवं कीटनाशकों के प्रयोग में गुणात्मक सुधार आया, कृषि में यंत्रीकरण का प्रयोग बढ़ा, सिंचाई के साधनों में वृद्धि हुई एवं अन्य ढांचागत सुविधाएं बढ़ई गई, आगतों में सब्सिडी दी गई, ऊसर भूमि सुधार कार्यक्रम चलाये गये तथा फ़सल बीमा आदि की सुविधाएँ कृषकों को प्रदान की गईं। इस तरह कृषि में संस्थागत एवं तकनीकि सुधारों के साथ साथ सघन एवं विस्तृत खेती की गई। इन सबका सम्मिलित असर यह हुआ कि देश में खाद्यान्न की उपज, जो 1950-1951 में मात्र 5 करोड़ टन थी, वह 2008-2009 में बढ़कर 21 करोड़ टन हो गई। इसके अतिरिक्त गैर खाद्य फ़सलों एवं व्यवसायिक फ़सलों, यथा- गन्ना, जूट, चाय, कहवा, कपास तथा रबर आदि के उत्पादन में पर्याप्त वृद्धि हुई। इस तरह देश में हुई उत्पादन में वृद्धि योजना काल में कृषि उत्पादन के विभिन्न उपादानों में हुये सतत सुधा का परिणाम रही।

योजनाकाल में कृषि विकास

कृषि पर व्यय

देश में पिछड़ी हुई कृषि को गति प्रदान करने के लिए योजना के आरम्भ से ही विशेष ध्यान दिया जाने लगा। भारत में पहली पंचवर्षीय योजना 1 अप्रैल, 1951 से प्रारम्भ की गई, जिसमें कृषि के विकास को सर्वोच्च वरीयता प्रदान की गई तथा इसके विकास के लिये पूरी योजना पर होने वाले कुल परिव्यय का 37 प्रतिशत रखा गया। दूसरी एवं तीसरी योजना में व्यय में कुछ कमी हुई, परन्तु उसके पश्चात कृषि क्षेत्र के विकास हेतु योजना परिव्यय में वृद्धि होती गई।

विभिन्न फ़सलों के अन्तर्गतत कृषि क्षेत्र का विस्तार

देश में स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात नियोजन काल में कृषि योग्य भूमि का पर्याप्त विस्तार हुआ। 1960-1961 में सभी खाद्यान्नों के अन्तर्गत कृषि का क्षेत्रफल 115.6 मिलियन हेक्टेअर था, जो बढ़कर 2008-2009 में 123.2 मिलियन हेक्टेअर हो गया। उल्लेखनीय है कि देश में गेहूँ, चावल तथा दाल एवं वाणिज्यिक कृषि के क्षेत्रफल में तो वृद्धि होती गई है, जबकि मोटे अनाजों के क्षेत्रफल में क्रमशः कमी आती गई है।

सिंचाई क्षमता का विकास

पंचवर्षीय योजनाओं के अन्तर्गत देश में सिंचाई सुविधाओं का क्रमशः तीव्र गति से विकास किया गया है। प्रथम योजना के प्रारम्भ काल 1950-1951 में देश में कुल सिंचाई क्षमता 223 लाख हेक्टेअर थी, जो बढ़कर दसवीं योजना 2002-2007 के वर्ष 2006-2007 तक 997.3 लाख हेक्टेअर हो गई। इसमें से 86.27 मिलियन हेक्टेअर सिंचाई क्षमता का उपयोग किया जा रहा था। देश में समस्त सिंचाई परियोजनाओं से अन्ततः क्षमता 1,451.7 लाख हेक्टेअर आंकी गई है। अब तक अन्तिम सिंचाई क्षमता का लगभग 81 प्रतिशत भाग प्राप्त कर लिया गया है। दीर्घकालीन उद्देश्य के रूप में इस क्षमता को ग्यारहवी योजना के अन्त तक प्राप्त कर लिये जाने की उम्मीद है।

उर्वरकों का उत्पादन तथा उपयोग

योजनाकाल में देश में रासायनिक उर्वरकों के उत्पादन एवं उपयोग में पर्याप्त वृद्धि हुई। सन 1960-1961 में देश में घरेलू उर्वरकों का उत्पादन मात्र 150 हज़ार टन था, जो बढ़कर 2008-2009 में 14,334 हज़ार टन हो गया। इसी तरह देश में 1960-1961 में कुल उर्वरकों का उपयोग केवल 292 हज़ार टन था, जो बढ़कर 2008-2009 में 24,909 हज़ार टन हो गया। देश में उर्वरकों की प्रति हेक्टेअर खपत वर्ष 2008-2009 में 128.6 किग्रा. रही थी।

अन्तर्राष्ट्रीय तुलना

यद्यपि भारत में उर्वरकों के उपयोग में पर्याप्त वृद्धि हुई है, परन्तु विकसित देशों की तुलना में यह आज भी बहुत कम है। वर्ष 2008-2009 में प्रति हेक्टेअर उर्वरक उपभोग चीन में 279 किग्रा, इण्डोनेशिया में 147 किग्रा, मिस्र में 483 किग्रा, इटली में 204 किग्रा, जापान में 337 किग्रा था, जबकि इसी दौरान भारत में प्रति हेक्टेअर उर्वरक का उपयोग 128.6 किग्रा. रहा।

बीज बैंक

देश में बीज बैंक की स्थापना और अनुरक्षण की एक योजना वर्ष 1999-2000 से प्रचलन में है। इस योजना का मूल उद्देश्य किसी भी आकास्मिक आवश्यकता के समय कृषकों को बीज उपलब्ध कराना तथा बीजों के उत्पादन और वितरण के लिये ढाँचागत सुविधाएं विककित करता है। यह योजना राष्ट्रीय बीज निगम, भारतीय राज्य फार्म निगम और विभिन्न राज्यों के 12 राज्य बीज निगमों के माध्यम से कार्यान्वित की जा रहीं हैं।

कृषि साख

आधुनिक प्रौद्यौगिकी के आधार पर कृषि को विकसित करने के उद्देश्य से देश में बड़ी मात्रा में तथा उचित शर्तों पर कृषकों को संस्थागत साख की सुविधा प्रदान की गई है। 1951-1952 तक देश में कुल कृषि ऋण आवश्यकताओं का लगभग 93 प्रतिशत भाग गैर संस्थागत स्रोतों, साहूकार, महाजन, व्यापारी आदि, तथा शेष 7 प्रतिशत संस्थागत स्रोतों, सहकारी समितियों, सरकार, व्यापारिक बैंके आदि, द्वारा उपलब्ध कराया जाता था। परन्तु आज स्थितियां बदल गई हैं। देश में अब कृषकों का अधिकांश ऋण संस्थागत स्रोतों से ही प्राप्त होता है। गैर संस्थागत स्रोतों का कृषि ऋण में अब अंशदान बहुत कम है। देश में योजनाकाल में संस्थागत अभिकरणों द्वारा दिये गये कृषि ऋणों की मात्रा में पर्याप्त वृद्धि हुई है। 1960-1961 में वित्तीय संस्थाओं द्वारा मात्र 214 करोड़ रुपये का ऋण वितरित किया गया था। जबकि वर्ष 2008-2009 में यह ऋण बढ़कर 2,10,517 करोड़ रुपये हो गया। इसमें सहकारी बैंको का हिस्सा 43,502 करोड़ रुपये, क्षेत्रीय ग्रामीण बैंको का हिस्सा 23,429 करोड़ रुपये तथा वाणिज्यिक बैंकों का हिस्सा 1,43,576 करोड़ रुपये है। इस तरह देश में कृषि को संस्थागत ऋण का प्रवाह सुधारनें के अनवरत प्रयास जारी हैं।

कृषि यन्त्रों का उत्पादन एवं उपयोग

कृषि में मशीनों एवं यन्त्रों के उपयोग से कृषि कार्य उचित समय पर, उचित दक्षता तथा न्यूनतम लागत पर कर पाना सम्भव हो गया है। कृषि क्षेत्र में मुख्यतः ट्रैक्टर, थ्रेसर, हार्वेस्टर, पावर टिलर, पम्पसेट, स्प्रेयर तथा डस्टर उपयोग में लाए जाते हैं। कृषित भूमि के बढ़ते क्षेत्र को उचित गहराई तक जोतने में ट्रैक्ट्ररों की प्रमुख भूमिका होती है। पूर्व में यह कार्य पशु की शक्ति से किये जाते थे, जिससे समय और धन व्यय होता था। ट्रैक्टर भूमि को कृषित करने के अतिरिक्त, माल ढोने तथा अन्य मशीनों, जैसे- थ्रेसर चलाने, कुट्टी काटने, स्प्रेयर चलाने तथा सिंचाई के लिये पम्पसेट चलाने आदि मे भी काम आते हैं। वर्ष 1960 के पूर्व देश में ट्रैक्टर का उत्पादन नहीं होता था। वर्ष 1980-1981 में कुल 71 हज़ार ट्रैक्टरों का उत्पादन हुआ, जिनकी संख्या बढ़कर 2008-2009 में 3.07 लाख हो गई।

कृषिगत उत्पादन

योजनाकाल के दौरान किये गये व्यापक प्रयासों के फलस्वरूप खाद्यान्नों के उत्पादन में लगभग चार गुना वृद्धि हो गई। 1950-1951 में खाद्यान्नों का कुल उत्पादन 51 मिलियन टन था, जो बढ़कर 2008-2009 में 233.9 मिलियन टन हो गया। पंचवर्षीय योजनाओं के प्रारम्भ से लेकर अब तक खाद्यान्नों की उपज में क्रमशः वृद्धि होती गई है।
खाद्यान्नों में चावल और गेहूँ की उपज मे उल्लेखनीय वृद्धि हुई है। दालों और तिलहनों की उपज में पर्याप्त वृद्धि हुई है। तिलहन का उत्पादन 1950-1951 में 57 मिलियन टन था, जो क्रमशः बढ़ते हुए 2008-2009 में 28.2 मिलियन टन हो गया। इसी तरह गन्ना का उत्पादन 1950-1951 में 57 मिलियन टन था, जा बढ़ते-बढ़ते 2008-2009 में 273.9 मिलियन टन तक पहुँच गया। 1950-1951 में सभी कृषि फ़सलों के उत्पादन का सूचकांक 69 था, जो 2003-2004 की कीमतों पर 2008-2009 में बढ़कर 185.6 हो गया।

योजनावार कृषि उत्पादन की वृद्धि दर

योजनावार कृषि उत्पादन की वृद्धि दर पर यदि दृष्टिपात किया जाय, तब यह स्पष्ट होता है कि प्रथम योजना में कृषि उत्पादन की औसत वृद्धि दर 2.9 प्रतिशत, दूसरी योजना में 2.6 प्रतिशत, तीसरी योजना में (-) 1.1 प्रतिशत, चैथी योजना में 9 प्रतिशत, पांचवी योजना में 4.3 प्रतिशत, छठी योजना में 6.0 प्रतिशत, सातवीं योजना में 3.2 प्रतिशत, आठवी योजना में 3.9 प्रतिशत, नौवी योजना में 2.1 प्रतिशत रही। दसवीं योजना (2002-2007) में 2.4 प्रतिशत एवं ग्यारहवीं योजना (2007-2012) के तीसरे वर्ष 2009-2010 में कृषि एवं सम्बद्ध क्षेत्र की वृद्धि पर नकारात्मक रही।

प्रति हेक्टेअर उत्पादन

नियोजन काल में कृषि की नई विकास निधि के फलस्वरूप सभी फ़सलों के उत्पादन में आशातीत वृद्धि हुई है। यह वृद्धि कृषि उत्पादकता में सुधार के कारण हुई। गेहूँ की प्रति हेक्टेअर उत्पादन 1950-1951 में 663 किग्रा. था, जो बढ़कर 2008-2009 में 2,891 किग्रा. हो गया। इसी तरह चावल का उत्पादन 1950-1951 में 668 किग्रा. से बढ़कर 2008-2009 में 2,186 किग्रा. प्रति हेक्टेअर हो गया। दालों का उत्पादन 1950-1951 में 441 किग्रा. प्रति हेक्टेअर से बढ़कर 2008-2009 में 655 किग्रा. प्रति हेक्टेअर हो गया। इसी तरह गन्ने का उत्पादन 1950-1951 में 33 टन प्रति हेक्टेअर से बढ़कर 2008-2009 में 62 टन प्रति हेक्टेअर हो गया, आलू का उत्पादन 7 टन प्रति हेक्टेअर से बढ़कर 2008-2009 में 17 टन प्रति हेक्टेअर हो गया। कपास का उत्पादन 1950-1951 में 88 किग्रा. प्रति हेक्टेअर से बढ़कर 2008-2009 में 419 किग्रा. प्रति हेक्टअर हो गया।
योजनाकाल में खाद्यान्नो तथा व्यावसायिक फ़सलों की उत्पादकता में पर्याप्त वृद्धि हुई है। गन्ना तथा आलू की उत्पादकता में 1950-1951 से 2008-2009 के बीच 1.93 गुने से अधिक की वृद्धि हो गई। गेहूँ में प्रति हेक्टेअर उत्पादन चार गुना बढ़ गया। इसी तरह चावल की उत्पादकता में लगभग तीन गुना से अधिक वृद्धि हो गई। इस दौरान देश में सभी खद्यान्नों का प्रति हेक्टेअर उत्पादन तीन गुने से भी अघिक बढ़ गया।


सजीव खेती ही एकमात्र रास्ता

"मैंने पहले रासायनिक खेती की और बाद में सजीव खेती। वर्ष 1994 तक मैं रासायनिक खेती करता रहा। जिसमें मेरी जमीन की उर्वरक शक्ति गई, भूजल स्तर नीचे गया, देसी बीज खत्म हुए, फसलचक्र बदला और मजदूरों का रोजगार खत्म हुआ। लेकिन जब मेरा इस विनाशक खेती से मोहभंग हुआ और सजीव खेती अपनानी शुरू की तो मेरा जीवन ही बदल गया। इससे धीरे-धीरे भूमि की उर्वरक शक्ति बढ़ी, भूजल स्तर उपर आया और देसी बीज बचे और मजदूरों को रोजगार भी मिला। यानी सजीव खेती सिर्फ फसल उत्पादन की नहीं, समस्त जीव-जगत के पालन का विचार है। यह एक जीवन पद्धति है।" यह कहना है यवतमाल (महाराष्ट्र) जिले के किसान सुभाष शर्मा का।

हाल ही में इन्दौर में 7 से 9 फरवरी तक चले सजीव कृषि समाज मेला में बताया। इस मेले का उद्धाटन मध्यप्रदेश के कृषि मंत्री ने किया था। मेले मंम देश के कई कोनों से आए कृषि वैज्ञानिक, शोधकर्ता, किसान शामिल हुए। इस मेले का आयोजन भारतीय सजीव कृषि समाज (ओ.एफ.ए.आई.), किसान कल्याण एवं कृषि विकास विभाग, मध्यप्रदेश शासन, मध्यप्रदेश विज्ञान-प्रौद्योगिकी परिषद और शासकीय कृषि महाविद्यालय ने मिलकर किया था। इसमें कृषि विशेषज्ञों के अलावा सीधे खेती करने वाले किसानों ने भी अपने-अपने अनुभव साझा किए।

यहां महाराष्ट्र के यवतमाल के छोटी गूंजरी के सजीव खेती करने वाले किसान सुभाष शर्मा ने कहा कि रासायनिक खेती विनाश करने वाली है जबकि सजीव खेती से निर्माण होता है। उन्होंने कहा कि सजीव खेती अपनाने से जमीन की उर्वरा शक्ति बढ़ गई है। गाय के गोबर से जमीन में केंचुओं और जीवाणुओं की संख्या बढ़ी जिन्होंने खेत को उर्वर बनाया। हमने खेत में वनस्पति भी लगाईं जिसकी पत्तियां जैव खाद में बदलीं। पेड़ों में पक्षी आए जिन्होंने फसलों की इल्लियों को खाया। यानी कीट नियंत्रण किया। और उन्होंने जो विश्ष्टा किया उससे जमीन उर्वर हुई। इससे अगले साल फसल में ज्यादा फल्लियां लगी। ज्यादा उत्पादन हुआ।

इसी प्रकार जीवाणुओं के कारण बारिश का पानी खेत में रूकेगा और भूजल स्तर ऊपर आएगा। अगर हमारे पास खुद का बीज होगा तो उसे हम बारिश आने के पहले ही बो देते हैं। यह प्रयोग पिछले 10 साल में सिर्फ एक बार ही फेल हुआ जब बोनी खराब हुई, अन्यथा हर बार सफल रहा। अगर हम खेत में मल्ंचिग करते हैं तो तुअर में फल्लियां ज्यादा लगती हैं। उसकी पत्तियां जैव खाद बनाती हैं। जमीन क्रमशः सुधरती जाती है। इस प्रकार सजीव खेती से मुनाफा भी कमाया। और इसमें हमने मशीन से नहीं, मजदूरों से काम लिया। उनकी क्षमता और ईमानदारी पर भरोसा किया। परिणामस्वरूप मुनाफा क्रमशः बढ़ रहा है। मजदूरों को अब दीपावली पर बोनस भी दिया जाता है।

यह कहानी सिर्फ सुभाष जी की नहीं है, सजीव खेती की ओर अब बहुतेरे किसानों का रूझान बढ़ रहा है।

हमारी खेती का जो नुकसान हजारों वर्षों में नहीं हुआ, उतना हमने पिछले 40 वर्षों में कर लिया। अब हालत यह है कि लागत बढ़ती जा रही है, उपज कम होती जा रही है। हर साल रासायनिक खाद की खपत बढ़ती जा रही है। प्यासे बीजों को पानी पिलाने के लिए बेहिसाब भूजल उलीचा जा रहा है। बिजली संकट बढ़ रहा है। यानी कुल मिलाकर खेती खत्म हो रही है। घाटा का धंधा बन गई है। और भोजन-पानी भी जहरीला हो गया है।

इधर हरित क्रांति की असफलता के समाधान के रूप में जैव तकनीक को सामने लाया जा रहा है, जो हरित क्रांति से भी ज्यादा खतरनाक है। हाल ही बीटी बैंगन का मामला सामने आया है, जिसका काफी विरोध हो रहा है। हमारे यहां बैंगन की हजारों किस्में हैं, फिर जीन परिवर्तित बीटी बैंगन को क्यों लाया जा रहा है, जिसके सुरक्षित होने पर वैज्ञानिकों में मतैक्य है। हालांकि फिलहाल, बीटी बैंगन को व्यावसायिक अनुमति नहीं दी गई है, लेकिन भविश्य में इस पर रोक लगी रहेगी, इस पर अब भी रहस्य बना हुआ है। यह तकनीक मानव स्वास्थ्य और पर्यावरणीय दृष्टि से सुरक्षित नहीं है, यह सवाल उठाया जा रहा है।

इसलिए हमें सजीव खेती की ओर बढ़ना चाहिए। मिट्टी -पानी के संरक्षण करना चाहिए। देसी बीज, हल-बक्खर और गोबर खाद की खेती की ओर बढ़ना चाहिए। कम पानी वाले देसी बीज और जमीन की उर्वरक शक्ति बढ़ाकर कम्पोस्ट खाद के प्रयोग, हरी खाद के माध्यम से किसान असिंचित खेती या सीमित सिंचाई के माध्यम से अच्छा उत्पादन कर सकते हैं। यह सभी दृष्टि से सुरक्षित भी है। पर्यावरणविद् व प्रख्यात लेखक क्लाड अल्वारिस का कहना है कि सभी परंपरागत कृषि पद्धतियों को किसानों ने ही विकसित किया है, वैज्ञानिकों ने नहीं। इसलिए परंपरागत कृषि ज्ञान, पद्धतियों व जैविक खेती की ओर बढ़ना जरूरी है।

इस कार्यक्रम के संयोजक डा. भारतेन्दु प्रकाश का कहना है कि हमें कृषि को जैविक व प्राकृतिक स्वरूप की ओर परंपरागत ज्ञान तथा संसाधनों के संरक्षणात्मक शोध का आधार लेकर लौटाना होगा। किसानों को आत्मनिर्भरता, परस्पर सहयोग तथा शोषणकारी बाजार से मुक्ति के लिए गंभीरता से कार्य करना होगा।

Sunday, 18 October 2015

Wheat is a cereal grain, originally from the Levant region of the Near East

Wheat (Triticum spp.)[1][2] is a cereal grain, originally from the Levant region of the Near East but now cultivated worldwide. In 2013, world production of wheat was 713 million tons, making it the third most-produced cereal after maize (1,016 million tons) and rice (745 million tons).[3] Wheat was the second most-produced cereal in 2009; world production in that year was 682 million tons, after maize (817 million tons), and with rice as a close third (679 million tons).[4]
This grain is grown on more land area than any other commercial food.[citation needed] World trade in wheat is greater than for all other crops combined.[5] Globally, wheat is the leading source of vegetable protein in human food, having a higher protein content than other major cereals, maize (corn) or rice.[6] In terms of total production tonnages used for food, it is currently second to rice as the main human food crop and ahead of maize, after allowing for maize's more extensive use in animal feeds.
Wheat was a key factor enabling the emergence of city-based societies at the start of civilization because it was one of the first crops that could be easily cultivated on a large scale, and had the additional advantage of yielding a harvest that provides long-term storage of food. Wheat contributed to the emergence of city-states in the Asian Fertile Crescent, including the Babylonian and Assyrian empires. Wheat grain is a staple food used to make flour for leavened, flat and steamed breads, biscuits, cookies, cakes, breakfast cereal, pasta, noodles, couscous[7] and for fermentation to make beer,[8] other alcoholic beverages,[9] and biofuel.[10]
There are six wheat classifications: 1) hard red winter, 2) hard red spring, 3) soft red winter, 4) durum (hard), 5) hard white, and 6) soft white wheat.[citation needed] The hard wheats have the most amount of gluten and are used for making bread, rolls and all-purpose flour. The soft wheats are used for making flat bread, cakes, pastries, crackers, muffins, and biscuits. A high percentage of wheat production in the EU is used as animal feed, often surplus to human requirements or low-quality wheat.[11]
Wheat is planted to a limited extent as a forage crop for livestock, although the straw cannot be used as feed.[12] Its straw can be used as a construction material for roofing thatch.[13][14] The whole grain can be milled to leave just the endosperm for white flour. The by-products of this are bran and germ. The whole grain is a concentrated source of vitamins, minerals, and protein, while the refined grain is mostly starch.
Wheat is one of the first cereals known to have been domesticated, and wheat's ability to self-pollinate greatly facilitated the selection of many distinct domesticated varieties. The archaeological record suggests that this first occurred in the regions known as the Fertile Crescent. Recent findings estimate the first domestication of wheat down to a small region of southeastern Turkey,[15] and domesticated Einkorn wheat at Wadi el Jilat in Jordan—has been dated to 7,500-7,300 BCE.[16]

Origin

Cultivation and repeated harvesting and sowing of the grains of wild grasses led to the creation of domestic strains, as mutant forms ('sports') of wheat were preferentially chosen by farmers. In domesticated wheat, grains are larger, and the seeds (inside the spikelets) remain attached to the ear by a toughened rachis during harvesting. In wild strains, a more fragile rachis allows the ear to easily shatter and disperse the spikelets.[17] Selection for these traits by farmers might not have been deliberately intended, but simply have occurred because these traits made gathering the seeds easier; nevertheless such 'incidental' selection was an important part of crop domestication. As the traits that improve wheat as a food source also involve the loss of the plant's natural seed dispersal mechanisms, highly domesticated strains of wheat cannot survive in the wild.
Cultivation of wheat began to spread beyond the Fertile Crescent after about 8000 BCE. Jared Diamond traces the spread of cultivated emmer wheat starting in the Fertile Crescent sometime before 8800 BCE. Archaeological analysis of wild emmer indicates that it was first cultivated in the southern Levant with finds dating back as far as 9600 BCE.[18][19] Genetic analysis of wild einkorn wheat suggests that it was first grown in the Karacadag Mountains in southeastern Turkey. Dated archeological remains of einkorn wheat in settlement sites near this region, including those at Abu Hureyra in Syria, suggest the domestication of einkorn near the Karacadag Mountain Range.[20] With the anomalous exception of two grains from Iraq ed-Dubb, the earliest carbon-14 date for einkorn wheat remains at Abu Hureyra is 7800 to 7500 years BCE.[21]
Remains of harvested emmer from several sites near the Karacadag Range have been dated to between 8600 (at Cayonu) and 8400 BCE (Abu Hureyra), that is, in the Neolithic period. With the exception of Iraq ed-Dubb, the earliest carbon-14 dated remains of domesticated emmer wheat were found in the earliest levels of Tell Aswad, in the Damascus basin, near Mount Hermon in Syria. These remains were dated by Willem van Zeist and his assistant Johanna Bakker-Heeres to 8800 BCE. They also concluded that the settlers of Tell Aswad did not develop this form of emmer themselves, but brought the domesticated grains with them from an as yet unidentified location elsewhere.[22]
The cultivation of emmer reached Greece, Cyprus and India by 6500 BCE, Egypt shortly after 6000 BCE, and Germany and Spain by 5000 BCE.[23] "The early Egyptians were developers of bread and the use of the oven and developed baking into one of the first large-scale food production industries." [24] By 3000 BCE, wheat had reached England and Scandinavia. A millennium later it reached China. The first identifiable bread wheat (Triticum aestivum) with sufficient gluten for yeasted breads has been identified using DNA analysis in samples from a granary dating to approximately 1350 BCE at Assiros in Greek Macedonia.[25]
From Asia, wheat continued to spread throughout Europe. In England, wheat straw (thatch) was used for roofing in the Bronze Age, and was in common use until the late 19th century.[26]

Farming techniques

Technological advances in soil preparation and seed placement at planting time, use of crop rotation and fertilizers to improve plant growth, and advances in harvesting methods have all combined to promote wheat as a viable crop. Agricultural cultivation using horse collar leveraged plows (at about 3000 BCE) was one of the first innovations that increased productivity. Much later, when the use of seed drills replaced broadcasting sowing of seed in the 18th century, another great increase in productivity occurred.
Yields of pure wheat per unit area increased as methods of crop rotation were applied to long cultivated land, and the use of fertilizers became widespread. Improved agricultural husbandry has more recently included threshing machines and reaping machines (the 'combine harvester'), tractor-drawn cultivators and planters, and better varieties (see Green Revolution and Norin 10 wheat). Great expansion of wheat production occurred as new arable land was farmed in the Americas and Australia in the 19th and 20th centuries.

Genetics

Green wheat a month before harvest
Wheat genetics is more complicated than that of most other domesticated species. Some wheat species are diploid, with two sets of chromosomes, but many are stable polyploids, with four sets of chromosomes (tetraploid) or six (hexaploid).[27]
  • Einkorn wheat (T. monococcum) is diploid (AA, two complements of seven chromosomes, 2n=14).[1]
  • Most tetraploid wheats (e.g. emmer and durum wheat) are derived from wild emmer, T. dicoccoides. Wild emmer is itself the result of a hybridization between two diploid wild grasses, T. urartu and a wild goatgrass such as Aegilops searsii or Ae. speltoides. The unknown grass has never been identified among now surviving wild grasses, but the closest living relative is Aegilops speltoides.[citation needed] The hybridization that formed wild emmer (AABB) occurred in the wild, long before domestication,[27] and was driven by natural selection.
  • Hexaploid wheats evolved in farmers' fields. Either domesticated emmer or durum wheat hybridized with yet another wild diploid grass (Aegilops tauschii) to make the hexaploid wheats, spelt wheat and bread wheat.[27] These have three sets of paired chromosomes, three times as many as in diploid wheat.
The presence of certain versions of wheat genes has been important for crop yields. Apart from mutant versions of genes selected in antiquity during domestication, there has been more recent deliberate selection of alleles that affect growth characteristics. Genes for the 'dwarfing' trait, first used by Japanese wheat breeders to produce short-stalked wheat, have had a huge effect on wheat yields world-wide, and were major factors in the success of the Green Revolution in Mexico and Asia, an initiative led by Norman Borlaug. Dwarfing genes enable the carbon that is fixed in the plant during photosynthesis to be diverted towards seed production, and they also help prevent the problem of lodging. 'Lodging' occurs when an ear stalk falls over in the wind and rots on the ground, and heavy nitrogenous fertilization of wheat makes the grass grow taller and become more susceptible to this problem. By 1997, 81% of the developing world's wheat area was planted to semi-dwarf wheats, giving both increased yields and better response to nitrogenous fertilizer.
Wild grasses in the genus Triticum and related genera, and grasses such as rye have been a source of many disease-resistance traits for cultivated wheat breeding since the 1930s.[28]
Heterosis, or hybrid vigor (as in the familiar F1 hybrids of maize), occurs in common (hexaploid) wheat, but it is difficult to produce seed of hybrid cultivars on a commercial scale (as is done with maize) because wheat flowers are perfect and normally self-pollinate. Commercial hybrid wheat seed has been produced using chemical hybridizing agents; these chemicals selectively interfere with pollen development, or naturally occurring cytoplasmic male sterility systems. Hybrid wheat has been a limited commercial success in Europe (particularly France), the USA and South Africa.[29] F1 hybrid wheat cultivars should not be confused with the standard method of breeding inbred wheat cultivars by crossing two lines using hand emasculation, then selfing or inbreeding the progeny many (ten or more) generations before release selections are identified to be released as a variety or cultivar.
Synthetic hexaploids made by crossing the wild goatgrass wheat ancestor Aegilops tauschii and various durum wheats are now being deployed, and these increase the genetic diversity of cultivated wheats.[30][31][32]
Stomata (or leaf pores) are involved in both uptake of carbon dioxide gas from the atmosphere and water vapor losses from the leaf due to water transpiration. Basic physiological investigation of these gas exchange processes has yielded valuable carbon isotope based methods that are used for breeding wheat varieties with improved water-use efficiency. These varieties can improve crop productivity in rain-fed dry-land wheat farms.[33]
In 2010, a team of UK scientists funded by BBSRC announced they had decoded the wheat genome for the first time (95% of the genome of a variety of wheat known as Chinese Spring line 42).[34] This genome was released in a basic format for scientists and plant breeders to use but was not a fully annotated sequence which was reported in some of the media.[35]
On 29 November 2012, an essentially complete gene set of bread wheat has been published.[36] Random shotgun libraries of total DNA and cDNA from the T. aestivum cv. Chinese Spring (CS42) were sequenced in Roche 454 pyrosequencer using GS FLX Titanium and GS FLX+ platforms to generate 85 Gb of sequence (220 million reads), equivalent to 5X genome coverage and identified between 94,000 and 96,000 genes.[36]
This sequence data provides direct access to about 96,000 genes, relying on orthologous gene sets from other cereals. and represents an essential step towards a systematic understanding of biology and engineering the cereal crop for valuable traits. Its implications in cereal genetics and breeding includes the examination of genome variation, association mapping using natural populations, performing wide crosses and alien introgression, studying the expression and nucleotide polymorphism in transcriptomes, analyzing population genetics and evolutionary biology, and studying the epigenetic modifications. Moreover, the availability of large-scale genetic markers generated through NGS technology will facilitate trait mapping and make marker-assisted breeding much feasible.[37]
Moreover, the data not only facilitate in deciphering the complex phenomena such as heterosis and epigenetics, it may also enable breeders to predict which fragment of a chromosome is derived from which parent in the progeny line, thereby recognizing crossover events occurring in every progeny line and inserting markers on genetic and physical maps without ambiguity. In due course, this will assist in introducing specific chromosomal segments from one cultivar to another. Besides, the researchers had identified diverse classes of genes participating in energy production, metabolism and growth that were probably linked with crop yield, which can now be utilized for the development of transgenic wheat. Thus whole genome sequence of wheat and the availability of thousands of SNPs will inevitably permit the breeders to stride towards identifying novel traits, providing biological knowledge and empowering biodiversity-based breeding.[37]

Plant breeding

In traditional agricultural systems wheat populations often consist of landraces, informal farmer-maintained populations that often maintain high levels of morphological diversity. Although landraces of wheat are no longer grown in Europe and North America, they continue to be important elsewhere. The origins of formal wheat breeding lie in the nineteenth century, when single line varieties were created through selection of seed from a single plant noted to have desired properties. Modern wheat breeding developed in the first years of the twentieth century and was closely linked to the development of Mendelian genetics. The standard method of breeding inbred wheat cultivars is by crossing two lines using hand emasculation, then selfing or inbreeding the progeny. Selections are identified (shown to have the genes responsible for the varietal differences) ten or more generations before release as a variety or cultivar.[38]
The major breeding objectives include high grain yield, good quality, disease and insect resistance and tolerance to abiotic stresses, including mineral, moisture and heat tolerance. The major diseases in temperate environments include the following, arranged in a rough order of their significance from cooler to warmer climates: eyespot, Stagonospora nodorum blotch (also known as glume blotch), yellow or stripe rust, powdery mildew, Septoria tritici blotch (sometimes known as leaf blotch), brown or leaf rust, Fusarium head blight, tan spot and stem rust. In tropical areas, spot blotch (also known as Helminthosporium leaf blight) is also important.
Wheat has also been the subject of mutation breeding, with the use of gamma, x-rays, ultraviolet light, and sometimes harsh chemicals. The varieties of wheat created through this methods are in the hundreds (varieties being as far back as 1960), more of them being created in higher populated countries such as China.[39]

Hybrid wheat

Because wheat self-pollinates, creating hybrid varieties is extremely labor-intensive; the high cost of hybrid wheat seed relative to its moderate benefits have kept farmers from adopting them widely[40][41] despite nearly 90 years of effort.[42] F1 hybrid wheat cultivars should not be confused with wheat cultivars deriving from standard plant breeding. Heterosis or hybrid vigor (as in the familiar F1 hybrids of maize) occurs in common (hexaploid) wheat, but it is difficult to produce seed of hybrid cultivars on a commercial scale as is done with maize because wheat flowers are perfect in the botanical sense, meaning they have both male and female parts, and normally self-pollinate.[38] Commercial hybrid wheat seed has been produced using chemical hybridizing agents, plant growth regulators that selectively interfere with pollen development, or naturally occurring cytoplasmic male sterility systems. Hybrid wheat has been a limited commercial success in Europe (particularly France), the United States and South Africa.[43]

Hulled versus free-threshing wheat

The four wild species of wheat, along with the domesticated varieties einkorn,[44] emmer[45] and spelt,[46] have hulls. This more primitive morphology (in evolutionary terms) consists of toughened glumes that tightly enclose the grains, and (in domesticated wheats) a semi-brittle rachis that breaks easily on threshing. The result is that when threshed, the wheat ear breaks up into spikelets. To obtain the grain, further processing, such as milling or pounding, is needed to remove the hulls or husks. In contrast, in free-threshing (or naked) forms such as durum wheat and common wheat, the glumes are fragile and the rachis tough. On threshing, the chaff breaks up, releasing the grains. Hulled wheats are often stored as spikelets because the toughened glumes give good protection against pests of stored grain.[44]

Naming

There are many botanical classification systems used for wheat species, discussed in a separate article on Wheat taxonomy. The name of a wheat species from one information source may not be the name of a wheat species in another.
Within a species, wheat cultivars are further classified by wheat breeders and farmers in terms of:
  • Growing season, such as winter wheat vs. spring wheat.[14]
  • Protein content. Bread wheat protein content ranges from 10% in some soft wheats with high starch contents, to 15% in hard wheats.
  • The quality of the wheat protein gluten. This protein can determine the suitability of a wheat to a particular dish. A strong and elastic gluten present in bread wheats enables dough to trap carbon dioxide during leavening, but elastic gluten interferes with the rolling of pasta into thin sheets. The gluten protein in durum wheats used for pasta is strong but not elastic.
  • Grain color (red, white or amber). Many wheat varieties are reddish-brown due to phenolic compounds present in the bran layer which are transformed to pigments by browning enzymes. White wheats have a lower content of phenolics and browning enzymes, and are generally less astringent in taste than red wheats. The yellowish color of durum wheat and semolina flour made from it is due to a carotenoid pigment called lutein, which can be oxidized to a colorless form by enzymes present in the grain.

Major cultivated species of wheat[citation needed]

Hexaploid Species
  • Common wheat or Bread wheat (T. aestivum) – A hexaploid species that is the most widely cultivated in the world.
  • Spelt (T. spelta) – Another hexaploid species cultivated in limited quantities. Spelt is sometimes considered a subspecies of the closely related species common wheat (T. aestivum), in which case its botanical name is considered to be Triticum aestivum subsp. spelta.
Tetraploid Species
  • Durum (T. durum) – The only tetraploid form of wheat widely used today, and the second most widely cultivated wheat.
  • Emmer (T. dicoccon) – A tetraploid species, cultivated in ancient times but no longer in widespread use.
  • Khorasan (Triticum turgidum ssp. turanicum also called Triticum turanicum) is a tetraploid wheat species.[2] It is an ancient grain type; Khorasan refers to a historical region in modern-day Afghanistan and the northeast of Iran. This grain is twice the size of modern-day wheat and is known for its rich nutty flavor.[3]
Diploid Species
  • Einkorn (T. monococcum) – A diploid species with wild and cultivated variants. Domesticated at the same time as emmer wheat, but never reached the same importance.
Classes used in the United States:
  • Durum – Very hard, translucent, light-colored grain used to make semolina flour for pasta & bulghur; high in protein, specifically, gluten protein.
  • Hard Red Spring – Hard, brownish, high-protein wheat used for bread and hard baked goods. Bread Flour and high-gluten flours are commonly made from hard red spring wheat. It is primarily traded at the Minneapolis Grain Exchange.
  • Hard Red Winter – Hard, brownish, mellow high-protein wheat used for bread, hard baked goods and as an adjunct in other flours to increase protein in pastry flour for pie crusts. Some brands of unbleached all-purpose flours are commonly made from hard red winter wheat alone. It is primarily traded on the Kansas City Board of Trade. One variety is known as "turkey red wheat", and was brought to Kansas by Mennonite immigrants from Russia.[47]
  • Soft Red Winter – Soft, low-protein wheat used for cakes, pie crusts, biscuits, and muffins. Cake flour, pastry flour, and some self-rising flours with baking powder and salt added, for example, are made from soft red winter wheat. It is primarily traded on the Chicago Board of Trade.
  • Hard White – Hard, light-colored, opaque, chalky, medium-protein wheat planted in dry, temperate areas. Used for bread and brewing.
  • Soft White – Soft, light-colored, very low protein wheat grown in temperate moist areas. Used for pie crusts and pastry. Pastry flour, for example, is sometimes made from soft white winter wheat.
Red wheats may need bleaching; therefore, white wheats usually command higher prices than red wheats on the commodities market.

As a food

Raw wheat can be ground into flour or, using hard durum wheat only, can be ground into semolina; germinated and dried creating malt; crushed or cut into cracked wheat; parboiled (or steamed), dried, crushed and de-branned into bulgur also known as groats. If the raw wheat is broken into parts at the mill, as is usually done, the outer husk or bran can be used several ways. Wheat is a major ingredient in such foods as bread, porridge, crackers, biscuits, Muesli, pancakes, pies, pastries, cakes, cookies, muffins, rolls, doughnuts, gravy, boza (a fermented beverage), and breakfast cereals (e.g., Wheatena, Cream of Wheat, Shredded Wheat, and Wheaties).

Commercial use

Harvested wheat grain that enters trade is classified according to grain properties for the purposes of the commodity markets. Wheat buyers use these to decide which wheat to buy, as each class has special uses, and producers use them to decide which classes of wheat will be most profitable to cultivate.
Wheat is widely cultivated as a cash crop because it produces a good yield per unit area, grows well in a temperate climate even with a moderately short growing season, and yields a versatile, high-quality flour that is widely used in baking. Most breads are made with wheat flour, including many breads named for the other grains they contain, for