Friday, 9 October 2015

मछलीपालन उद्योग

पशुपालन, डेयरी और मत्स्य विभाग विभिन्न उत्पादनों, कच्चे माल की आपूर्ति, बुनियादी ढांचा विकास कार्यक्रम और कल्याणोन्मुखी योजनाएं चला रहा है। इसके साथ ही यह विभाग मत्स्य-पालन क्षेत्र में उत्पादन और उत्पादकता बढ़ाने के लिए समुचित नीतियां बनाने/लागू करने में लगा हुआ है। पिछले पांच वर्षों का मछली-उत्पादन का ब्योरा नीचे सारणी में दर्शाया गया है- (लाख टन में) वर्ष -- समुद्री मछलियां -- नदी/तालाबों की मछलियां -- कुल

1980-81 15.55 8.87 24.42
1990-91 23.00 15.36 38.36
1991-92 24.47 17.10 41.57
1992-93 25.76 17.89 43.65
1993-94 26.49 19.95 46.44
1994-95 26.92 20.97 47.89
1995-96 27.07 22.42 49.49
1996-97 29.67 23.81 53.48
1997-98 29.50 24.38 53.88
1998-99 26.96 26.02 52.98
1999-2000 28.52 23.23 56.75
2000-2001 28.11 28.45 56.56
2002-03 29.90 32.10 62.00
2003-04 29.41 34.58 63.99
2004-05 27.78 35.26 63.04
2005-06 28.16 37.55 65.71
2006-07 30.24 38.45 68.69
2007-08 29.14 42.07 71.26
मात्स्यिकी क्षेत्र निर्यात के जरिए विदेशी मुद्रा को अर्जित करने वाला एक प्रमुख क्षेत्र है। मछली और मछली उत्पादों के निर्यात में कई गुना वृद्धि हुई है। इन उत्पादों का निर्यात 1961-62 में 3.92 करोड़ मूल्य का 15700 टन था, जो 2007-08 में बढ़कर 5.41 लाख टन हो गया, जिसका मूल्य 7621 करोड़ रूपये आंका गया।

अंतर्देशीय मात्स्यिकी जलकृषि विकास

ताजा पानी के मछली-पालन विकास की मौजूदा योजना और समन्वित तटवर्ती मछली-पालन को मिलाकर चार नए कार्यक्रम बनाए गए हैं। ये कार्यक्रम हैं-शीतल जल मछली-पालन विकास; जलभराव क्षेत्र और परित्यक्त जलाशयों को जलकृषि संपदा में बदलना, जलकृषि के लिए अंतर्देशीय लवणीय/ क्षारीय मृदा का उपयोग और जलाशयों की उत्पादकता बढ़ाने का कार्यक्रम। मोटे तौर पर इस योजना के दो घटक हैं-जलकृषि और अंतर्देशीय नियंत्रित मछली-पालन।

ताजा पानी के मछली-पालन का विकास

सरकार अंतर्देशीय क्षेत्र में मत्स्यपालक विकास एजेंसियों के जरिए ताजा जल में मछली-पालन का महत्वपूर्ण कार्यक्रम चला रही है। देश में मछली उत्पादन की संभावनाओं वाले सभी जिलों में 429 मत्स्यपालक विकास एजेंसियों के जरिए इस दिशा में काम चल रहा है। वर्ष 2007-08 के दौरान 24,752 हेक्टेयर नए क्षेत्र में सघन मछली-पालन कार्यक्रम चलाया गया। इन एजेंसियों ने 39,000 मछली पालने वालों को उन्नत पद्धतियों का प्रशिक्षण दिया।

खारे पानी में मछली-पालन

इस योजना का उद्देश्य देश के खारे पानी के विशाल जल-क्षेत्र का इस्तेमाल झींगा मछली-पालने के लिए करना है। 2007-08 तक 30,889 हेक्टेयर जल-क्षेत्र का विकास झींगा मछली-पालन के लिए किया जा चुका है। देश के तटवर्ती समुद्री इलाकों के खारे पानी वाले क्षेत्रों में स्थापित 39 खारा पानी मत्स्यपालक विकास एजेंसियां (बीएफडीए) इस काम में लगी हुई हैं। इन एजेंसियों ने 2007-08 तक 31,624 किसानों को झींगा-पालन की उन्नत पद्धतियों का प्रशिक्षण दिया। फिलहाल देश से किए जाने वाले झींगा निर्यात का 50 प्रतिशत हिस्सा इसी क्षेत्र से होता है।

समुद्री मात्स्यिकी विभाग

सरकार गरीब मछुआरों को उनकी परंपरागत नौकाओं में मोटर लगाकर यांत्रिक नौकाओं में बदलने के लिए सब्सिडी देती है। इन नौकाओं से वे अधिक बार तथा अधिक समुद्री क्षेत्र में जाकर ज्यादा मात्रा में मछली पकड़ सकते हैं। इससे मछलियों की पैदावार और मछुआरों की आय में बढ़ोतरी होती है। अब तक करीब 46,223 परंपरागत नौकाओं को मोटर नौकाओं में बदला जा चुका है। सरकार मछली पकड़ने वाली 20 मीटर से कम लंबाई की नौकाओं द्वारा इस्तेमाल किए जाने वाले एच.एस.डी. तेल के केंद्रीय उत्पाद-शुल्क में रियायत देने की योजना पर भी अमल कर रही है, ताकि छोटी-छोटी यांत्रिक नौकाओं के मालिकों की परिचालन लागत में कमी लाई जा सके।

मछली पकड़ने के बंदरगाहों का विकास

मछली पकड़ने वाले जहाजों का सुरक्षित अवतरण करने और लंगर डालने की आधारभूत सुविधाएं प्रदान करने की एक योजना पर सरकार अमल कर रही है। इस योजना के प्रारंभ से लेकर अब तक मछली पकड़ने वाली नौकाओं और जहाजों के लिए छह प्रमुख बंदरगाहों-कोच्चि, चेन्नई, विशाखापत्तनम, रायचौक, पाराद्वीप और सीजन डॉक में 62 छोटे बंदरगाहों और 190 मछली अवतरण केंद्रों का निर्माण किया गया है।

परंपरागत मछुआरों के लिए कल्याण कार्यक्रम

परंपरागत ढंग से मछली पकड़ने वाले मछुआरों के लिए महत्वपूर्ण कार्यक्रम हैं-(1) कार्यरत मछुआरों के लिए सामूहिक दुर्घटना बीमा योजना, (2) मछुआरों के लिए आदर्श ग्रामों का विकास और (3) बचत व राहत योजना। मछुआरों को अवधि में वित्तीय सहायता प्रदान की जाती है। बचत व राहत योजना के तहत 3.5 लाख मछुआरों को 2008-09 में सहायता दी गई।

विशेष संस्थान

केंद्रीय मत्स्य-पालन और समुद्री इंजीनियरी प्रशिक्षण संस्थान (कोचीन), जिसकी एक-एक इकाई चेन्नई और विशाखापत्तनम में है, का उद्देश्य गहरे पानी में मछली पकड़ने वाले जहाजों के लिए पर्याप्त संख्या में परिचालक और तटवर्ती प्रतिष्ठानों हेतु तकनीशियन उपलब्ध कराना है। समन्वित मत्स्य परियोजना, (कोच्चि), में गैर-परंपरागत मछलियों की किस्मों के परिरक्षण, उन्हें लोकप्रिय बनाने और उनकी परीक्षण बिक्री पर जोर दिया जाता है। मात्स्यिकी हेतु तटवर्ती इंजीनियरिंग का केंद्रीय संस्थान बंगलौर, मत्स्यपालन हेतु बंदरगाह स्थलों की तकनीकी-आर्थिक संभावनाओं का अध्ययन करता है। भारतीय मछली सर्वेक्षण विभाग देश के विशेष आर्थिक क्षेत्र में समुद्री संसाधनों के सर्वेक्षण और मूल्यांकन के लिए नोडल एजेंसी के रूप में भी कार्य करता है।

राष्ट्रीय मत्स्य विकास बोर्ड

राष्ट्रीय मत्स्य बोर्ड की स्थापना नीली क्रांति के लिए कार्य करने के लिए की गई ताकि देश में मछली का 103 लाख उत्पादन करके वर्तमान 7000 करोड़ के निर्यात को 14,000 करोड़ रूपए तक पहुंचाया जाए और अंतर्देशीय, पानी और समुद्री क्षेत्र की गतिविधियों के कार्यान्वयन करने वाली एजेंसियों को सहायता देकर 35 लाख लोगों को प्रत्यक्ष रोजगार उपलब्ध कराया जा सके। यह मत्स्य क्षेत्र में सार्वजनिक-निजी भागीदारी का मंच बनेगा, ताकि विपणन आदि के उद्देश्यों को प्राप्त किया जा सके।
यह भारत सरकार के कृषि मंत्रालय के पशुपालन, डेयरी और मात्स्यिकी विभाग के प्रशासनिक नियंत्रण में स्वायत्त संस्था है। इसका पंजीयन सोसायटी अधिनियम के तहत हैदराबाद में 10 जुलाई, 2006 को किया गया। पंजीयन नंबर 2006 का 933 है बोर्ड का उद्घाटन 9 सितंबर, 2006 को किया गया। कार्यालय की स्थापना हैदराबाद में की गई। बोर्ड के विभिन्न कार्यक्रमों को 6 वर्ष में 2006-12 में लागू किया जाना है। बोर्ड के उद्देश्य इस प्रकार हैं —
1. मछली और समुद्री जीव उद्योग से संबधित प्रमुख गतिविधियों पर ध्यान देना और उनका व्यवसायिक प्रबंधन।
2. केंद्र सरकार के विभिन्न मंत्रालयों/विभागों और राज्य सरकारों/केंद्र शासित प्रदेशों द्वारा मछली उद्योग से संबंधित गतिविधियों के बीच समन्वय।
3. मछली पालन और मछली उत्पादों का उत्पादन, प्रसंस्करण, भंडारण लाना-ले जाना और विपणन।
4. मछली स्टॉक सहित उनके स्थायी प्रबंधन और प्राकृतिक जलजीव संसाधनों के संरक्षण।
5. अधिकतम मछली उत्पादन और फार्म उत्पादकता के लिए जैव प्रौद्योगिकी सहित अनुसंधान और विकास के आधुनिक उपकरणों का इस्तेमाल।
6. मछली उद्योग के लिए आधुनिक मूलभूत ढांचा उपलब्ध कराना और उसका अधिकतम उपयोग तथा प्रभावी प्रबंधन सुनिश्चित करना।
7. रोजगार के पर्याप्त अवसर पैदा करना।
8. मछली उद्योग में महिलाओं को प्रशिक्षण देकर सशक्त बनाना।
9. खाद्य और पोषण सुरक्षा के प्रति मछली उद्योग के योगदान को बढ़ाना।
राष्ट्रीय मत्स्य विकास बोर्ड द्वारा चलाई जा रही गतिविधियां —
1. तालाबों और टैंकों में व्यापक मछली पालन।
2. जलाशय में मछलियों का उत्पादन बढ़ाना।
3. खारे पानी में तटीय समुद्री जीव पालन।
4. गहरे पानी में मछलीपालन और टूना मछली का प्रसंस्करण।
5. समुद्री जीवन पालन।
6. समुद्री जीव फार्म।
7. समुद्री वनस्पति का विकास।
8. फसल उगने के बाद उसके लिए मूलभूत सुविधाएं तैयार करना।
9. मछलियों को सौर ऊर्जा से सुखाना (सोलर ड्रांइग) और प्रसंस्करण केंद्र।
10. घरेलू बाजार।
11. अन्य गतिविधियां।
राष्ट्रीय मत्स्य विकास बोर्ड के विभिन्न कार्यक्रमों के कार्यान्यवन के लिए 2006-12 तक का बजट प्रावधान 2100 करोड़ रूपए का है लेकिन उसे घटाकर 1500 करोड़ रूपए कर दिया गया है।
बोर्ड के लिए बजट आबंटन
बोर्ड का छह वर्ष का परियोजना व्यय 2100 करोड़ रूपए है। भारत सरकार ने बोर्ड की शुरूआत से 105 करोड़ रूपए जारी किए हैं। इसमें से 96.33 करोड़ रूपए विभिन्न राज्य सरकारों और संगठनों को पिछले तीन वर्ष में विभिन्न मत्स्य विकास गतिविधियों के लिए जारी किए गए। पिछले तीन वर्ष में व्यय किए गए 96.33 करोड़ रूपए में से 65.58 करोड़ रूपए वर्ष 2008-09 से संबद्ध हैं।

कृषि अनुसंधान और शिक्षा विभाग

कृषि मंत्रालय के अंतर्गत कृषि अनुसंधान और शिक्षा विभाग कृषि, पशुपालन तथा मत्स्य-पालन के क्षेत्र में अनुसंधान और शैक्षिक गतिविधियां संचालित करने के लिए उत्तरदायी है। इसके अलावा यह इन क्षेत्रों तथा इनसे संबंधित क्षेत्रों में काम कर रही राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय एजेंसियों के विभिन्न विभागों और संस्थानों के बीच सहयोग बढ़ाने में भी मदद करता है। यह विभाग भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद् को सरकारी सहयोग, सेवा और संपर्क-सूत्र उपलब्ध कराता है।

भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद्

भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद् राष्ट्रीय स्तर की शीर्ष स्वायत्त संस्था है, जिसका उद्देश्य कृषि अनुसंधान के क्षेत्र में विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी कार्यक्रमों को प्रोत्साहित करना और उनके बारे में शिक्षित करना है। परिषद् प्रत्यक्ष तौर पर कृषि क्षेत्र में संसाधनों के संरक्षण और प्रबंधन, फसलों, पशुओं व मछली आदि पालन से संबंधित समस्याओं को दूर करने के लिए पारंपरिक व सीमांत क्षेत्रों में अनुसंधान की गतिविधियों में शामिल है। कृषि क्षेत्र में नई प्रोद्योगिकी विकसित करने में यह महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। उसे प्रचारित और लागू करने का कार्य कृषि विज्ञान केंद्रों के व्यापक नेटवर्क से किया जाता है।
कृषि अनुसंधान परिषद का मुख्यालय नई दिल्ली में है और देश भर में इसके 49 संस्थान और विश्वविद्यालय स्तर के 4 राष्ट्रीय संस्थान, 6 राष्ट्रीय ब्यूरो, 17 राष्ट्रीय अनुसंधान केंद्र, 25 परियोजना निदेशालय और 61 अखिल भारतीय समन्वय अनुसंधान परियोजनाएं, 17 नेटवर्क परियोजनाएं हैं। कृषि और इससे संबंधित क्षेत्रों में उच्च शिक्षा के लिए 45 राज्य कृषि विश्वविद्यालय और इम्फाल में एक केंद्रीय कृषि विश्वविद्यालय है जो कि इसके चार विश्वविद्यालयों से अलग है।

=आईसीएआर की अनुसंधान, शिक्षा और विस्तार गतिविधियां

विभिन्न क्षेत्रों में अनुसंधान, शिक्षा और विस्तार के कार्यक्रम 2008-09 में इस प्रकार रहे—-
फसल विज्ञान
वर्ष के दौरान 33 अभियानों में 784 जंगली प्रजातियों सहित 2203 का संग्रह किया गया। विकसित पौधों के राष्ट्रीय हर्बोनियम के 371 नमूने, 121 बीज के नमूने और 21 आर्थिक उत्पाद शामिल किए गए। विविध फसलों के 25,456 किस्में विभिन्न देशों से लाए गए और आईसीआरआईएएएडी जर्म प्लाज्म सहित 15000 किस्में 19 देशों को निर्यात किए गए। बीज 13,850 प्रजातियां नेशनल जीन बैंक में शामिल की गईं। गेहूं की पांच, जौ की तीन और ट्रिटिकेल की एक किस्म जारी की जा चुकी है। गेहूं की सोलह जननिक स्टाक पंजीकृत किए गए। मक्का के नौ संकर/समिश्र सेंट्रल वेरायटी रिलीज कमेटी द्वारा देश के विभिन्न कृषि-जलवायु क्षेत्रों के लिए जारी किए गए। सोर्घुम की दो किस्में यथा खरीफ किस्म सीएसवी 23 और रबी की किस्म एसपीवी 1626, बाजरे की दो किस्में जारी की गईं। अल्पकालिक सीजन के बीच में बुआई के लिए बाजरे की किस्म जीपीयू 48 कर्नाटक के लिए जारी की गई। पिजनपी किस्में आजाद (एनईपीजेड), जेकेएम 189 (सीजेड), एलआरजी 30 और एलआरजी 38 (एएजेड) को देर से बुआई के उपयुक्त पाया गया। अधिक उपज देनेवाली दो किस्में मसूर, अंगूरी (आईपीएल 406) और राजमा, अरूण (आईपीआर 98-3-1) को उत्तरी राज्यों, गुजरात, महाराष्ट्र और छत्तीसगढ़ के लिए अधिसूचित किया गया। डीओआर बीटी-1 बैसिलस थुरिंगिएनसिस, कुर्सटरी (एच-3ए 3बी, 3सी) को अरंडी सेमीकूपर के प्रबंधन के लिए विकसित कर भारत सरकार के केंद्रीय कीटनाशक बोर्ड के पास व्यापारिक नाम केएनओसीके डब्लूपी से व्यवसायीकरण के लिए पंजीकृत किया गया। डीआरएसएच-1 (42-44') तेल और हेक्टेयर में 1300-1600 कि.ग्रा. उपज देनेवाले हाइब्रिड को रबी के लिए पूरे भारत में जारी किया गया। सैफ्लावर हाइब्रिड एनएआरआई-एच-15 जिसका उत्पादन एक हेक्टेयर में 2200 कि.ग्रा. तक है और तेल की मात्रा 28' है, जारी की गई। प्रतिरोधक वाली किस्म जेएसएफ-99 आल्टरनेटव मध्य प्रदेश के लिए जारी की गई। अरंडी उगाने वाले सभी क्षेत्रों के लिए डीसीएच-519 और सागरशक्ति जारी की गई। सोयाबीन की तीन उन्नत किस्में पीएस 134 और पीआरएस-1 (उत्तरांचल) और जेएस 95-60 (मध्य प्रदेश) जारी की गईं। बीटी कपास किस्में बीकानेरी नरमा और एनएचएच 44 बीसी कपास हाइब्रिड विकसित की गईं। कम लागत वाली खुंव उत्पादन के लिए फफूंद एस थर्मोफिटम के उपयोग कंपोस्ट उत्पादन की विधि विकसित की गई। एकीकृत कीट प्रबंधन (आईपीएम) की रणनीति देश भर के कपास उत्पादक नौ राज्यों के 2360 हेक्टेयर परंपरागत कपास, 605 हेक्टेयर बीटी काटन क्षेत्र 12 प्रदर्शन केंद्रों से प्रचारित की गई। आईपीएम की रणनीतियां किसानों को समझाने और उत्तरी आवश्यकताएं पूरी करने के लिए चार केंद्र स्थापित किए गए। कीट प्रबंधन सूचना प्रणाली (पीएमआईएस) कीट नियंत्रण और आईपीएम रणनीतियों के बारे कृषि 107 में पूर्ण जानकारी सहित कंप्यूटर आधारित प्रणाली कपास, बैंगन और भिंडी के लिए विकसित की गई है, जिसमें जरूरी वस्तुओं की उपलब्धता के बारे में बताया गया है। निर्णय में सहायक साफ्टवेयर (कीटनाशक सलाहकार) भी विकसित किया गया, जिसमें उपलब्ध कीटनाशकों के बारे में पूरी सूचना है। लार्जिडेइ, पिरोकोरिडेइ और खरकोपीडेइ के जीनस और प्रजातियों के लिए टैक्सोनामिक आधार विकसित किया गया। शहद फसल के परागण के लिए डंकहीन मधुमक्खियों, ट्रिगोना दूरीडिपेनिस के बारे में केरल कृषि विश्वविद्यालय में अनुसंधान के फलस्वरूप कृत्रिम घोंसला सामग्री के रूप में मिट्टी के बर्तन, बांस की खपच्चियों और पीवीसी को विकसित किया गया।
बागवानी
भारतीय फली (एएचडीबी-6) गोल लौकी, एएचएलएस-11 एएचएलएस-24 और एएचपी 13 गुच्छा फली की उन्नत वंश की पहचान की गई। जीजीपीआर वंश की पहचान हुई। महुआ में कमल का मानकीकरण। दो फसल मॉडलों की सिफारिश ट्रिरोडर्मा जैसे जैव नियंत्रण एजेंट से जैव नियंत्रण का उपयोग कर रोग का नियंत्रण। नारियल और कोको में सुधार, जैव प्रौद्योगिक खोज ताड और कोकोआ में बागान फसलों में उत्पादन प्रौद्योगिकी, रोग और कीटाणु का एकीकृत प्रबंधन, ताड़ और कोकोआ, ताड़ और कोकोआ में उत्पादन तंत्र का इस्तेमाल। काजू जर्म प्लाज्म आरएपीडी। आरगेजाइम माकरिर्स जर्म प्लाजम में विशिष्टता, छतरी प्रबंधन, उच्च घनत्व पौघ रोपड़ परीक्षण, अकार्बनिक खेती, मिट्टी और जंकसंरक्षण, सीएसआरवी एवं टीएमवी के लिए आईपीएम टेक्नोलाजी का विकास, काजू परागण के प्रभाव का अध्ययन कराया गया।
पीजीआर प्रबंधन, अधिक उपज की किस्में/संकर, टमाटर, बैंगन, मिर्ची और घीया के महत्वपूर्ण गुणों के लिए आरआईएल का विकास, सीआरवाई। एसी, डीआईवी, जेडएटी-12 टी-आरईपीजीन के उपयोग से टमाटर में ट्रांसजेनिक वंश क्रम का विकास, अकार्बनिक खेती प्रोटोकोल्स विकसित। प्रिटो में 1400 विकसित आलू, सुरक्षित रखे गए। फ्रेंच फ्राई किस्म के रूप में संकर एमपी 198-71 जारी किया गया, जबकि संकर एमपी 198-916 एआईसीपी आईपी में लागू। इन्फोक्राप आलू के इस्तेमाल के लिए आंकड़ा आधार तैयार।
खुम्ब की उत्पादकता और उत्पादन और खपत बढ़ाने और उसके उत्पादों पर काम जारी है। कंद फसलों की उत्पादकता बढ़ाने की प्रौद्योगिकी, प्रति इकाई खेती लागत में कमी, कस्सावा उत्पादन प्रणाली में भूमि की उर्वरता बनाए रखने का काम प्रगति पर है। राष्ट्रीय स्तर पर खरीफ और विकसित खरीफ और टीएएएस सफेद प्याज, की पहचान की गई।
अधिक उपज वाली अदरक, हल्दी, काली मिर्च की किस्में विकसित की गईं। धनिया, क्यूमिन, सौंफ, अजवाइन का अधिक उत्पादन के लिहाज से मूल्यांकन प्रगति पर है। लंबी काली मिर्च में एक नई किस्म (एसीसी नंबर-2) की पहचान अच्छे किस्म के रूप में की गई है। एको बार्बेडेनसिस से एकोरन निकालने के लिए नया तरीका विकसित। गुलाब की पांच नव संग्रहित किस्में वर्तमान जर्मप्लाज्म में शामिल की गई। ग्लैडियोलस में दो किस्में आईएआरआई नई दिल्ली एमपीकेपी पुणे से एक-एक, पीएयू से गुलदाउदी की छह नई किस्मों का बहु स्थानीय परीक्षण चल रहा है।
प्राकृतिक संसाधन प्रबंधन
प्राकृतिक संसाधन प्रबंधन विभाग कृषि उत्पादन बढ़ाने के लिए प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण, सुधार और सक्षम उपयोग से जुड़ी समस्याओं का हल निकालता है। भूमि सूची, प्रबंधन, पोषण प्रबंधन, जल प्रबंधन फसल/फार्मिंग प्रणाली, जैव ईंधन और कृषि में जलवायु प्रबंधन सहित कृषि वानिकी में अनुसंधान कार्यक्रम चल रहे हैं।
महत्वपूर्ण उपलब्धियों में भूमि सरण के मूल्यांकन और मानचित्रीकरण के लिए बहुआयामी दूर संवेदी तकनीक शामिल है। अधिक पैदावार देने वाली बैंगन की किस्म (स्वर्ण अभिलंब) लौकी (स्पन्न प्रभा), मटर (स्वर्ण मुक्ति) काऊपी (स्वर्ण सुफल) और फली (स्वर्ण उत्कृष्ट) पूर्वी भारत में बोने के लिए जारी। विलायती बबूल की कांटारहित किस्म देश के शुष्क इलाकों के लिए विकसित। पौधे की फलियां सुगंधित काफी और बिस्कुट बनाने में किया जाता है।
ड्रमस्टिक + हरा चना -सौंफ के लिए पानी की कम जरूरत होती है और वसाड, गुजरात में यह तंबाकू की फसल से ज्यादा लाभकारी है। जलनिकासी का प्रभावी उपयोग करने के लिए फसल उगाने की प्रौद्योगिकी निकाली गई, इसके साथ ही किनारे की ढलान पर नींबू लगाया गया। वनस्पति के अवरोधक लगाने से सोर्घुम और सोयाबीन की पैदावार 20' बढ़ गई। नीलगिरी और उधगमंडलम क्षेत्रों के नए बागानों में भूमि क्षरण रोकने के लिए कंदूर स्टैगर्ड ट्रेंचेज (सीएसटी) + फलियां अधिक प्रभावी साबित हुई।
अमरूद/प्रासोपिस और सोयाबीन-गेहूं प्रणाली उत्तर पश्चिम भारत के मिट्टी के लिए चावल-गेहूं प्रणाली से अच्छी है। रिजोक्यिम, एजोस्प्रिलम सोलुबिलाइजिंग बैसिलस मेगाटेरियन तरल जैव उर्वरक बनाया गया। नमक प्रभावित मिट्टी को सुधारने और सोडसिटी का मूल्यांकन करने के लिए किट विकसित किया गया। अनार के लिए मानक एकीकृत पोषण प्रबंधन पैकेज-10 कि.ग्रा. कृमि कंपोस्ट। पीवाईएम + 50' खुराक एनपीके उर्वरक प्रति पौधा, बनाया गया।
दलदल में धान की खेती के लिए एनईएच क्षेत्र के लिए धान बुआई यंत्र विकसित किया गया। इन्हीं क्षेत्रों में ऊंची ढलानों पर मक्का नस्ल और तिलहन बोने के लिए यंत्र बनाया गया। “हर बूंद पानी के साथ अधिक फसल और अधिक आप” कार्यक्रम जल संसाधन मंत्रालय के सहयोग से वर्षा सिंचित क्षेत्रों में वर्षा जल के बेहतर उपयोग के लिए शुरू किया गया। आईसीएआर ने महाराष्ट्र में एबायोटिक स्ट्रेस मैनेजमेंट राष्ट्रीय संस्थान की स्थापना की है ताकि कृषि में विभिन्न प्रकार की समस्याओं (सूखा, शीत लहरी, बाढ़, खारापन, अम्लीयता, और पोषण संबंधी गड़बडि़यों आदि) का हल निकाला जा सके। नई दिल्ली में फरवरी 2009 में कृषि संरक्षण पर विश्व कांग्रेस का आयोजन किया गया जिसमें क्षमता, पूंजी और पर्यावरण में सुधार के मुद्दों पर चर्चा हुई। राष्ट्रीय संसाधन प्रबंधन के जोर दिए जानेवाले कई क्षेत्रों के बारे में किसानों के कई प्रशिक्षण एफएकडीएस/कार्यशाला का आयोजन किया गया।
कृषि अभियांत्रिकी
कृषि उत्पादन में क्षमता बढ़ाने के लिए कई नई मशीनों और उपकरणों का विकास किया गया है। ट्रैक्टरों के उचित चयन के लिए निर्णय में सहायक प्रणाली विकसित की गई है। खाद्य डालने के लिए ट्रैक्टर चालित प्रसारक का विकास हुआ है। घास-फूस से भरे खेतों, नियंत्रित रोटरी स्लिट प्लांटर भी विकसित किया गया है। हस्तचालित मक्का शेकर विकसित। महिलाओं के लिए औजार और उपकरण तीन गांवों में दिए गए हैं, और महिलाओं की संलिप्तता का सूचकांक भी है। ट्रैक्टर चालित तीन लाइनों की घास निकालने वाली मशीन विकसित की गई है।
सब्जियों की बुआई के लिए तीन कतारों का पौध रोपड़ा उपकरण विकसित किया गया है। चार औजार और उपकरण, एक कतार की रोटरी वीडर, यात्रा कटाई थैम, वैभव हंसिया और नवीन हंसिया का काम करने की दशा के अनुसार आकलन महिला मजदूरों के लिए इनकी उपयोगिता की दृष्टि से किया गया। महिलाओं के लिए चुनिंदा उपकरणों का ईएसए धारा 25 प्रदर्शनों का आयोजन किया गया, जिसमें 500 फार्म महिलाओं ने हिस्सा लिया। बड़ी इलायची को सुखाने के लिए यंत्र विकसित किया गया है जिसकी क्षमता प्रति बैच 400-450 कि.ग्रा. है।
जटरोपा बीज निकालने के लिए डिकोर्टीकेटर बनाया गया है। जिसकी क्षमता 100 कि.ग्रा प्रति हेक्टेयर है। पपीता, लौकी, बैंगन, बंद और फूल गोभी से फल-सब्जी छड़ बनाए गए हैं। नाश्ते के लिए तैयार अनाज सोर्घुम से बनाए गए हैं। केला का गुच्छा काटने, आंवला गोदने और धनिया को दो हिस्से में बांटकर बीज के काम लायक बनाने वाला उपकरण विकसित कर परीक्षण भी किया गया। पहाड़ी मिर्च के साथ हरी मिर्च की प्यूरी बनाने की प्रक्रिया विकसित की गई। एलोवेरा का रस निकालने वाली कम लागत का उपकरण विकसित किया गया।
काटन बेक मैनेजर नाम का सॉफ्टवेयर विकसित किया गया है। बिनौले का आटा दो हिस्सों में छाना गया। प्रारंभिक परीक्षण ताजा निकाले गए रेशे पर किया गया। नायलोन 6 से नौ अलग धागे बनाए गए। जूट से गोंद के स्थानापन विकसित किए गए। जम्मू और राजस्थान से दो रंगीनी लाख कीटों का संग्रह लाकर उनकी संख्या बढ़ाई गई और मैदानी परिस्थितियों में गर्मी में क्षमता आंकी गई। दो क्षमता लाख के कीड़े (एलआईके 0023 और 0031) उत्पादन के अच्छे पाए गए। पौधों का संग्रह चार राज्यों से किया गया और 12 संग्रह मैदानी जीन बैंक में रखे गए। पांच सुरक्षित रासायनिक कीटनाशक-इंडोक्सा कार्ब; स्पिनोसैड, फिप्रोनिल, अल्फामेबनि और कार्बोसुल्फान तथा दो जैव कीटनाशक हाल्ट और नॉक लाख के कीड़ों की रक्षा के लिए प्रभावी पाए गए। लाख के कीड़ों के नौ रंगों की पहचान की गई।
व्यावसायिक रूप से प्राकृतिक रेसिन, गम और गम रेसिन का दस्तावेजीकरण किया गया। लाख के वैज्ञानिक ढंग से उत्पादन के बारे में 19 प्रशिक्षण शिविरों के आयोजन से 7412 लोगों को लाभ पहुंचा। प्रयोगशाला स्तर पर धान की भूसी से इथाइल अल्कोहल का उत्पादन किया गया। जटरोपा तेल से निर्धारित प्रक्रिया से मोम तथा चिपचिपाहट को दूर किया गया तथा हाई स्पीड डीजल के साथ ट्रैक्टर चलाने में उपयोग किया गया।
कुछ बायो गैस संयंत्र (क्षमता 2-6 एम3) किसानों के लिए लगाए गए। ईंधन की लकड़ी काटने के लिए सचल प्लेटफार्म जैसा विकसित किया है। बाजार में उपलब्ध ....... से उसकी क्षमता तीन गुना अधिक है। बहुस्थलीय परीक्षण प्रगति पर एक उचित प्रणाली विकसित की गई है जिससे मक्का और पिजन मटर की अच्छी पैदावार की जा सकती है। इनमें 20 से 40' बढ़ोत्तरी हो सकती है। ड्रिप और स्प्रिंकलर प्रणाली के लिए साफ्टवेयर विकसित किया। रायसेन जिले के दो गांवों में फालतू जल की निकासी के निकासी प्रणाली का मूल्यांकन किया गया। प्रशिक्षण के 58 कार्यक्रम चलाए गए जिसमें मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, छत्तीसगढ़ और महाराष्ट्र ऑफ एग्रीकल्चर इंजीनियरिंग ने पूरे देश में 1671 उपकरणों की आपूर्ति की। साल के दौरान सीधे धान की बुआई करने वाले मशीन के चार प्रदर्शन किए गए।
पशु विज्ञान
क्षय और जान्स बीमारियों के टीके का उत्पादन और व्यवसायीकरण किया गया। ब्रुसेलियोस और आईबीएम के निदान के विकसित और विधिमान्य किए गए। स्वाइन बुखार का टीका विकसित हो गया है और उसे विधि मान्य किया जा रहा है। नीली जीभ बीमारी के लिए पेंटावैलेंट टीका विकसित किया गया। पीपीआर टीके का परीक्षण किया गया। बकरी-चेचक टीका विकसित करके जारी किया जा रहा है। एलपीबीई एवं इएलआईएसए 2000 नमूनों का राष्ट्रीय पीएमडी नियंत्रण कार्यक्रम में मूल्यांकन किया गया। सेरोटाइप पीएमडी विषाणु की पूरे देश में निगरानी की गई।
सोया दूध मिलावट के लिए संवेदनशील परीक्षण विकसित भैंस के दूध से क्वार्ग किस्म का पनीर तैयार किया गया। स्वस्थ पेय सोर्घुम और बाजरा आधारित लस्सी विकसित की गई। चन्ना, बासुंडी, आम, लस्सी, हर्बल, घी, कुंडा, पेड़ा, बर्फी आदि विकसित। पशुओं को खिलाने के लिए क्षेत्र विशेष खनिज मिश्रिण का व्यवसायीकरण किया गया। चारा के नए संसाधनों की पहचान और परीक्षण कर पोषक तत्वों का पता लगाया गया। देश के विभिन्न कृषि-पारिस्थिति प्रणाली के लिए चारा और पशु संसाधनों का जिलावार आंकड़ा तैयार किया गया। भेड़ों में सूक्ष्म पोषकों की सूक्ष्म जैव उपलब्धता का मूल्यांकन किया गया। विभिन्न पेड़ों के पत्तों का मेथानोजेनिक रोधी गुणों के लिए बिट्रो मूल्यांकन किया गया। खमीरीकरण के कारण मीथेन उत्सर्जन कम करने का कार्यक्रम शुरू किया। गहन चयन से अंडा देने वाले पक्षियों और ब्रोइलर की किस्मों में और सुधार किया गया। विभिन्न अंडा देने वाले पक्षियों और ब्रोइलरों की आपूर्ति एआईसीआरपी को की गई। रंगीन ब्रोइलर और छह सफेद वंशी को पांच सप्ताह में वजन बढ़ाने के लिए और अधिक सुधार किया गया। इनका बहुस्थलीय परीक्षण किया गया। उन्नत किस्म के हर साल 300 अंडे देने वाली मुर्गियों का विकास। ग्रामीण पाल्ट्री को हर साल 220 अंडे देने वाली द्विउद्देशीय मुर्गियों का विकास किया।
गहन चयन से चोकला और मारवाड़ी नस्लों की दैनिक वजन वृद्धि 60 ग्रा. से बढ़ाकर 120 ग्राम किया गया। ब्रोइलर और अंगोरा खरगोशों को नस्ल सुधार के लिए किसानों को उपलब्ध कराया गया। भेड़, मिथुन याक के लिए स्थानीय तौर पर उपलब्ध संसाधनों से चारा विकसित किया गया। अच्छी किस्म का हल्का नमदा तैयार कर घटिया स्तर के खरगोश के ऊन और संकर भेड़ों की ऊन में सुधार किया गया। भेड़ों/दरी का ऊन/मांस की विभिन्न किस्मों का जर्मप्लाज्म उत्पादित कर किसानों में वितरित किया गया। बरबरी और जमुना पारी बकरियों की 12वीं पीढ़ी का उत्पादन गहन चयन से कर फार्म और मैदानी परिस्थितियों में मूल्यांकन किया गया। मेमनों के लिए खाने और जल स्थल का डिजाइन और विकास किया गया। पशुओं के चारे की कम लागत वाला मिश्रण विकसित किया गया। मुर्रा नस्ल के वीर्य से किसानों के पशुओं के सुधार कार्यक्रम शुरू किए। अभिजात मुर्रा सांडों के 10 वेंसेट का चयन पूरा और 11वें की शुरूआत। 5वें सेट के 15 मुर्रा सांडों का परीक्षण और वीर्य के 10,000 खुराक सुरक्षित किए गए। वीर्य की गुणवत्ता परखने और उसकी प्रजनन क्षमता के सूचक विकसित भैंसों के खरे में बिनौला की खन्नी, सोयाबीन की खली बढ़ाने से दूध के उत्पादन में 6-10' बढ़ोत्तरी।
आईसीएआर ने विश्व में पहला भैंस के पाड़े का क्कोन बनाकर वैज्ञानिक क्षेत्र इतिहास बनाया। फरवरी, 2009 में पैदा हुआ पाड़ा निमोनिया से मर गया। लेकिन 6 जून, 2009 को पैदा हुआ पाड़ा स्वस्थ है। इस प्रौद्योगिकी से मनपसंद जानवरों को पैदा किया जा सकेगा। पशमीना बकरियों की क्लोनिंग का कार्यक्रम शुरू किया गया है।
लाक सिंधी, कृष्णा घाटी जानवर, मदुरा रेड, तिरूची ब्लैक, माराए भेड़, गोहिजवादी बकरी, तेलीचेरी चिकन का फेनोटिपकली वर्गीकरण किया गया। डांगी चंगथांगी बकरी, जालौनी छोटा नागपुरी भेड़ और नगामी मिथुन का जनविक वर्गीकरण पूरा हुआ। नस्ल पंजीयन प्राधिकरण मनोनीत, देसी नस्ल पशुओं और मुर्जियों का दस्तावेजीकरण और नंबर प्रदान किए गए। भैंस जिनोमिक्स परियोजना शुरू की गई।
पूर्वोत्तर के राज्यों से चार किस्म के सूअरों का मूल्यांकन किया जा रहा है। 50-87.5' संकर नस्लें तैयार कर मैदानी परीक्षण किया गया। मांस में पशु की प्रजाति और लिंग का पता लगाने वाला उपकरण विकसित किया गया। ऊंटों की तीन नस्लों में सूखा वहन क्षमता का मूल्यांकन। पनीर, विभिन्न रंगों की कुल्फी और चीनी रहित कुल्फी बनाकर ऊंट के दूध का मूल्यवर्धन कर प्रौद्योगिकी का व्यवसायीकरण किया गया। सैनिक फार्मों में फ्रेशवाल सांडों की संतानी के परीक्षण के लिए 40830 खुराक वीर्य का इस्तेमाल किया गया। हरियाणा और ओंगोल नस्ल की 1920 गाएं पैदा की गईं। पशुओं की बीमारी, रोग प्रचलन, मौसमी आंकड़ा, जमीन उपयोग आंकड़ा, पशु और मनुष्य जनसंख्या, भूमि की किस्म और फसल उत्पादन का आंकड़ा बैंक तैयार किया गया।
मछली पालन
सार्डीन, माकेरेल, टुना, सीयर, ऐंकोवीज, कैसनगिड्स, बांबे डक रिबन मछली की प्रजातियों और उपकरणवार उनको मारने के बारे में आंकड़े विकसित किए गए। केरल के तटवर्ती क्षेत्रों में समुद्री मछलियों के पकड़ने और प्रबंधन के बारे में दिशा-निर्देश विकसित और प्रकाशित किए गए। मन्नार और पाक खाड़ी के जीपीएस मानचित्रीकरण से अंतर्जल संसाधन सर्वेक्षण किये गए। अध्ययन से पता चला कि कड़ा मूंगा भूरे समूह-रोग, पोराइट्स अल्सर के लक्षण, सफेद चेचक लक्षण और गुलाबी रेखीय लक्षण हैं। कारवाड़ मैंगलोर, कोच्चि, विजिंजाम और तूतीकोरन में लुजैनिडे परिवार की मछलियों की प्रजातियों का मूल्यांकन किया जा रहा है। समुद्री मछलियों की 19 परिवारों की 70 प्रजातियों का अंतर्जल दृश्य गणना तकनीकी से मूंगा चट्टानों में रिकार्ड तैयार किया गया। 6 परिवारों की 9 बिवाल्वस प्रजातियों और 17 गेस्ट्रोपोड्स परिवारों की 25 प्रजातियों को रिकार्ड किया गया। सक्रिय यौगिक बनाने के लिए मंडपम तट से समुद्री घास सर्गासम और गेलिडिएला इकट्ठा की गई। समुद्री घास आधारित प्रक्रिया/ उत्पाद के विकास से अम्ल और अगार निकाले गया। कृत्रिम परिस्थितियों में सीबॉस का प्रजनन पूरे साल विधिमान्य किया गया। यह पाया गया कि मछलियां 14 पीपीटी खारेपन में परिपक्व हो जाती है और 18 पीपीटी में मछलियों के अंडे देने को रिकार्ड किया गया। सीबॉस नर्सरी के फार्म परीक्षण में हापा में चिराला आंध्रप्रदेश में पालन में 750/हापा (एचएपीए) में 25 दिन बाद 90' जीवित बचे। दूधिया मछली के बीज का संग्रह कर आरसीसी टैंक में पाला गया। तैयार चारे से उनमें परिपक्वता स्वाभाविक रूप से आई। 40' मछली के चारे को पौध प्रोटीन शामिल कर शंखमीन चारा बनाकर पी.मोनोडोन को तालाबों में खिलाया गया। शंखमीन का वजन दो महीने में 16 गुना बढ़ गया।
पश्चिम बंगाल और असम के दलदल से कुल 0.04 से 9 टन मछलियां पकड़ी गईं तथा सालाना अनुमानित उत्पादन 0.1 से 0.4 टन प्रति हैक्टेयर है। कर्नाटक के जलाशयों में यह 8.4 टन 8.5 कि.ग्रा. सीपीआई के साथ रही। इसी अवधि में ब्रह्मपुत्र नदी में 23.62 टन मछली पकड़ी गई। जलाशयों में भंडारण के लिए विकसित उपायों का मध्य प्रदेश में परीक्षण किया गया जिससे मछली पकड़ने में 60' बढ़ोत्तरी हुई। भीमताल झील में बहने वाले पिंजड़े में गोल्डेन महसीर और स्नोट्राउट को रखा गया। उनके विकास और अन्य बातों को रिकार्ड किया गया। जाड़े में पानी का तापमान कम होने से वृद्धि दर धीमी रही। चाकलेट महसीर की वृद्धि का उत्तर-पूर्व और पश्चिमी हिमालय क्षेत्र में ताजे पानी में वृद्धि दर का आकलन किया जा रहा है। अरूणाचल प्रदेश में भूरीट्राउट के प्रजनन से ट्राउट के 15000 बीज पैदा किए गए और उनको पालने का कार्य प्रगति पर है। महसीर हैचरी में 75000 बीज तैयार किए गए।
उत्तराखंड में ठंडे पानी में मछली पकड़ने के लिए कीमती ऐनी की लकड़ी की जगह नारियल की लकड़ी से डोंगी बनाई गई। 6.4 मीटर लंबी गेंगी प्रयोगात्मक आधार पर मछली पकड़ने के लिए दी गई। नवनिर्मित 26 मीटर लंबी नौका परीक्षण चल रहा है। देश के विभिन्न भागों में 100 प्रशिक्षण/जागरूकता कार्यक्रम चलाए गए जिसमें 400 लोगों को विभिन्न पहलुओं के बारे में जानकारी दी गई। तटीय स्व सहायता समूह की 100 महिलाओं ने कार्यशाला में भाग लिया।
तीस से अधिक अंशकालिक प्रशिक्षण कार्यक्रम आयोजित किए गए जिसमें 500 से अधिक लोगों को मछली पालन के विभिन्न पहलुओं की जानकारी दी गई। इनके अलावा मछली पकड़ने वाले किसानों, छात्रों और अधिकारियों सहित 117 लोगों को पांच विभिन्न कार्यक्रमों में प्रशिक्षित किया गया। सजावटी मछलियों के बारे में आंकड़े आन लाइन हैं। 60 प्रजातियों के 250 नमूने मन्नार की खाड़ी से लाए गए। पेंगेसियस-पेंगेसियस का सफल निषेचन करवाया गया। इसमें अंडों से लार्वा निकलने की दर क्रमश— 80 से 60 प्रतिशत रही तथा दो सप्ताह बाद 37-46 प्रतिशत मछलियां जीवित रहीं। अनाबास टेस्ट्यूडाइनस को दीर्घावधि मल्टीपल ब्रीडिंग करवाई गई।
कृषि शिक्षा
आईसीएआर के विकास अनुदान से देश में कृषि शिक्षा पर महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ा है। शिक्षा और अनुसंधान में उत्कृष्टता के लिए आईसीएएम ने विभिन्न कृषि विश्वविद्यालयों में 29 उत्कृष्टता क्षेत्र में सहायता दी। चौथे डीन समिति की प्रतिमान, स्तर, अकादमिक नियमन और स्नातक पाठ्यक्रमों के पाठ्य विवरण के बारे में सिफारिशों को कृषि विश्वविद्यालय ने अपना लिया है। इससे शिक्षा की गुणवत्ता, स्वीकार्यता और स्नातकों को रोजगार मिलने पर अच्छा असर पड़ा है। कृषि और सहायक विज्ञानों में स्नातकोत्तर (मास्टर्स और डाक्टोरल) कार्यक्रमों में समान अकादमिक नियमन, पाठ्यक्रम और पाठ्य विवरण 2008-09 में पहली बार संशोधित कर आवश्यकता आधारित बनाया गया। कृषि विश्वविद्यालयों के कामों के आधुनिकीकरण के लिए 2008-09 में एक बड़ी परियोजना शुरू की गई ताकि कृषि विश्वविद्यालयों की अनुसंधान और शैक्षिक क्षमता बढ़ सके। 22 कृषि विश्वविद्यालयों को मान्यता प्रदान की गई। शिक्षण के तरीके में सुधार, व्यावहारिक प्रशिक्षण पर अधिक ध्यान दिए जाने से छात्रों में जोखिम क्षमता बढ़ी है। अनुदान से लिंग समानता, बेहतर कक्षा प्रयोगशाला सुविधा और छात्र सुविधाएं बढ़ी हैं। सहायता का परिणाम अध्यापकों और छात्रों में ज्ञान और कौशल अर्जन/अद्यतन के रूप में निकला है और 2000 संकाय सदस्यों को हर साल नए क्षेत्रों में प्रशिक्षित किया जा रहा है। शिक्षण में कंप्यूटर सुविधा से शिक्षा संसाधनों में निश्चित रूप से सुधार हुआ है। योजना में दी गई धन राशि से केंद्रीय कॉलेज पुस्तकालयों में सुधार से शिक्षा और स्नातकोत्तर अनुसंधान बेहतर हुआ है। विश्वविद्यालयों के समग्र विकास में उल्लेखनीय प्रगति हुई है।
समुद्रपारीय फेलोशिप की शुरूआत की गई, जिससे भारतीयों को विश्व की सर्वश्रेष्ठ प्रयोगशालाओं में और विदेशियों को सर्वश्रेष्ठ भारतीय कृषि विश्वविद्यालयों/संस्थानों में अवसर मिले तथा उन देशों से गुणवत्ता, अनुसंधान और अनुसंधान विकास में और सहयोग बढ़े।
कृषि विस्तार
फसल उत्पादन, फसल सुरक्षा और पशुधन उत्पादन तथा प्रबंधन से संबंधित 520 प्रौद्योगिकियों का 2044 स्थानों पर 20,002 फार्म ट्रायल पर इसलिए लिया गया ताकि प्रौद्योगिकी के उपयुक्त स्थानों की पहचान खेती की विभिन्न प्रणालियों में किया जा सके। विभिन्न फसलों के संकर किस्मों सहित 74,732 प्रदर्शन किसानों को खेतों में उन्नत प्रौद्योगिकी की उत्पादन क्षमता का पता लगाने के लिए किया गया। इसी अवधि में 11.53 लाख किसानों और 0.90 लाख विस्तार कर्मियों को उन्नत कृषि प्रौद्योगिकी के बारे में जानकारी और कौशल उद्यतन करने का प्रशिक्षण दिया गया। कृषि विज्ञान केंद्रों (बेवीके) द्वारा विस्तार के अन्य कार्यक्रम चलाए गए जिससे 80.69 लाख किसानों और अन्य अधिकारियों को लाभ पहुंचा। कृषि विज्ञान केंद्रों ने किसानों को उपलब्ध कराने के लिए 2.02 लाख कि्ंवटल बीज और 133.20 लाख सैंपलिंग। बीज के अलावा 11.97 लाख किलो जैव उर्वरक, जैव कीटनाशक और जैव एजेंट और 61.19 लाख और अन्य पशुधन/मुर्गी का उत्पादन किया। जहां तक केवीके की नेटवर्किंग का सवाल है, कार्य अग्रिम चरण में है और इससे 200 केवीके/क्षेत्रीय निदेशालय जुड़ जाएंगे। अब तक 568 कृषि विज्ञान केंद्रों की स्थापना हो चुकी है, जबकि लक्ष्य 667 का है। ये फार्म परीक्षण, विभिन्न प्रौद्योगिकियों की स्थलीय उपयोगिता का पता लगाने के अलावा किसानों के खेतों में प्रदर्शन उपयोगिता का पता लगाने के अलावा किसानों के खेतों में प्रदर्शन कर उन्नत कृषि प्रौद्योगिकी की उत्पादन क्षमता के बारे में जानकारी देंगे। किसानों की कुशलता बढ़ाने के लिए भी प्रशिक्षण दिया जाएगा।
राष्ट्रीय कृषि नवीनीकरण परियोजना
घटक-1 (आईसीएआर को परिवर्तन के प्रबंधक के रूप में मजबूत करना) का उद्देश्य लगभग 10,000 पीएच-डी शोध प्रबंधों को अंकीय संग्रह, स्प्रिंगर प्रकाशनों तक आन लाइन पहुंच (222.ह्यpह्म्inद्दeह्म् द्यuष्k. ष्शद्व), वार्षिक समीक्षाओं (222.ड्डnद्वeड्डद्यह्म1ie2ह्य. शह्म्द्द), और सीएनआईआरओ (222. pubद्यiह्यद्ध ष्शष्ह्म्श.ड्ड1), लगभग 2000 ई. पत्रिकाओं/स्रोतों और 126 एनएआरएस पुस्तकालयों से जोड़ना है। परियोजना प्रस्ताव लेखन और रिपोर्ट देने की कुशलता लगभग 3500 लोगों में विकसित करना। एग्रोपीडिया-ब्रोसिंग मिलनबिंदुओं और शोध उपकरणों से संकलन और सूचना की भागीदारी का प्लेटफार्म विकसित और जारी किया गया। चार महीने में 400,000 एसएमएस संदेश भेजे गए, क्षेत्रीय प्रौद्योगिकी प्रबंधन और व्यापार नियोजन और विकास इकाइयों की स्थापना। कृषि विज्ञान के 26 क्षेत्रों में लगभग 500 वैज्ञानिकों को अंतर्राष्ट्रीय प्रशिक्षण और 1000 एनएआरएस वैज्ञानिकों की लगभग 80 अंतर्राष्ट्रीय विशेषज्ञों द्वारा प्रशिक्षण।
घटक-2 के अंतर्गत ये (खपत प्रणाली के उत्पादन पर अनुसंधान) स्वीकृत उप परियोजनाओं में मीठे सोर्घुम का इस्तेमाल इर्थनाल उत्पादन, बाजरा से खाद्यय उत्पादों का विकास सोर्घुम, मोतिया बाजरा फाक्सटेल और छोटा बाजरा कपास के बहु प्रयोगों की खोज (डंठल, अच्छे धागे और कपड़े के लिए कपास, रेशे, तेल, प्रोटीन) मछली मारने और छोटी समुद्री तथा ताजे पानी की मछलियों के प्रसंस्करण के लिए नाव और साज-सामान शामिल हैं।
घटक-3 (धारणीय ग्रामीण आजीविका पर अनुसंधान) में 36 स्वीकृत परियोजनाओं के माध्यम से देश के 27 राज्यों के (150 सुविधाविहीन जिलों में से) 80 सुविधाविहीन जिलों को शामिल किया गया है। इसमें लगभग 83,000 किसानों/खेतिहर मजदूरों का लक्ष्य है। एक तिहाई भागीदार एनजीओ और शेष एसएयू, आईसीएआर संस्थान, सामान्य विश्वविद्यालय, सीजीआईएआर संस्थान आदि शामिल हैं।
घटक-4 (मौलिक और रणनीतिक अनुसंधान) में आगामी पीढ़ी के नवीनीकरणों सहित कृषि विज्ञान के अन्वेषित क्षेत्रों में 61 उप-परियोजनाओं को मंजूरी। इन परियोजनाओं में लगभग 50' भागीदार आईसीएआर संस्थान, 16' एएसयू, आदि भागीदारी की विविधता के प्रतीक हैं। 61 स्वीकृत आईआईटी, राष्ट्रीय संस्थान, अंतर्राष्ट्रीय केंद्र आदि भागीदारी में विविधता के प्रतीक हैं। 61 स्वीकृत परियोजनाओं से खाद्य शृंखला में आर्सेनिक समस्या समाधान के लिए रणनीति, हेटरोसिस निर्धारण के लिए जनन अभियांत्रिकी, उन्नत कपास गांठ और रेशे के विकास के अनुवंशिक समाधान, भैंस के दूध का उत्पादन बढ़ाना आदि में योगदान मिलने की आशा है।
डीएआरई/आईसीएआर मुख्यालय
छह भारतीय पेटेन्ट्स आईसीएआर को दिए गए जिसमें पशु पोषण (क्षेत्र-विशिष्ट खनिज मिश्रण) कीटनियंत्रण और पौध पोषण (जैव कीटनाशक- जैव उर्वरक, फफूंदनाशक, कीट ट्रैप), कृषिमशीनरी (बीज- उर्वरक ड्रिल) और रेमी रेशा (डीगमिंग) शामिल हैं। 227 वैज्ञानिकों और संबद्ध कर्मचारियोंं को आईपीआर की बारीकियों से 5 राज्यों मेघालय, पश्चिम बंगाल, केरल, मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश को समाप्त 5 आईपी एवं प्रौद्योगिकी प्रबंधन पर आयोजित प्रशिक्षण-सह-कार्यशाला कार्यक्रमों से अवगत कराया गया।
2008-09 में सात पत्रिकाओं/आईसीएएम समाचार/रिपोर्टर और वार्षिक रिपोर्ट के सभी प्रकाशन प्रकाशित हुए। इसके अलावा इंटरनेट संपर्क ढांचे की विस्तार और ई-पुस्तकालय प्रकाशन शुरू हुआ। कृषि सूचना और प्रकाशित निदेशालय ने 2008 में रोज की खबरों की आन लाइन सूचीबद्ध करने की प्रक्रिया के अलावा आईसीएआर रिपोर्टर और आईसीएआर यूज की आईसीएआर के वेब पर अपकोडिंग शुरू कर दी है।
केंद्रीय कृषि विश्वविद्यालय, इंफाल
विश्वविद्यालय में सेमेस्टर प्रणाली है और दस ग्रेडिंग दी जाती है। स्नातक कार्यक्रमों के लिए आंतरिक और बा±य परीक्षा और स्नातकोत्तर के लिए आंतरिक व्यवस्था है। विश्वविद्यालय ने आईसीएआर द्वारा प्रस्तावित नियमन और पाठ्यक्रम को स्वीकार किया है। लेकिन क्षेत्रीय आवश्यकताओं के अनुरूप उसमें बदलाव किया गया है। विश्वविद्यालय 7 स्नातक और 20 स्नातकोत्तर डिग्री कार्यक्रम चलाते हैं। स्नातक पाठ्यक्रमों के लिए 2008 में 226 छात्रों ने प्रवेश लिया और 129 सफल रहे। विभिन्न स्नातकोत्तर कार्यक्रमों में 57 ने प्रवेश लिया और कृषि कॉलेज से 118 छात्रों को सफलता मिली।
पहाड़ी और आदिवासी क्षेत्रों के लिए अनुसंधान
उत्तर-पश्चिम हिमालय क्षेत्र में संस्थानों द्वारा किए गए अनुसंधान कार्यों के परिणामस्वरूप विभिन्न जलवायु क्षेत्रों के विभिन्न फसलों की 11 किस्में/हाइब्रिड जारी की गईं। जारी की गई 47 किस्मों के कुल 21.9 टन प्रजनन बीज पैदा किए गए। गेहूं, मटर, मसूर, चना और फ्रेंचबीन के ऑर्गेनिक बीज (0.405 टन) भी पैदा किए गए। इसके अतिरिक्त जारी 33 किस्मों के लगभग 1.2 टन न्यूक्लियस बीज भी पैदा किए गए।
एनईएच क्षेत्र में बाढ़ के बाद कृषि के लिए 6.0 टन प्रति हेक्टेयर वाले दो चावल के जीनोटाइप के विकास के लिए उत्तरपूर्व हिमालय क्षेत्र में स्थित संस्थान में अनुसंधान कार्य किया गया। झूम खेती के लिए एक और चावल जीनोटाइप आरसीपीएल 1-129 को विकसित किया गया। नगालैंड से 80 परिग्रहण भी एकादित किए गए। स्ट्रॉबेरी की विभिन्न क्षेत्रों के लिए कई किस्में जैसे-मेघालय के लिए आफेरा तथा सिक्किम और मणिपुर के लिए स्वीट चार्ली की सिफारिश की गई। ऊपरी क्षेत्रों में दोगुनी फसल के लिए वर्षा के मौसम में उगाई जाने वाली मक्का की फसल का इस्तेमाल कर रबी फसल (सरसों) के लिए एक कम लागत वाली तकनीक “इन-सिटु” नमी संरक्षण नमूने के रूप विकसित की गई। मिजोरम की डेयरी गायों में खनिज अल्पता पाई गई और डाटा आधारित एक राज्य विशेष खनिज मिक्स्चर फीड फॉर्मूला ईजाद किया गया। ब्लड सीरम नमूने, जमीन तथा फीडर नमूने एकत्रित कर उनके आधार पर मेक्रो और माइक्रो मिनरल के लिए अनेक विश्लेषण किए गए। खून में कमी के आधार पर मिजोरम की गाय-भैंसों के लिए एक मिनरल मिक्स्चर कंपोजीशन विकसित किया गया।
आइसलैंड (अंडमान और निकोबार)
विभिन्न संसाधन परिस्थितियों के तहत विकसित एकीकृत कृषि प्रणाली (आईएफएस) मॉडल के हिस्सों के विश्लेषण से पता चलता है कि पहाड़ी और ढलुआं पहाड़ी जमीनों में फसल का हिस्सा शुद्ध आमदनी से अधिक (69 से 83 प्रतिशत) है वहीं मध्यम ऊपरी घाटी तथा निचली घाटी क्षेत्रों में पशुधन हिस्सा (49 से 66 प्रतिशत) है। एक औसत रूप में विभिन्न संसाधन स्थितियों के तहत आईएफएस से शुद्ध आमदनी 1.0-2.5 लाख प्रति हेक्टेयर थी। मछली-मुर्गीपालन-बतख पालन में बेक्टीरियाई लोड से खुलासा होता है कि सैमोनेल मानसून के समय तालाब में बढ़ जाती है तथा गर्मियों में फिर बढ़ जाती है। इससे पता चलता है कि घरेलू उद्देश्य के लिए तालाब का पानी अनुपयुक्त है। अंडमान और निकोबार द्वीप समूह में मूल्यांकन के लिए मुख्य खेतों में 50 पौधे रोपे गए। बकरियों की दो किस्में (स्थानीय अंडमान तथा टैरेसा) पहली बार फिनोटिपिकली पहचानी गईं। 105 रिकार्ड की गई रीफ मछलियों में से डेमसेल्फिश की लगभग 15 किस्में अंडमान और निकोबार द्वीपसमूह में पैदा की जा रही हैं।

No comments:

Post a Comment