Friday, 9 October 2015

कृषि और प्राकृतिक संसाधन प्रबंधन और वर्षा सिंचित खेती प्रणाली के कार्यक्रम और योजनाएं

http://www.dwm.res.in/awmp/techno/T12Photo8.pngभारतीय अर्थव्यवस्था का आधार कृषि है। भारत के सकल घरेलू उत्पाद में कृषि और उससे संबंधित क्षेत्रों का योगदान 2007-08 और 2008-09 के दौरान क्रमशः 17.8 और 17.1 प्रतिशत रहा। हालांकि कृषि उत्पादन मानसून पर भी निर्भर करता है, क्योंकि लगभग 55.7 प्रतिशत कृषि-क्षेत्र वर्षा पर निर्भर है।
वर्ष 2008-09 के चौथे पूर्व आकलन के अनुसार खाद्यान्न का उत्पादन 238.88 करोड़ टन होने का अनुमान है। ये पिछले वर्ष की तुलना में 1 करोड़ 3.1 लाख टन अधिक है। चावल का उत्पादन 9 करोड़ 91 लाख टन होने का अनुमान है जो पिछले वर्ष की तुलना में 24 लाख टन अधिक है। गेहूं का उत्पादन 8 करोड़ 5 लाख टन होने की उम्मीद है, जो पिछले वर्ष की तुलना में 20 लाख टन अधिक है। इसी तरह मोटे अनाज का उत्पादन 3 करोड़ 94 लाख टन होने की उम्मीद है, एवं दलहन का उत्पादन एक करोड़ 46 लाख टन से अधिक होने का अनुमान है जो वर्ष 2007-08 की तुलना में 0.99 लाख टन अधिक है। गन्ने का उत्पादन 2712.54 लाख टन होने की उम्मीद है, जो वर्ष 2007-08 की तुलना में 769.34 लाख टन कम है। कपास का उत्पादन 231.56 लाख गांठें अनुमानित है (प्रत्येक गांठ का वजन 170 किलोग्राम) जो वर्ष 2007-08 की तुलना में 27.28 लाख गांठें अधिक है। 2008-09 के दौरान जूट एवं मेस्टा की पैदावार 104.07 लाख गांठें (प्रत्येक गांठ का वजन 180 किलोग्राम) होने का अनुमान है, जो वर्ष 2007-08 की तुलना में 8.04 लाख गांठ कम है।
वर्ष 2008-09 के दौरान खाद्यान्नों का फसल क्षेत्र एक करोड़ 23 लाख हेक्टेयर रखा गया है, जबकि पिछले वर्ष यह क्षेत्र 1.24 करोड़ हेक्टेयर था। चावल का फसल क्षेत्र 453.52 लाख हेक्टेयर रखा गया है जो पिछले वर्ष की तुलना में लगभग 14.37 लाख हेक्टेयर अधिक है। गेहूं का फसल क्षेत्र वर्ष 2008-09 में 278.77 लाख हेक्टेयर अनुमानित है, जो वर्ष 2007-08 के गेहूं के फसल क्षेत्र से 1.62 लाख हेक्टेयर कम है। मोटे अनाज का फसल क्षेत्र वर्ष 2008-09 में 276.17 लाख हेक्टेयर अनुमानित है, जो पिछले वर्ष की तुलना में 8.64 लाख हेक्टेयर कम है।
अनाजों के न्यूनतम समर्थन मूल्य में 2008-09 में 2007-08 के मुकाबले बढ़ोतरी 8 प्रतिशत (गेहूं) से लेकर 52.6 प्रतिशत (रागी) तक हुई। साधारण धान के मामले बढ़ोतरी 31.8 प्रतिशत, दालों में 8.1 प्रतिशत (चना) और उड़द तथा मूंग में 42.8 प्रतिशत रही।

प्राकृतिक संसाधन प्रबंधन

प्राकृतिक संसाधन प्रबंधन और वर्षा सिंचित खेती प्रणाली के कार्यक्रम और योजनाएं

भूमि पौधों और अन्य जीवों के लिए जल और अन्य पोषक तत्त्वों के भंडार के रूप में कार्य करती है। खाद्य, ऊर्जा और अन्य मानवीय आवश्यकताओं की मांग भूमि की उत्पादकता के संरक्षण और सुधार पर निर्भर करती है। भारत की जनसंख्या विश्व की 18' और पशुओं की 15' है, जिसके लिए भौगोलिक
क्षेत्र का 2' और 1.5' वन तथा चरागाह है। मानव और पशुओं की जनसंख्या में पिछले दशकों में हुई वृद्धि से प्रतिव्यक्ति भूमि की उपलब्धता कम हुई है। प्रति व्यक्ति उपलब्धता 1951 के 0.89 हेक्टेयर के मुकाबले 1991 में 0.37 हेक्टेयर हो गई और यह 2035 में 0.20 हेक्टेयर हो जाएगी। जहां तक कृषि भूमि का सवाल है, वह 1951 के 0.48 हेक्टेयर के मुकाबले 1991 में 0.16 हेक्टेयर हो गई और इसके 2035 तक गिरकर 0.08 हेक्टेयर हो जाने की संभावना है। प्रतिव्यक्ति भूमि की उपलब्धता जनसंख्या वृद्धि के कारण कम हो रही है।
भारत के कुल 32 करोड़ 87 लाख हेक्टेयर भौगोलिक क्षेत्र का 14 करोड़ 10 लाख हेक्टेयर कृषि योग्य है। इसका 5.7 करोड़ हेक्टेयर (40') सिंचित और 8.5 करोड़ हेक्टेयर (60') वर्षा सिंचित है। यह क्षेत्र वायु और जलीय क्षरण और सघन कृषि उत्पादन के कारण क्षरण के विभिन्न चरणों पर निर्भर करता है। इसलिए अधिकतम उत्पादन प्रति इकाई भूमि और प्रति इकाई जल से सुधार की जरूरत है। वर्षा आधारित कृषि में उत्पादकता और लागत दोनों कम होती है। फसल उत्पादन साल दर साल वर्षा में अस्थायित्व पर निर्भर करता है। वर्षा आधारित क्षेत्रों में 20 करोड़ से अधिक ग्रामीण गरीब रहते हैं।
जोखिम भरे क्षेत्रों में व्यापक बदलाव और पैदावार में अस्थिरता दिखाई देती है। देश में भूमि क्षरण का आकलन विभिन्न एजेंसियों ने किया है। क्षरित भूमि की पहचान और उनके अंकन में अलग तरीके अपनाने से इन एजेंसियों के अनुमानों में व्यापक अंतर है जो 6.39 करोड़ हेक्टेयर से 18.7 करोड़ हेक्टेयर तक है। भूमि क्षरण का आकलन मुख्य रूप से राष्ट्रीय कृषि आयोग (1976), बंजर भूमि विकास संवर्धन सोसायटी (1984), राष्ट्रीय दर संवेदी एजेंसी (1985), कृषि मंत्रालय (1985) और राष्ट्रीय भूमि सर्वे और भूमि उपयोग ब्यूरो (1984 तथा 2005) ने किया। देश भर में भूमि क्षरण के कई रूप हैं। व्यापक और आवधिक वैज्ञानिक सर्वे न होने के कारण अनुमान स्थानीय सर्वेक्षणों और अध्ययनों पर आधारित हैं। वर्ष 2005 में आईसीएआर के नागपुर स्थित राष्ट्रीय भूमि सर्वे और भूमि उपयोग ने प्रकाशित किया है कि 14.68 करोड़ हेक्टेयर क्षेत्र विभिन्न प्रकार के भूमि क्षरण से प्रभावित है। इसमें 9.36 करोड़ हेक्टेयर जलीय क्षरण, 94.8 लाख हेक्टेयर वायु क्षरण, 1.43 करोड़ हेक्टेयर जल क्षरण। बाढ़, 59.4 लाख हेक्टेयर खारापन। क्षारीय, 1.6 करोड़ हेक्टेयर भूमि अम्लता और 73.8 लाख हेक्टेयर जटिल समस्या शामिल है।

भूमि विकास के लिए जलसंभरण कार्यक्रम

विभिन्न जल संभरण विकास कार्यक्रम, यथा (i) वर्षासिंचित क्षेत्रों के लिए राष्ट्रीय जलसंभरण विकास परियोजना (एनडब्लूडीपीआरए) (ii) नदी घाटी परियोजना और बाढ़ प्रवृत नदी के जलग्रहण क्षेत्र में भूमि संरक्षण (आरवीवी और पीपी आर) (iii) क्षारीय और अम्लीय भूमि की पुनर्प्राप्ति और विकास (आरएडीएएस) (i1) झूम खेती क्षेत्रों में जलसंभरण विकास परियोजना (डब्लूडीपीएससीए) का कार्यान्वयन हो रहा है।
जलसंभरण विकास योजनाएं/कार्यक्रम — प्रभागवार और कार्यक्रमानुसार विवरण निम्नलिखित हैं—

एनआरएम की योजनाएं और कार्यक्रम

देश में भूमि-क्षरण को रोकने और क्षरित भूमि की उत्पादन क्षमता बहाल करने के उद्देश्य से प्राकृतिक संसाधन प्रबंधन केंद्र प्रायोजित तीन कार्यक्रमों और केंद्रीय क्षेत्र की तीन योजनाओं का क्रियान्वयन कर रहा है। योजनावार कार्यक्रम/योजनाओं की विशिष्ट बातें हैं —
केंद्रीय/क्षेत्र योजना (योजना और गैर योजना) एसएलयूएसआई — केंद्रीय क्षेत्र की योजना भारतीय भूमि एवं भूमि उपयोग सर्वे जलग्रहण। जलसंभरण के भूमि का सर्वे करता है। संगठन जिलावार भूमि क्षरण नक्शा तैयार करने में भी लगा है। इसके 2009- 10 के प्रस्तावित लक्ष्य इस प्रकार हैं —
(अ) त्वरित गहन सर्वेक्षण (आरआरएएन)- 156.00 लाख हेक्टेयर
(ब) विस्तृत भूमि सर्वेक्षण (डीएसएस)- 1.60 लाख हेक्टेयर
(स) क्षरित भूमि का मानचित्र (एलडीएम)- 0.10 लाख हेक्टेयर
(द) भूमि संसाधन मानचित्र (एसआरएम)- 161.00 लाख हेक्टेयर
लक्ष्य पूर्ति के लिए योजना के तहत 14 करोड़ रूपए और गैर योजना के लिए 2.32 करोड़ रूपए आवंटित किए गए है।
एससीटीसी-डीवीसी (गैर योजना) — राज्य सरकारों के तहत भूमि और जल संरक्षण के लिए कार्य करने वाले अधिकारियों के प्रशिक्षण क्षमता निर्माण के लिए हजारीबाग स्थित दामोदर घाटी निगम में भूमि संरक्षण प्रशिक्षण केंद्र को वित्तीय सहायता प्रदान कर गैर योजना स्कीम के रूप में क्रियान्वित किया जा रहा है। वर्ष 2009-10 में विभिन्न अल्प और मध्यकालिक पाठ्यक्रमों के लिए 0.45 करोड़ रूपए आवंटित किए गए हैं।
डब्लूडीपीएससीए (योजना) — पूर्वोत्तर के राज्यों में राज्य योजना को 100' विशेष केंद्रीय सहायता से झूम खेती वाले क्षेत्रों में जलविभाजक विकास परियोजना लागू की जा रही। इस योजना के तहत दसवीं योजना में 3.03 हेक्टेयर क्षेत्र में कार्य हो चुका है। 2009-10 में लगभग 0.40 लाख हेक्टेयर क्षेत्र इसके तहत लाया जाएगा, जिस पर लगभग 40 करोड़ रूपए व्यय होंगे। केंद्र प्रायोजित कार्यक्रम (योजना-एमएमए के तहत शामिल) आरवीपी और पीपीआर — नदी घाटी जल ग्रहण एवं बाढ़ोन्मुख नदी क्षेत्र में भूमि संरक्षण के तहत शुरू से दसवीं योजना तक 65.27 लाख हेक्टेयर का उपचार किया गया। 2009-10 में 290 करोड़ रूपए की लागत से 2.80 हेक्टेयर का लक्ष्य रखा गया है।
आरएडीएएस — क्षारीय और अम्लीय भूमि सुधार और विकास कार्यक्रम क्षारीय भूमि वाले राज्यों में लागू किया जा रहा है। शुरू से दसवीं योजना तक 0.59 लाख हेक्टेयर कृषि योग्य बनाया गया। 2009-10 में 14 करोड़ रूपए की लागत से 0.25 हेक्टेयर को कृषि योग्य बनाए जाने का लक्ष्य है। क्षरित भूमि के विकास के लिए आरएफएस प्रखंड की योजनाएं/कार्यक्रम आरएफएस डिवीजन वर्षा सिंचित क्षेत्रों सहित क्षरित भूमि के विकास के लिए कुछ कार्यक्रम चला रहा है। प्रमुख कार्यक्रम इस प्रकार हैं —
(अ) वर्षा सिंचित क्षेत्रों के लिए राष्ट्रीय जलसंभरण विकास परियोजना-(एनडब्लूडीपीआरए) वर्ष 1991-92 में 28 राज्यों और दो केंद्र शासित प्रदेशों में वर्षा सिंचित क्षेत्रों के लिए एक राष्ट्रीय जलसंभर विकास परियोजना एकीकृत जलसंभरण प्रबंधन और सतत् कृषि प्रणाली की अवधारणा के साथ लागू की गई। शुरू से दसवीं योजना के अंत तक कार्यक्रम के तहत 94.02 लाख हेक्टेयर भूमि विकसित की गई है। लघु जलसंभरण सहित 30 लाख हेक्टेयर विकसित करने का प्रस्ताव है। 2009-10 में 300 करोड़ रूपए की अनुमानित लागत से 2.80 हेक्टेयर का लक्ष्य रखा गया है।
(ब) राष्ट्रीय वर्षा सिंचित प्राधिकरण (एनआरएए)-देश के वर्षा सिंचित क्षेत्रों की समस्या पर ध्यान देने के लिए केंद्र सरकार ने 3 नवंबर, 2006 को राष्ट्रीय वर्षा सिंचित क्षेत्र प्राधिकरण का गठन किया है। प्राधिकरण सलाह, नीति निर्धारण और निगरानी के साथ वर्तमान परियोजनाओं में दिशानिर्देशों की जांच के अलावा क्षेत्र में बाहरी सहायता से चलने वाली परियोजनाओं सहित नई परियोजनाएं तैयार करता है। इसका अधिकतर क्षेत्र केवल जल संरक्षण ही नहीं, बल्कि उचित कृषि और जीविका प्रणाली सहित वर्षा सिंचित क्षेत्रों का सतत और समग्र विकास है। यह भूमिहीनों और सीमांत किसानों के मुद्दों पर भी ध्यान देगा क्योंकि वर्षा सिंचित क्षेत्रों में उनकी संख्या अधिक है।
प्राधिकरण का ढांचा द्विस्तरीय है। पहला शासी निकाय है, जो कार्यक्रमों के क्रियान्वयन के लिए उचित नेतृत्व और समन्वय का कार्य करता है। केंद्रीय कृषि मंत्री इसके अध्यक्ष और केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्री सह-अध्यक्ष हैं। दूसरी कार्यकारी समिति है जिसमें तकनीकी विशेषज्ञ और संबद्ध मंत्रालयों के प्रतिनिधि हैं। कार्यकारी समिति में एक प्रमुख मुख्य कार्यकारी अधिकारी होता है, उसमें पांच पूर्णकालिक तकनीकी विशेषज्ञ भी हैं। प्राधिकरण 14 मई, 2007 से कार्य करने लगा है। प्राधिकरण में पांच में से चार तकनीकी विशेषज्ञ अतिरिक्त सचिव स्तर के हैं। कृषि/बागवानी क्षेत्र के विशेषज्ञों की नियुक्ति की प्रक्रिया जारी है। प्राधिकरण ने जलसंभरण विकास परियोजना के साझा दिशा-निर्देश तैयार किए और शासी निकाय की स्वीकृति के बाद उन्हें तदनुसार क्रियान्वयन के लिए सभी राज्यों को जारी कर दिया गया है।
(स) वर्षा सिंचित क्षेत्र विकास कार्यक्रम (आएडीपी)-केंद्रीय वित्त मंत्री ने 2007-08 में वर्षा सिंचित क्षेत्र विकास कार्यक्रम की घोषणा की थी। योजना आयोग ने केंद्र प्रायोजित इस योजना के क्रियान्वयन के लिए ग्यारहवीं योजना में 3500 करोड़ रूपए की लागत से लागू करने की सिद्धांतरूप से सहमति प्रदान कर दी है। इसके अलावा उसने एनआरएए के लिए 170 करोड़ रूपए और 20 मार्च, 2008 को जारी किए गए। योजना आयोग और विभिन्न मंत्रालयों/विभागों/प्रखंडों की टिप्पणियों पर आधारित संशोधित 3330 करोड़ रूपए के आवंटन के आधार पर नोट वित्त मंत्रालय और योजना आयोग को भेजे जा चुके हैं। कार्यक्रम के तहत ग्यारहवीं योजना में 30 लाख हेक्टेयर वर्षा सिंचित क्षेत्र शामिल किए जाने की उम्मीद है।
प्रचालन दिशा-निर्देशों का निरूपण और वितरण
राष्ट्रीय वर्षा सिंचित प्राधिकरण ने देश जलसंभरण विकास परियोजनाओं को लागू करने के लिए दिशा - निर्देश जारी किए हैं। निर्देशों के अनुसार एनडब्लूडीपीआरए, आरवीपी एवं पीपीएम तथा आएडीएस कार्यक्रमों के बारे में राज्यों को परिचालन संबंधी दिशा-निर्देश दिए गए हैं। झूम खेती क्षेत्र के बारे जलसंभरण विकास कार्यक्रम के लिए भी दिशा-निर्देश राज्य सरकारों को भेजे जा चुके हैं।

वृहद् कृषि-प्रबंधन

कृषि राज्य का विषय होने के कारण कृषि उत्पादन बढ़ाने, पैदावार बढ़ाने और इस क्षेत्र के अप्रयुक्त क्षमता का इस्तेमाल करने की जिम्मेदारी राज्य सरकार की है। यद्यपि राज्य सरकार के प्रयासों में और तेजी लाने के उद्देश्य से केंद्र द्वारा पोषित कई योजनाएं भी लागू की गई हैं जिससे देश के कृषि उत्पादन और उत्पादकता में वृद्धि की जा सके और किसानों के जीवन में समृद्धि लाई जा सके।
वृहद् कृषि प्रबंधन केंद्र सरकार द्वारा पोषित एक योजना है जिसका उद्देश्य है विभिन्न राज्यों में कृषि के विकास के लिए विशेष रूप से बल दिया जाए और इस योजना पर खर्च होने वाली केंद्रीय सहायता का सही दिशा में उपयोग हो सके। यह योजना 2000-01 से सभी राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों में लागू की जा चुकी है। इस योजना में क्षेत्रीय प्राथमिकताओं के आधार पर कार्यक्रमों को लागू करने और कृषि विकास के लिए राज्य सरकारों को पर्याप्त छूट दी गई है। फलस्वरूप राज्यों ने अपनी विकासात्मक प्राथमिकताओं को ध्यान में रखकर क्षेत्रवार विकास के लिए खुलकर योजना को लागू किया है। कृषि विकास योजना में यह योजना राज्यों के स्तर पर निर्णय लेने की दिशा में विकेंद्रीकरण की एक बड़ी उपलब्धि कही जा सकती है जिसका उद्देश्य राज्य सरकारों द्वारा तैयार किए गए कार्यक्रमों के जरिए कृषि में तेजी से विकास करना है।
कृषि उत्पादन और उत्पादकता की बढ़ोतरी की दिशा में राज्यों की कार्यक्षमता में सुधार हेतु 2008-09 में वृहद कृषि प्रबंधन योजना संशोधित की गई है। अतिव्याप्ति और दोहराव रोकने के लिए योजना की भूमिका को फिर से तय किया गया है ताकि खाद्य सुरक्षा के बुनियादी उद्देश्यों तथा ग्रामीण जनता के जीवन स्तर को आज के कृषि परिदृश्य में अधिक प्रासंगिक बनाया जा सके। संशोधित योजना की प्रमुख विशेषताएं इस प्रकार हैं— (i) ऐतिहासिक आधार पर राज्यों केंशाप्र को आबंटित फंड प्रक्रिया को बदलकर इसकी जगह सकल क्षेत्र तथा लघु एवं सीमांत जोतों पर आधारित आबंटन मानदंड अपनाया गया है। राज्यों/केंशाप्र को सहायता शतप्रतिशत अनुदान के रूप में मुहैया कराई जाएगी; (ii) कृषि एवं सहकारिता विभाग द्वारा संचालित सभी योजनाओं के तहत सब्सिडी नमूने को एक जैसा बनाने के लिए सब्सिडी ढांचे को युक्तिसंगत बनाया गया है। संशोधित सब्सिडी शर्तें अधिकतम सहायता की अनुमति देती हैं; (iii) मौजूदा “क्षारीय भूमि पुनरूद्धार” हिस्से सहित दो नए हिस्से शामिल किए गए हैं- (क) तिलहन, दलहन, पाम आयल तथा मक्का एकीकृत योजना के तहत आने वाले क्षेत्रों के लिए दाल और तिलहन फसल उत्पादन कार्यकम तथा (ख) अम्लीय भूमि पुनरूद्धार कार्यक्रम; (i1) नई पहल के लिए अनुमोदित सीलिंग को आबंटन के 10 प्रतिशत से 20 प्रतिशत किया गया है; (1) फंड का कम से कम 33 प्रतिशत लघु, सीमांत तथा महिला किसानों के लिए रखा गया है तथा (1i) संशोधित एमएमए योजना के क्रियान्वयन की सुनिश्चितता के लिए पंचायती राज संस्थाओं (पीआरआई) की सक्रिय भागीदारी सुनिश्चित की जानी चाहिए जिसमें जिला/उपजिला स्तर पर योजना की समीक्षा, निगरानी और मूल्यांकन शामिल है।

कृषि यंत्रीकरण

किसानों के पुराने और बेकार हो चुके औजारों तथा मशीनों को हटाकर उनके स्थान पर नए आधुनिक यंत्र उपलब्ध कराने के नीतिगत कार्यक्रम अपनाए गए हैं। इसके अंतर्गत उन्हें ट्रैक्टर, पावर ट्रिलर, हारवेस्टर व अन्य मशीनें और सीमा शुल्क सेवा, मानव संसाधन विकास के लिए सहयोगी सेवाएं तथा परीक्षण, मूल्यांकन, अनुसंधान विकास आदि सुविधाएं उपलब्ध कराई जाती हैं। कृषि यंत्रों के उत्पादन के लिए एक बुनियादी औद्योगिक ढांचा विकसित किया जा चुका है। विस्तार और प्रदर्शन के जरिए तकनीकी दृष्टि से आधुनिक उपकरण अपनाए गए हैं और संस्थागत ऋण की व्यवस्था की गई है। किसानों ने संसाधनों के संरक्षण के लिए भी उपकरणों को अपनाया है।
सरकार द्वारा प्रायोजित विभिन्न योजनाओं, जैसे-खेती के लिए जल-व्यवस्था पर वृहद् कृषि प्रबंधन, तिलहन और दलहन के लिए प्रौद्योगिकी मिशन, बागवानी पर प्रौद्योगिकी मिशन और कपास के प्रौद्योगिकी मिशन के अंतर्गत किसानों को वित्तीय सहायता उपलब्ध कराई जाती है, ताकि वे अपने लिए कृषि संबंधी औजार और मशीनें खरीद सकें।

कृषि मशीनरी के बारे में प्रशिक्षण और परीक्षण संस्थान

खेती की मशीनों से संबंधित प्रशिक्षण और परीक्षण संस्थानों (एफएमटी ऐंड टीआई) की स्थापना मध्य प्रदेश के बुदनी, हरियाणा के हिसार, आंध्र प्रदेश के गार्लादिने और असम के विश्वनाथ चेरियाली में की गई है। यहां प्रतिवर्ष करीब 5,600 लोगों को कृषि मशीनीकरण के विभिन्न पहलुओं के बारे में प्रशिक्षण दिया जाता है। इन संस्थानों में राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय मानकों के अनुसार ट्रेक्टर सहित अन्य कृषि मशीनों का परीक्षण तथा कार्यदक्षता का मूल्यांकन भी किया जाता है। शुरू से 1,10,712 लोगों को प्रशिक्षित किया जा चुका है और 31 मार्च, 2009 तक 2,584 मशीनों का परीक्षण हो चुका है। इन संस्थाओं ने 2008-09 के दौरान 5,894 लोगों को प्रशिक्षित और 163 मशीनों का परीक्षण किया।

नवविकसित कृषि/बागवानी उपकरणों का प्रदर्शन

कृषि-उत्पादन प्रणाली में नई प्रौद्योगिकी प्रारंभ करने के उद्देश्य से नए विकसित/उन्नत कृषि एवं बागवानी उपकरणों के प्रदर्शन की एक योजना में मंजूर की गई थी। इसे अब केंद्रीय क्षेत्र की पुनर्गठित योजना प्रशिक्षण, परीक्षण और प्रदर्शन के जरिए कृषि यंत्रीकरण को प्रोत्साहन एवं सुदृढ़ीकरण का एक घटक बना दिया गया है। इस घटक के अंतर्गत कार्यान्वयन एजेंसियों को नए/उन्नत उपकरणों की खरीद और प्रदर्शन के लिए शत-प्रतिशत सहायता-अनुदान दिया जाता है। इस योजना को राज्य/केंद्रीय सरकार के संगठनों के माध्यम से लागू किया जा रहा है। इस घटक से किसानों को नए कृषि/बागवानी उपकरणों को अपनाने के लिए प्रेरित करने में मदद मिली है। योजनाओं के क्रियान्वयन के लिए सहायता के लिए प्राप्त प्रस्तावों के आधार पर (आईसीएआर एवं एसपीसीआई) दो संगठनों को राशि जारी की जाती है। वर्ष 2008-09 नए उपकरणों के 11,214 प्रदर्शन किए गए, जिससे 1,52,364 किसानों को लाभ पहुंचा।

प्रशिक्षण की आउटसोर्सिंग (बाहरी संस्थानों में प्रशिक्षण)

यह दसवीं पंचवर्षीय योजना में केंद्रीय क्षेत्र की योजना “प्रशिक्षण, परीक्षण और प्रदर्शन के जरिए कृषि मशीनरी का उन्नयन और सुदृढ़ीकरण” के अंतर्गत स्वीकृत घटक है। इसके अंतर्गत बड़ी संख्या में
किसानों को निकटवर्ती स्थानों पर प्रशिक्षण दिया जाता है। यह 2004-05 से प्रभावी है। प्रशिक्षण कार्यक्रमों का आयोजन प्रत्येक राज्य के चुनिंदा संस्थानों के जरिए किया जाता है। इनमें राज्य कृषि विश्वविद्यालय, कृषि इंजीनियरी कालेज/पॉलिटेक्निक्स आदि शामिल हैं। विभिन्न संस्थानों में प्रशिक्षण कार्यक्रम चलाने के लिए 2008-09 में 27.20 लाख रूपए जारी किए गए।

फसलोपरांत प्रौद्योगिकी और प्रबंधन

कृषि मंत्रालय कृषि बाजारों के सुधार और फसलोपरांत प्रौद्योगिकी पर विशेष बल दे रहा है। तदनुसार विभाग 11वीं योजना में मार्च, 2008 से फसलोपरांत प्रौद्योगिकी प्रबंधन योजना 40 करोड़ रूपए की लागत से क्रियान्वित कर रहा है। योजना के तहत सीएसआईआर और देश तथा विदेश की चिन्हित संस्थाओं द्वारा विकसित प्रौद्योगिकी पर बल दिया जाता है, जो अनाज, दाल, तिलहन, गन्ना, सब्जियों और फलों और फसल उप-उत्पाद के प्रारंभिक प्रसंस्करण मूल्य संवर्धन और कम लागत वाली वैज्ञानिक भंडारण प्रबंधन में काम आती हैं। इस योजना के तहत सरकारी सहायता से फसलोपरांत उपकरणों के वितरण, प्रदर्शन आयोजन और फसलोपरांत प्रौद्योगिकी में प्रशिक्षण के लिए वर्ष के दौरान 478 करोड़ रूपए जारी किए गए हैं।

राज्य कृषि उद्योग निगम

केंद्र सरकार और संबद्ध राज्य सरकारों द्वारा संयुक्त क्षेत्र की कंपनियों के रूप में 17 राज्य कृषि उद्योग निगमों की स्थापना की गई है। इन निगमों का उद्देश्य कृषि मशीनों का निर्माण और वितरण, कृषि निवेशों का वितरण, कृषि-आधारित उद्योगों की स्थापना और संचालन को प्रोत्साहन तथा किसानों और अन्य लोगों को तकनीकी सुविधाएं उपलब्ध कराना तथा परामर्श देना है। 1965 से 1970 के बीच आंध्र प्रदेश, असम, बिहार, गुजरात, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, जम्मू और कश्मीर, कर्नाटक, केरल, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, उड़ीसा, पंजाब, राजस्थान, उत्तरप्रदेश, तमिलनाडु और पश्चिम बंगाल में इनकी स्थापना हुई। कई राज्य सरकारों ने अपनी पूंजी बढ़ा दी है। छह राज्य कृषि उद्योग निगमों- उत्तर प्रदेश, तमिलनाडु, कर्नाटक, राजस्थान, गुजरात और पश्चिम बंगाल में केंद्र सरकार की हिस्सेदारी नहीं रही है। केंद्र सरकार ने इन राज्य सरकारों के पक्ष में अपने शेयरों का विनिवेश कर दिया है।
विधायी ढांचा
खतरनाक मशीन (नियमन) अधिनियम, (1983) 14 सितंबर, 1983 से प्रभावी हुआ। इस अधिनियम में खतरनाक मशीनें बनाने वाले किसी उद्योग के व्यापार, वाणिज्य और उत्पादन, तथा उत्पादों की आपूर्ति एवं उपयोग के नियमन का प्रावधान है, ताकि ऐसी मशीनें चलाने वाले व्यक्तियों की सुरक्षा सुनिश्चित की जा सके। इसमें ऐसी मशीनों के संचालन के समय होने वाली दुर्घटना में मृत्यु या शारीरिक अपंगता की स्थिति में मुआवजे के भुगतान-संबंधी प्रावधान भी किए गए हैं। फसलों की गहाई (थ्रेशिंग) में प्रयुक्त पावर थ्रेशरों को इस अधिनियम की परिधि में लाया गया है। केंद्रीय सरकार ने खतरनाक मशीन (नियमन) अधिनियम, 1985 को अधिसूचित कर पावर थ्रेशर लगाने आदि के बारे में विशेष निर्देश दिए हैं। पावर थ्रेशर के अतिरिक्त चैफ-कटर और गन्ने के कोल्हू को भी इस अधिनियम के दायरे में लाने का प्रस्ताव है।

पौध-संरक्षण

फसल-उत्पादन के लक्ष्य हासिल करने में पौध-संरक्षण की भूमिका महत्वपूर्ण रही है। पौध संरक्षण के महत्वपूर्ण घटकों में समन्वित कीट प्रबंधन को प्रोत्साहन, फसल पैदावार को कीटों और बीमारियों के दुष्प्रभाव से बचाने के लिए सुरक्षित और गुणवत्तायुक्त कीटनाशकों की उपलब्धता सुनिश्चित करना, ज्यादा पैदावार देने वाली नई फसल प्रजातियों को तेजी से अपनाए जाने के लिए संगरोधन (क्वारन्टीन) उपायों को सुचारू बनाना शामिल है। इसके अंतर्गत बाहरी कीटों के प्रवेश की गुंजाइश समाप्त करना और पौध-संरक्षण कौशल में महिलाओं को अधिकारिता प्रदान करने सहित मानव संसाधन विकास पर भी ध्यान दिया जाता है।

बागवानी

पूर्वोत्तर राज्यों, सिक्किम, जम्मू और कश्मीर, हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड में बागवानी के एकीकृत विकास के लिए प्रौद्योगिकी मिशन
सिक्किम सहित पूर्वोत्तर राज्यों में बागवानी की फसलों के एकीकृत विकास के लिए प्रौद्योगिकी मिशन पर केंद्र द्वारा प्रायोजित कार्यक्रम इस वर्ष के दौरान जारी रहा। इस योजना को जम्मू और कश्मीर, हिमाचल प्रदेश और उत्तरांचल में भी लागू किया गया है। इस योजना का उद्देश्य उत्पादन, फसल के बाद और खपत की कड़ी को जोड़ने के लिए पर्याप्त, समुचित और समय रहते ध्यान देने वाले उपाय करना है जिससे सपाट और उर्घ्वस्थ सिंचाई के माध्यम से सरकार द्वारा चलाए गए कार्यक्रमों को सुचारू रूप से चलाया जा सके। लघु किसान कृषि व्यापार संगठन (एसएफएसी) योजना के समन्वय में शामिल है।
प्रौद्योगिकी मिशन बागवानी विकास के सभी पहलुओं से संबंधित अपने चार/लघु मिशनों के माध्यम से एक सिरे से दूसरे सिरे तक विचार करता है। लघु मिशन-I में भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद द्वारा अनुसंधान का समन्वयन और कार्यान्वयन शामिल है। लघु मिशन-II में कृषि विभाग द्वारा समन्वित उत्पादन और उत्पादक गतिविधियों में सुधार लाना और राज्य के कृषि/बागवानी विभागों द्वारा उन्हें लागू करना शामिल है। लघु मिशन-III में राष्ट्रीय बागवानी बोर्ड द्वारा फसल के बाद के प्रबंधन विपणन और निर्यात में समन्वय रखा जाता है और लघु मिशन-IV में खाद्य प्रसंस्करण उद्योग मंत्रालय द्वारा प्रसंस्करण उद्योग में समन्वयन और कार्यान्वयन किया जाता है। राज्य स्तरीय लघु किसान कृषि व्यापार संगठनों को निचले स्तर पर कार्यक्रमों के कार्यान्वयन और उन्हें लागू करने वाले अधिकतर राज्यों का निरीक्षण के लिए गठित किया गया है। प्रौद्योगिकी मिशन के अंतर्गत वार्षिक कार्य योजनाओं/प्रस्तावों के आधार पर राज्यों को फंड उपलब्ध कराए जाते हैं जो संबंधित राज्य के मुख्य सचिव की अध्यक्षता में राज्य स्तरीय संचालन समिति द्वारा स्वीकृत की जाती है।
प्रमुख उपलब्धियां
विभिन्न बागवानी फसलों के अंतर्गत 2008-09 तक बहुत प्रगति की गई है। पूर्वोत्तर तथा हिमालय क्षेत्र से 494343 हेक्टेयर अतिरिक्त क्षेत्र को इसमें शामिल किया गया है। इनमें फल 303667 हेक्टेयर, सब्जी 77882 हेक्टेयर, मसाले 61985 हेक्टेयर, पौध फसलें 10443 हेक्टेयर, औषधि 6079 हेक्टेयर, सुगंधित पौधे 8640 हेक्टेयर, कंद मूल 1540 हेक्टेयर, फूल 24042 हेक्टेयर शामिल हैं। इसके अलावा 47 थोक बाजार, 262 ग्रामीण प्राथमिक बाजार, 64 अपनी मंडियां, 18 ग्रेडिंग प्रयोगशालाएं, 31 रîाुमार्ग और 49 प्रसंस्करण इकाइयां स्थापित की गईं। बेहतर उत्पादन के लिए मूलभूत सुविधाएं 935 नर्सरियां, 10032 सामुदायिक जल टैंक, 11106 ट्यूबवेल, 26 ऊतक विकास इकाइयां, ग्रीन हाउस 2496025 वर्ग मीटर, 25 आधुनिक पुष्पोत्पादन केंद्र, 25 खुंब ईकाइयां, 15785 कंपोस्ट ईकाइयां, 164960 किसानों/प्रशिक्षकों का प्रशिक्षण, 67329 महिलाओं को प्रशिक्षित किया गया। परंपरागत फसलों में बेहतर उत्पादन
प्रौद्योगिकी के अलावा नींबू, केला, अनन्नास, किवी, सेब, गुलाब, आर्किड, टमाटर, तरह-तरह की मिर्चों के व्यावसायिक स्तर पर उत्पादन को बढ़ावा दिया।
वर्ष 2007-08 में 323.40 करोड़ रूपए के बजट आवंटन में 321.76 करोड़ रूपए से 127850 हेक्टेयर क्षेत्र बागवानी फसलों के अंतर्गत लाया गया (फल 82494, सब्जी 16306, मसाले 11692, पौध फसलें 2125, औषधीय और सुगंधित पौधे-3760 हेक्टेयर आदि)। फसलों का उत्पादन और उत्पादकता बढ़ाने के लिए ढांचागत सुविधाएं प्रदान की गईं। इनमें 165 नर्सरियां, 1877 सामुदायिक जल टैंक, 3068 ट्यूबवेल, 350953 वर्ग मीटर ग्रीन हाउस, 1766 कंपोस्ट ईकाइयां, 37524 किसानों, 18325 महिलाओं को प्रशिक्षण के अलावा बाजार और प्रसंस्करण ईकाइयों की स्थापना की गई जो परियोजना आधारित थी। पिछले वित्तीय वर्ष 2008-09 में विभिन्न बागवानी फसलों के अंतर्गत 148071 हेक्टेयर क्षेत्र लाया गया (फल 104064, सब्जी 20333, मसाले 12, पौध फसलें 1902, औषधीय और सुगंधित पौधे 3429 हेक्टेयर आदि)। फसलों का उत्पादन और उत्पादकता बढ़ाने के लिए 59 नर्सरियां, 838 सामुदायिक प्रति टैंक, 2088 ट्यूब वेल, 317049 वर्ग मीटर ग्रीन हाउस, 12 आधुनिक पुष्पोत्पादन केंद्र, खुंब इकाई-एक, 2851 कंपोस्ट ईकाइयां, 27752 किसानों/प्रशिक्षकों, 14083 महिलाओं को प्रशिक्षण के अलावा बाजार और प्रसंस्करण इकाइयां स्थापित की गईं।
वित्तीय स्थिति
वर्ष 2001-02 से 2008-09 तक मिशन के तहत 1538.60 करोड़ रूपए जारी किए गए जिसमें से 1122.37 करोड़ रूपए पूर्वोत्तर के तथा 415.63 करोड़ रूपए हिमालय क्षेत्र के राज्यों के लिए दिए गए। चालू वित्तीय वर्ष 2009-10 में 349 करोड़ रूपए में से 280 करोड़ रूपए पूर्वोत्तर के तथा 69 करोड़ रूपए हिमालय क्षेत्र के राज्यों के लिए हैं। ग्यारहवीं योजना के लिए आवंटित राशि 1500 करोड़ रूपए है लेकिन पूर्वोत्तर और हिमालय क्षेत्र के राज्यों की आवश्यकता पूरी करने के लिए इसको 2500 करोड़ रूपए की दर कम है।
इस योजना के अंतर्गत, महिलाओं को समान अवसर उपलब्ध कराते हुए आत्मनिर्भर बनाना भी शामिल है ताकि महिलाएं भी मौजूदा कृषि प्रणाली से होने वाले लाभों को प्राप्त कर सकें। स्व-सहायता समूह बनाने के लिए महिला संगठनों को पर्याप्त संगठनात्मक, तकनीकी प्रशिक्षण और वित्तीय सहायता उपलब्ध कराना। मिशन के तहत बागवानी के विभिन्न पहलुओं में 2007-08 में 51262 महिला उद्यमियों को और 2008-09 में अब तक 4037 को प्रशिक्षित किया गया है। केंद्रीय बागवानी संस्थान, मेजिफेमा, नगालैंड
पूर्वोत्तर क्षेत्र में बागवानी विकास की महत्ता को समझते हुए केंद्र सरकार ने नगालैंड में केंद्रीय बागवानी संस्थान की स्थापना को जनवरी, 2008 में मंजूरी दी जिसे पांच वर्ष में 20 करोड़ रूपए दिए जाएंगे। 10वीं योजना के लिए 8.35 करोड़ रूपए रखे गए हैं। संस्थान की स्थापना मेजिफेमा में 43.50 हेक्टेयर क्षेत्र में की जा रही है।

राष्ट्रीय बांस मिशन

देश में बांस की पैदावार बढ़ाने के लिए कृषि मंत्रालय का कृषि एवं सहकारिता विभाग देश के 27 राज्यों में राष्ट्रीय बांस मिशन का क्रियान्वयन कर रहा है। योजना के लिए वर्ष 2006-07 से 2010-11 के लिए 568.23 करोड़ रूपए आवंटित किए गए हैं।

मिशन का उद्देश्य

बांस क्षेत्र का क्षेत्रीय विशिष्टता के आधार पर प्रोत्साहन। क्षमता वाले, क्षेत्रों में बेहतर किस्म के बांस लगाने को बढ़ावा देकर क्षेत्र का विस्तार।
बांस और बांस आधारित हस्तशिल्प के विपणन को प्रोत्साहन के विकास के लिए संबद्ध भागीदारों में सहयोग बढ़ाना।
परंपरागत और आधुनिक वैज्ञानिक प्रौद्योगिकी का विकास एवं प्रसार। कुशल और अकुशल लोगों के लिए, खासकर बेरोजगार युवाओं के लिए, रोजगार के अवसर उपलब्ध कराना।
वित्तीय समीक्षा
वर्ष 2006-07 में 15 राज्यों के लिए 7570.60 लाख रूपए जारी किए गए। वर्ष 2007-08 में अनुसंधान एवं विकास के लिए 359.80 लाख रूपए सहित 11439.62 लाख रूपए दिए गए। वित्तीय वर्ष 2008-09 में अनुसंधान एवं विकास संस्थानों के लिए 123.74 लाख रूपए सहित विभिन्न राज्यों/क्रियान्वयन संस्थानों को 8466.60 लाख रूपए जारी किए गए।
चालू वित्तीय वर्ष में 7000 लाख रूपए का बजट प्रावधान है। इसमें से अभी तक 775.30 लाख रूपए छत्तीसगढ़, झारखंड, केरल, मिजोरम और नगालैंड को दिए जा चुके हैं।
उपलब्धियां
वन और गैर-वन क्षेत्रों का 1,00,456 हेक्टेयर बांसबागान के तहत लाया गया है। वर्तमान बांसबागान के 28043 हेक्टेयर क्षेत्र का उपचार बांस उत्पादकता बढ़ाने के लिए किया गया। अच्छे किस्म के पौध उपलब्ध कराने के लिए सार्वजनिक और निजी क्षेत्र में 996 बांस नर्सरियां स्थापित की गईं। बांस बागान के वैज्ञानिक प्रबंधन के लिए 2006-07 से 2008-09 तक 29290 किसानों और 3653 कर्मियों को प्रशिक्षण दिया गया। इसके विस्तार और आम जागरूकता पैदा करने के लिए 28 राज्य और 332 जिला स्तरीय कार्यशालाओं का आयोजन किया गया। बांस और बांस उत्पादनों की बिक्री को बढ़ावा देने के लिए बांस के थोक खुदरा बाजारों की स्थापना की गई।

बीज

कृषि उत्पादन तथा विभिन्न कृषि जलवायु क्षेत्रों में पैदावार बढ़ाने के लिए बीज एक महत्वपूर्ण और बुनियादी आधार है। मोटे तौर पर भारतीय बीज कार्यक्रम बीजों के बहुगुणन के लिए सीमित जनन प्रणाली अपनाता है। इस प्रणाली में बीज की तीन पीढ़ियों-प्रजनक, आधार और प्रमाणित बीजों को स्वीकार किया जाता है, और बीज बहुगुणन शृंखला में गुणवत्ता आश्वासन के लिए इसमें पर्याप्त सुरक्षा व्यवस्था होती है, जिससे प्रजनक से किसानों तक बीजों के प्रवाह के दौरान प्रमाणित/किस्म की शुद्धता बनाए रखने में मदद मिलती है।
भारतीय बीज विकास कार्यक्रम में केंद्र और राज्य सरकारों, भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद् (आईसीएआर), राज्य कृषि विश्वविद्यालय (एसएयू) प्रणाली, सार्वजनिक क्षेत्र, सहकारी क्षेत्र और निजी क्षेत्र के संस्थानों का योगदान शामिल है। इस क्षेत्र में राष्ट्रीय स्तर के दो निगम राष्ट्रीय बीज निगम (एनएससी) और भारतीय राज्य फार्म निगम (एसएफसीआई), 13 राज्य बीज निगम (एसएससी) और निजी क्षेत्र की लगभग 100 प्रमुख बीज कंपनियां कार्यरत हैं। गुणवत्ता नियंत्रण और प्रमाणन के लिए 22 राज्य बीज प्रमाणन एजेंसियां तथा 101 राज्य बीज परीक्षण प्रयोगशालाएं हैं। बीजों के उत्पादन और वितरण में निजी क्षेत्र महत्वपूर्ण भूमिका अदा करने लगा है, किंतु संगठित बीज क्षेत्र में खास कर खाद्य फसलों और अनाज के क्षेत्र में सार्वजनिक क्षेत्र का वर्चस्व बना हुआ है।
वैधानिक ढांचा और नीति
देश में बेचे जाने वाले बीजों की गुणवत्ता नियंत्रित करने के लिए बीज अधिनियम, 1966 विधायी ढांचा उपलब्ध कराता है। अधिनियम के तहत स्थापित केंद्रीय बीज समिति और केंद्रीय बीज प्रमाणन बोर्ड प्रमुख एजेंसियां हैं, जो इसके प्रशासन संबंधी सभी मामलों और बीजों की गुणवत्ता पर नियंत्रण के लिए जिम्मेदार हैं। बीज विधेयक 2004, केबिनेट ने अनुमोदित कर दिया है। किसानों के हित में बीजों के निर्यात को बढ़ावा देने के लिए बीज निर्यात प्रक्रिया सरल बनाई गई है। विभिन्न फसलों के बीज “ओपन जनरल लाइसेंस” के अंतर्गत रखे गए हैं। इनमें जंगली प्रजातियां, जनन द्रव्य, प्रजनक बीज तथा पटसन और प्याज के बीज शामिल नहीं हैं। 2002-07 के लिए सरकार की नई आयात-निर्यात नीति के अंतर्गत इन्हें प्रतिबंधित सूची में रखा गया है।

बीज प्रभाग की योजनाएं

(i) विभाग ने दसवीं पंचवर्षीय योजना के दौरान 159 करोड़ रूपये के परिव्यय के साथ केंद्रीय क्षेत्र की एक योजना शुरू की है, जिसका नाम है “गुणवत्तायुक्त बीजों के उत्पादन और वितरण के लिए बुनियादी सुविधाओं का विकास और सुदृढ़ीकरण”। इस योजना के मुख्य घटकों में बीजों के बारे में गुणवत्ता नियंत्रण प्रबंध, पूर्वोत्तर और अन्य पर्वतीय क्षेत्रों में बीजों की ढुलाई के लिए परिवहन सब्सिडी, बीज बैंक की स्थापना और रख-रखाव, बीज ग्राम योजना, बुनियादी सुविधाओं के निर्माण के लिए सहायता, निजी क्षेत्र में बीज उत्पादन के लिए सहायता, मानव संसाधन विकास, बीज निर्यात के लिए सहायता, कृषि में जैव प्रौद्योगिकी के अनुप्रयोग का प्रचार, चावल के संकर बीजों के इस्तेमाल को प्रोत्साहन तथा मूल्यांकन/समीक्षा शामिल है। विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्युटीओ) के बौद्धिक संपदा अधिकरों पर व्यापार संबंधी पहलुओं (ट्रिप्स) के अनुच्छेद 27 (3) बी के अंतर्गत बाध्यताओं को पूरा करने के लिए कृषि एवं सहयोग विभाग ने पौध किस्मों तथा किसानों के अधिकारों की रक्षा के लिए एक कानून लागू किया है। कानून में पौध की नई किस्मों के विकास को प्रोत्साहित करने, पौधे की किस्मों का संरक्षण, किसानों के अधिकारों और पौध प्रजनकों के संरक्षण के लिए प्रभावी प्रणाली स्थापित करने की व्यवस्था है। उक्त कानून को आवश्यक सहायता मुहैया कराने के नजरिए से एक केंद्रीय क्षेत्र योजना क्रियान्वित की जा रही है। योजना 11 नवंबर 2005 को स्थापित पौध किस्मों के संरक्षण तथा किसान अधिकार प्राधिकरण (पीपीवीएंडएफआर) द्वारा लागू की गई है। प्राधिकरण 14 चुनिंदा फसलों से संबंधित पौध किस्मों के पंजीकरण कराने की प्रक्रिया में है। 35 विभिन्न फसलों के लिए विशिष्टता, एकरूपता और स्थिरता (डीयूएस) के लिए परीक्षण हेतु राष्ट्रीय मसौदा दिशानिदर्देश बनाए जा चुके हैं। योजना का मुख्य उद्देश्य प्राधिकरण की स्थापना के लिए वित्तीय सहयोग प्रदान करना तथा डीयूएस के लिए परीक्षण दिशानिर्देश को विकसित करने के लिए वित्तीय सहायता प्रदान करने के साथ-साथ डीयूएस केंद्रों को मजबूत और उपकरणों से लैस करना है।
11वीं योजना में इसमें 12 घटक होंगे और पीपीवी एवं एफआर अधिनियम को लागू करने के लिए 120 करोड़ रूपए आवंटित किए गए हैं। तदनुसार प्राधिकरण की दो शाखाएं और पौध किस्मों के संरक्षण अपीली अधिकरण (पीवीपी) के अलावा 11वीं योजनावधि के अन्य योजनाओं को लागू किया जाएगा।

सहकारी ऋण ढांचे में सुधार

अगस्त 2004 में केंद्र सरकार ने प्रो. ए. वैद्यनाथन की अध्यक्षता में एक कार्यदल बनाया था। इस कार्यदल का काम सहकारी ऋण संगठनों की स्थिति में सुधार लाना था। कार्यदल ने अपनी रिपोर्ट सौंप दी है जिसमें लघु अवधि सहकारी ऋण का ढांचा और लघु अवधि ग्रामीण ऋण सहकारी संगठनों के लिए 14839 करोड़ रूपये के वित्तीय पैकेज की सिफारिश की गई है। इस पैकेज के अंतर्गत होने वाला नुकसान, बिना भुगतान गारंटी, राज्य सरकारों द्वारा शेयर पूंजी की वापसी, मानव संसाधन विकास, विशेष ऑडिट का आयोजन और कार्यान्वयन लागत शामिल है।
राज्य सरकारों द्वारा आपसी सहमति से सरकार ने 13,596 करोड़ रूपये की वित्तीय सहायता के साथ लघु अवधि ग्रामीण सहकारी ऋण ढांचे को फिर से सुधारने के पैकेज को मंजूरी दे दी है। पैकेज के अंतर्गत वित्तीय सहायता के प्रावधान का संबंध सहकारी क्षेत्र में सुधार करना है। इसी कार्यदल को दीर्घावधि सहकारी ऋण ढांचे की समस्याओं की जांच करने और उनके पुनरूत्थान के बारे में उपाय सुझाने को कहा गया है। इस संबंध में कार्यदल की रिपोर्ट तैयार होने के बाद ही सरकार दीर्घावधि सहकारी ऋण ढांचे में सुधार के लिए कदम उठायेगी। अब तक 25 राज्यों आंध्र प्रदेश, अरूणाचल, असम, बिहार, छत्तीसगढ़, गुजरात, हरियाणा, जम्मू और कश्मीर, झारखंड, कर्नाटक, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, सिक्किम, तमिलनाडु, त्रिपुरा, उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल ने सरकार और नाबार्ड के साथ समझौते के प्रारूप पर हस्ताक्षर किया है। इससे 96' पीएसीएस और 96' केंद्रीय सहकारी बैंक इसमें आ गए हैं। दस राज्यों के 37,821 पीएसीएस के पुनर्पूंजीकरण के लिए नाबार्ड ने भारत सरकार के हिस्से के रूप में 6170.25 करोड़ रूपए जारी किए है जबकि राज्यों ने अपनी हिस्सेदारी के रूप में 614.75 करोड़ रूपए दिए हैं। दीर्घकालिक सहकारी ऋण सोसाइटियों (एलटीसीसी) के पुनर्जीवन के लिए केंद्र ने 3070 करोड़ रूपए मंजूर किए हैं।

सहयोग

सहकारिता सुधार

देश में सहकारिता आंदोलन कृषि और उससे संबद्ध क्षेत्रों से शुरू हुआ। यह शुरूआत लोगों को थोक की अर्थव्यवस्था का फायदा दिलाने के लिए उनके मामूली संसाधनों को इकट्ठा करने के तरीके के तौर पर हुई। स्वतंत्रता-प्राप्ति के बाद सहकारिता को नियोजित आर्थिक विकास की रणनीति का हिस्सा माना गया। सहकारी संस्थाएं आज तेजी से उभर रहे आर्थिक उदारीकरण और विश्वव्यापीकरण के परिदृश्य में अपने अस्तित्व को लेकर ऊहापोह में हैं। इन संस्थाओं को आमतौर पर संसाधनों की कमी, लचर प्रशासन, प्रबंधन, अक्षमता और आर्थिक अव्यवहार्यता आदि समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है। इसलिए सहकारिता के भविष्य के लिए सहकारिता सुधार महत्वपूर्ण है।

राष्ट्रीय सहकारिता नीति

राज्यों, केंद्रशासित प्रदेशों के परामर्श से केंद्रीय सरकार ने राष्ट्रीय सहकारिता नीति तैयार की है। इस नीति का उद्देश्य देश में सहकारी संगठनों के चहुंमुखी विकास को बढ़ावा देना है। यह नीति सरकार द्वारा सहकारी संस्थाओं के लिए किए जाने वाले कार्यों के बारे में निर्देशक सिद्धांतों के रूप में काम करेगी। इस नीति के अंतर्गत सहकारी संगठनों को आवश्यक समर्थन, प्रोत्साहन और सहायता दी जाएगी तथा यह
सुनिश्चित किया जाएगा कि वे ऐसे स्वायत्तशासी, आत्मनिर्भर और लोकतांत्रिक संस्थानों के रूप में काम कर सकें, जो अपने सदस्यों के प्रति पूर्ण रूप से जवाबदेह हों।
बहुराज्यीय सहकारी समितियां (एमएससीएस) अधिनियम, 2002 — केंद्र सरकार ने बहुराज्यीय सहकारी समितियां अधिनियम, 1984 के स्थान पर बहुराज्यीय सहकारी समितियां अधिनियम, 2002 पारित करके सहकारी संगठनों को अपेक्षित स्वायत्तता प्रदान की है। इसका लक्ष्य बहुराज्यीय सहकारी समितियों को कामकाज में स्वायत्तता प्रदान करना और उनके लोकतंत्र प्रबंधन की व्यवस्था करना है। हालांकि यह अधिनियम राष्ट्रीय स्तर की सहकारी समितियों/परिसंघों और अन्य बहुराज्यीय सहकारी समितियों पर लागू होता है, फिर भी यह उम्मीद की जाती है कि यह राज्य सहकारी नियमों में सुधारों के लिए आदर्श अधिनियम के रूप में काम करेगा।
बहुराज्यीय सहकारी समितियां (संशोधन) अधिनियम, 2002 — बहुराज्यीय सहकारी समितियां अधिनियम, 1962 में संशोधन करके मौजूदा कार्यक्रमों के अतिरिक्त खाद्य पदार्थ, औद्योगिक वस्तुएं, मवेशी और सेवाओं को कार्यक्रमों एवं गतिविधियों में शामिल किया गया। कृषि उत्पादों की परिभाषा में संशोधन करके उनके अंतर्गत खाद्य और अखाद्य तिलहनों, मवेशी आहार, बागवानी और पशुपालन उत्पाद, वानिकी, मुर्गी पालन, मत्स्य-पालन और कृषि-संबंधी अन्य गतिविधियों को शामिल किया गया है। संशोधित अधिनियम के अंतर्गत औद्योगिक वस्तुओं और मवेशी की परिभाषा को व्यापक बनाते हुए ग्रामीण क्षेत्रों में संबंधित उद्योगों के उत्पादों तथा किसी भी हस्तशिल्प या ग्रामीण शिल्प को शामिल किया गया। मवेशी के अंतर्गत दूध, मांस, ऊन, खाल और सह-उत्पादों के लिए पाले जाने वाले सभी पशु शामिल होंगे। एनसीडीसी स्वयं की संतुष्टि के लिए प्रतिभूति भरने पर राज्य/केंद्र सरकार की गारंटी के बिना सहकारी संस्थाओं को सीधे ऋण प्रदान करेगा। अभी तक जल संरक्षण, मवेशी स्वास्थ्य/देखभाल, बीमारियों की रोकथाम, कृषि बीमा और कृषि ऋण, ग्रामीण स्वच्छता/जलनिकासी/सीवर प्रणाली आदि गतिविधियों को अधिसूचित सेवाओं के रूप में अधिसूचित किया जा चुका है।
सहकारी संस्थाओं के संदर्भ में संविधान में संशोधन
राज्य सहकारी समिति अधिनियमों में संशोधन किए जाने के बावजूद राज्यों द्वारा सहकारी कानूनों में सुधारों की प्रक्रिया उत्साहजनक नहीं रही है। इसलिए सहकारी संस्थाओं की लोकतांत्रिक, स्वायत्त और व्यावसायिक कार्यप्रणाली सुनिश्चित करने के लिए यह फैसला किया गया कि संविधान में संशोधन का प्रस्ताव तैयार किया जाए। यह निर्णय 7 दिसंबर, 2004 को राज्य के सहकारिता मंत्रियों के सम्मेलन में भलीभांति विचार-विमर्श के बाद किया गया। संविधान में प्रस्तावित संशोधन का उद्देश्य सहकारी संस्थाओं के स्वैच्छिक गठन, स्वायत्त कार्यप्रणाली, लोकतांत्रिक नियंत्रण और व्यावसायिक प्रबंधन के जरिए उन्हें अधिकार प्रदान करने के महत्वपूर्ण मुद्दों का समाधान करना है। संविधान के एक सौ छठे संशोधन विधेयक 2006 के प्रस्ताव को लोकसभा में 22 मई, 2006 को रखा गया था।
उच्च अधिकार प्राप्त समिति का गठन
सहकारिता आंदोलन के पिछले 100 वर्षों में इस आंदोलन की उपलब्धियों और उसके समक्ष प्रस्तुत चुनौतियों की समीक्षा करने और उनका सामना करने के तौर-तरीके सुझाने तथा आंदोलन को नई दिशा प्रदान करने के लिए उच्चाधिकार प्राप्त समिति का गठन किया गया है, जो निम्नलिखित विषयों पर विचार करेगी-
  1. पिछले सौ वर्षों के दौरान सहकारिता की उपलब्धियों की समीक्षा करना।
  2. उन चुनौतियों का पता लगाना, जिनका सामना सहकारिता क्षेत्र को करना पड़ रहा है और उनके
समाधान के उपाय सुझाना, ताकि बदले हुए सामाजिक-आर्थिक वातावरण के साथ आंदोलन गति बनाए रख सके।
  1. देश में सहकारी संस्थाओं की लोकतांत्रिक, स्वायत्त और व्यावसायिक कार्यप्रणाली सुनिश्चित करने
के लिए सहकारिता कानून में अपेक्षित संशोधनों और तत्संबंधी समुचित नीति तथा विधायी फ्रेमवर्क के बारे में सुझाव देना। समिति ने एमएससीएस अधिनियम, 2002 और संविधान के (106वें) संशोधन विधेयक, 2006 में संशोधन के बारे में अंतरिम रिपोर्ट दे दी है। समिति ने मई, 2009 में रिपोर्ट दी है और उसकी सिफारिशों पर गौर किया जा रहा है।

राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा मिशन

राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा मिशन का केंद्र प्रायोजित योजना देश में 11वीं योजना के अंत तक चावल, गेहूं और दालों का उत्पादन क्रमश— 10,8 और 2 मिलियन टन बढ़ाने के लिए शुरू की गई है। मिशन 17 राज्यों के 312 जिलों में 2007-08 के रबी फसल से लागू हो गया है।
एनएफएसएम के तहत लक्ष्योन्मुख प्रौद्योगिकी हस्तक्षेप का शुरू से ही महत्त्वपूर्ण प्रभाव पड़ा है और वर्ष 2007-08 में चावल का उत्पादन 96.69 मिलियन टन रिकार्ड किया गया, जबकि 2006-07 में 93.35 मिलियन टन था। इस प्रकार इसमें 3.34 मिलियन टन की वृद्धि हुई। तदनुसार 2008-09 के तृतीय अग्रिम अनुमान में चावल का उत्पादन 99.37 मिलियन टन हो गया जो 2007-08 के मुकाबले 2.68 मिलियन टन और 2006-07 के मुकाबले 6.02 मिलियन अधिक है। गेहूं के मामले में स्थिति उत्साहजनक रही और गेहूं का उत्पादन 2007-08 में 78.57 मिलियन टन हुआ, जबकि 2006-07 में 75.81 मिलियन के मुकाबले 2.76 मिलियन टन अधिक रहा। नतीजतन 2008-09 में तीसरे अग्रिम अनुमान के अनुसार गेहूं का उत्पादन 77.63 मिलियन रहा, जो 2006-07 से 1.63 मिलियन टन अधिक रहा। दालों का उत्पादन 2006-07 में 14.20 मिलियन टन रिकार्ड किया गया था, 2007-08 में 14.76 मिलियन टन हुआ जो 0.56 मिलियन टन अधिक रहा। तीसरे अग्रिम अनुमान के अनुसार दालों का उत्पादन 14.18 मिलयन टन होने की आशा है, जो 2006-07 की तुलना में स्थिर रहा।

समन्वित पोषक तत्त्व प्रबंधन

समन्वित पोषक तत्त्व प्रबंधन (आईएनएम) का मुख्य उद्देश्य किसानों को उनकी समयबद्ध मांगों का आकलन कर समय पर गुणवत्तायुक्त उर्वरकों की आपूर्ति करना, मिट्टी के परीक्षण के आधार पर संतुलित मात्रा में उर्वरकों के इस्तेमाल और शहरी अपशिष्ट/कचरे से जैविक खाद्य बनाने को बढ़ावा देना है। इसके अलावा उर्वरक (नियंत्रण) आदेश, 1985 के क्रियान्वयन के जरिए जैविक कचरे से खाद्य बनाने तथा उर्वरकों की गुणवत्ता सुनिश्चित करते हुए इस बात पर जोर देना है कि जैविक और रासायनिक खादों के जरिए पोषक तत्त्वों के सभी स्रोतों का समन्वित इस्तेमाल हो।

उर्वरकों की खपत

चीन और अमरीका के बाद भारत विश्व में उर्वरकों का सबसे बड़ा उत्पादक और उपभोक्ता देश है। हमारा देश यूरिया के मामले में शत-प्रतिशत आत्मनिर्भर है, जबकि डी.ए.पी. के मामले में इसकी आत्मनिर्भरता 90 प्रतिशत है। पूरे देश में उर्वरकों की खपत 96.4 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर है, हालांकि कृषि 79 राज्यवार खपत में काफी अंतर है। पंजाब में इसकी खपत 197 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर है, जबकि हरियाणा में 164 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर है। इसके विपरीत अरूणाचल प्रदेश, नगालैंड, सिक्किम जैसे राज्यों में 10 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर से भी कम है। उर्वरक खपत के असंतुलित स्वरूप को ध्यान में रखते हुए सरकार इसके संतुलित और समन्वित प्रयोग को विभिन्न गतिविधियों के माध्यम से प्रोत्साहन दे रही है। परिणामस्वरूप, एनपी के उपयोग अनुपात 2000-01 के 7—2.7—1 से 2004-05 के दौरान 5.7—2.2—1 हो गया। उर्वरकों के मूल्य इस समय यूरिया उर्वरक का मूल्य सरकार द्वारा तय किया जाता है। किसानों को उचित दामों पर इसकी आपूर्ति जारी रखने के लिए केंद्र सरकार की ओर से सब्सिडी दी जाती है। देश में यूरिया की खपत सबसे अधिक है। इसलिए नई यूरिया मूल्य निर्धारण योजना के तहत यह रियायत दी जाती है। पी. और के. उर्वरक नियंत्रित श्रेणी में नहीं थे। अब इसे भी आर्थिक रियायत योजना में शामिल कर लिया गया है। विशेष भाड़ा सब्सिडी की मौजूदा नीति को पूर्वोत्तर राज्यों और जम्मू और कश्मीर को उर्वरक आपूर्ति के लिए जारी रखा गया है। प्रमुख उर्वरकों के मूल्यों में 28-2-2002 से कोई बदलाव नहीं किया गया है। मिश्रित ग्रेड उर्वरकों की कीमतें पोषण आधारित सरकारी उर्वरक की कीमतों की तरह 14 जून, 2008 से घटा दी गई हैं जो इस प्रकार हैं — उर्वरक उत्पाद अधिकतम खुदरा मूल्य (रूपये प्रति मीट्रिक टन में)
यूरिया 4830
डीएपी (स्वदेशी) 9350
मिश्रित 5121-8185
एमओपी 4455
एसएसपी 3400

पी और के उर्वरकों की बफर स्टॉकिंग

दूरदराज और दुर्लभ क्षेत्रों में अनियंत्रित उर्वरकों की पर्याप्त उपलब्धता को सुनिश्चित करने के लिए डीएपी और एमओपी की सीमित मात्रा के बफर स्टॉक की एक योजना बनाई गई है जिससे इसकी आवश्यकता पड़ने पर इसको पूरा किया जा सकेगा। यह स्टाक सचल होता है और कमी होने पर उसकी भरपाई की जाती है। आपात जरूरतों को पूरा करने के अलावा यह स्टाक राज्यों की आवश्यकताओं को पूरा करता है।

उर्वरक गुणवत्ता नियंत्रण

सरकार आवश्यक उपभोक्ता वस्तु अधिनियम के अंतर्गत जारी उर्वरक नियंत्रण आदेश (एफसीओ) के माध्यम से उर्वरकों की गुणवत्ता सुनिश्चित करती है। इससे देश में उर्वरकों के मूल्य, व्यापार, नीति और वितरण को नियमित बनाने में मदद मिलती है। राज्य सरकारें उर्वरक नियंत्रण आदेश के विभिन्न प्रावधानों को लागू करने में कार्यकारी एजेंसी की भूमिका निभाती हैं। इस आदेश के जरिए ऐसे उर्वरकों के विनिर्माण, आयात और बिक्री पर रोक लगाई जाती है, जो निर्धारित मानक पूरे न करते हों। केंद्रीय
उर्वरक गुणवत्ता नियंत्रण और प्रशिक्षण संस्थान फरीदाबाद में स्थित है और इसके तीन क्षेत्रीय केंद्र नवी मुंबई, चेन्नई और कल्याणी में स्थापित किए गए हैं, जो आयातित और स्वदेशी उर्वरकों का निरीक्षण और विश्लेषण करते हैं, तकनीकी परामर्श देते हैं, और राज्य प्रर्वतन एजेंसियों तथा विश्लेषकों को गुणवत्तानियं त्रण का प्रशिक्षण देते हैं। संस्थान ने उर्वरकों में होने वाली मिलावट की तुरंत जांच के लिए एक टेस्टिंग किट भी विकसित की है।
उर्वरक-नियंत्रण आदेश में हाल ही में संशोधन किया गया, ताकि इसे उपभोक्ताओं के अधिक अनुकूल बनाया जा सके और कारगर ढंग से लागू किया जा सके। महत्वपूर्ण संशोधनों में कटे-फटे उर्वरक-थैलों की पुन— पैकेजिंग और प्राकृतिक आपदा से क्षतिग्रस्त हुए उर्वरकों की पुन— प्रोसेसिंग तथा अस्थायी उर्वरकों के व्यावसायिक ट्रायलों के लिए प्रावधान शामिल हैं। तदनुरूप नेशनल फर्टिलाइजर्स लिमिटेड, इन्डो-गल्फ फर्टिलाइजर्स और श्रीराम फर्टिलाइजर्स को अनुच्छेद 20 ए के अंतर्गत नीम- आलेपित यूरिया के वाणिज्यिक ट्रायलों के लिए विनिर्माण की अनुमति दी गई है। इसी प्रकार मेसर्ज इफ्को को बोरोन और जिंक के साथ सुदृढ़ मिश्रित उर्वरकों के उत्पादन और मेसर्ज कोरोमंडल फर्टिलाइजर्स लिमिटेड को बोंटोनाइट सल्फर के उत्पादन की अनुमति दी गई है। यूरिया सहित सभी उर्वरकों पर अधिकतम खुदरा मूल्य, आयात किए गए उर्वरक का महीना और वर्ष प्रिंट करना अनिवार्य कर दिया गया है।
इस समय देश में 67 प्रयोगशालाएं हैं। इनमें केंद्र सरकार की 4 प्रयोगशालाएं शामिल हैं। इन प्रयोगशालाओं में वर्ष में 1.31 लाख नमूनों की जांच करने की क्षमता है।

राष्ट्रीय कार्बनिक खेती परियोजना

अक्टूबर 2004 में दसवीं पंचवर्षीय योजना की शेष अवधि के दौरान देश में कार्बनिक खेती के उत्पादन, प्रोत्साहन और बाजार विकास के लिए 57.05 करोड़ रूपये के परिव्यय के साथ राष्ट्रीय कार्बनिक खेती परियोजना नामक नई योजना प्रारंभ की गई। योजना 11वीं योजना में भी जारी है, जिसके लिए 115 करोड़ रूपए आवंटित किए गए है। जैव उर्वरकों का विकास और उपयोग की राष्ट्रीय परियोजना, जो पहले शुरू की गई थी, इसी में मिला दी गई है। योजना के मुख्य उद्देश्य हैं—
(i) सेवा प्रदाताओं के माध्यम से क्षमता निर्माण (ii) अकार्बनिक उत्पादक इकाई जैसे फलों और सब्जियों के कचरे के लिए कंपोस्ट इकाई जैव उर्वरक, जैवकीटनाशक और कृमिपालन उत्पत्तिशालाओं के लिए वित्तीय और तकनीकी सहायता (iii) प्रशिक्षण और प्रदर्शन से मानव संसाधन विकास (i1) जागरूकता और बाजार विकास (1) अकार्बनिक वस्तुओं की गुणवत्ता नियंत्रण। जैव उर्वरकों के संवर्धन की पिछली योजना के जारी रहने से देश में 169 जैव उर्वरक उत्पादन इकाइयां है जिनकी 67 हजार मी.टन है और वार्षिक उत्पादन 28 हजार टन से अधिक जैव उर्वरक और 18800 टन से अधिक जैवकीटनाशकों सहित अन्य टीके हैं। योजना के तहत 708 टन कृषि कचरे को कंपोस्ट, 5606 मी.ट. जैव उर्वरक और 17000 टन कृमि और कृमिकंपोस्ट के प्रसंस्करण की क्षमता स्थापित की गई है।
योजना शुरू होने के बाद प्रमाणीकृत अकार्बनिक खेती क्षेत्र 42 हजार हेक्टेयर में 2003-04 में 20 गुना बढ़ोतरी हुई और यह 2007-08 में 865,00 हेक्टेयर हो गई। अकार्बनिक खाद्य का उत्पादन 2006-07 के 4.09 लाख टन से बढ़कर 2007-08 में 9.02 लाख टन हो गया।
एकीकृत पोषक प्रबंधन का संवर्धन (आईएनएम) — सरकार भूमि परीक्षण आधारित रसायन उर्वरकों, जैव उर्वरकों और स्थानीय स्तर पर उपलब्ध गोबर खाद् कंपोस्ट, नाडीप कंपोस्ट, कृमि कंपोस्ट और हरी खाद को संतुलित और उचित उपयोग को बढ़ावा दे रही है ताकि भूमि की उत्पादकता बरकरार रहे। 11वीं योजना की शेष अवधि के लिए 2008-09 में 429 करोड़ रूपए के आवंटन के साथ “भूमि और उर्वरता प्रबंधन की राष्ट्रीय परियोजना” (एनपीएमएसएफ) को मंजूरी दी गई। दो वर्तमान योजनाओं (i) केंद्र प्रायोजित उर्वरकों का संतुलित और एकीकृत उपयोग और (ii) केंद्रीय उर्वरक एवं गुणवत्ता नियंत्रण तथा प्रशिक्षण संस्थानों और उसके क्षेत्रीय प्रयोगशालाओं को 1 अप्रैल, 2009 से नई योजना में मिला दिया गया है। नई योजना के घटकों में 500 भूमि परीक्षण प्रयोगशालाओं की स्थापना, वर्तमान 315 प्रयोगशालाओं को मजबूत बनाना, भूमि परीक्षण के लिए 250 सचल प्रयोगशालाओं की स्थापना, अकार्बनिक खाद का संवर्धन, भूमि संशोधन, सूक्ष्म पोषकों का वितरण, उर्वरक गुणवत्ता नियंत्रण के लिए 20 नई प्रयोगशालाओं की स्थापना, वर्तमान 63 प्रयोगशालाओं को 11वीं योजना में मजबूत करना शामिल है।
देश में (2007-08) 686 भूमि परीक्षण प्रयोगशालाएं हैं। इनमें 500 स्थायी और 120 सचल प्रयोगशालाएं हैं, जिनका रख-रखाव राज्य सरकारें और उर्वरक उद्योग करते हैं। इनमें सालाना 70 लाख मिट्टी के नमूनों का विश्लेषण किया जा सकता है। वर्ष 2008-09 में एनपीएमएसएफ के तहत 42 नई 82 भारत-2010
भूमि परीक्षण स्थायी प्रयोगशालाओं (एसटीएल) 44 सचल भूमि परीक्षण प्रयोगशालाओं, 39 वर्तमान भूमि परीक्षण प्रयोगशाला।ओं, 2 नई उर्वरक गुणवत्ता नियंत्रण प्रयोगशालाओं और 16 राज्यों में 19 वर्तमान उर्वरक गुणवत्ता नियंत्रण प्रयोगशालाओं (एफक्यूसीएल) को मजबूत बनाने के लिए 16.63 करोड़ रूपए जारी किए गए।

सूचना प्रौद्योगिकी

कृषि और सहकारी विभाग मुख्यालय में आईटी उपकरण

आईसीटी पहल का जोर ई-गवर्नेंस पर है ताकि सूचना और संचार प्रौद्योगिकी का इस्तेमाल करने वाले किसानों को उन्नत सेवाओं का लाभ मिल सके।
कृषि और सहकारी विभाग हैदराबाद स्थित नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ स्मार्ट गवर्नमेंट (एनआईएसजी) की सहायता से कृषि में राष्ट्रीय ई-गवर्नेंस योजना तैयार कर रही है। यह दो-दो चरणों में लागू होगी। एनईजीपी का पहला चरण पूरा हो गया है और प्राथमिकता वाली सेवाओं लक्षित और प्रक्रियाओं का ई- गवर्नेंस गतिविधियों के तहत काम पूरा हो गया है। दूसरे चरण में केंद्र और राज्य स्तर पर कृषि में ई- गवर्नेंस लागू करने के लिए रणनीति, रूपरेखा और दिशा-निर्देश तैयार किए जाएंगे। दूसरा चरण निजी क्षेत्र और समाज की भूमिका को परिभाषित करेगा, जिस पर काम हो रहा है।
ई-गवर्नेंस पहल की सफलता के लिए हर स्तर पर उपकरण साफ्टवेयर और प्रशिक्षण के माध्यम से सहयोग आवश्यक है।

क्षेत्र कार्यालयों और डीएसी निदेशालयों में आईटी उपकरण

डैकनेट परियोजना (डीएसीएनईटी) के तहत निदेशालयों/क्षेत्र इकाइयों को मूलभूत ढांचा उपलब्ध करा दिया गया है और वे पूरी तरह से तैयार हैं। यह फैसला लिया गया कि सभी निदेशालय/क्षेत्र कार्यालय अपने बजट से अपना खर्च पूरा करेंगे। लेकिन नेटवर्किंग, साफ्टवेयर विकास और क्षेत्र कार्यालयों/ निदेशालयों के प्रशिक्षण का व्यय घटक के इस मद से पूरा किया जाएगा।

कृषि संसाधन सूचना प्रणाली (एजीआरआईएस)

दसवीं योजना स्कीम के इस घटक का उद्देश्य जीआईएस और आरएस प्रौद्योगिकी का इस्तेमाल करने वाले प्राकृतिक संसाधनों के अधिकतम उपयोग के लिए निर्णय प्रणाली का विकास है। दो अग्रणी जिलों हरियाणा के रोहतक और गुजरात के बनासकांठा में काम जारी है। ग्यारहवीं योजना में स्कीम के डैकनेट घटक में शामिल हो जाएगा और जारी पाइलट परियोजना को पूरा करने में मदद दी जाएगी।

कृषि सूचना और संचार का विकास

इस घटक का उद्देश्य कृषि संबंधी सभी आंकड़ों और वेब आधारित उपयोग के विकास का भंडार बनाना है। भूमि मानचित्रीकरण का अंकीकरण आंकड़ा, सीडनेट पोर्टल, डेटवेयर हाउसिंग, आरएफएस और जनसंचार विकास के पोर्टल विकास के विभिन्न चरणों में हैं। कृषि के विभिन्न विषयों के पोर्टलों का विकास संवर्धन एवं निरंतर प्रक्रिया है। आईएनएम बागवानी और सहकारिताओं आदि के पोर्टल बनाने का प्रस्ताव है।
पोर्टलों की संख्या बढ़ने और विषय सामग्री का विस्तार होता जाएगा तो उसको अद्यतन बनाने के लिए उचित ढांचे की जरूरत होगी। आशा है कि नियमित रूप से आंकड़े अद्यतन और वेब सामग्री की डिजाइनिंग के लिए जनशक्ति की जरूरत होगी। इन कार्यों को बाहर से कराने का प्रस्ताव है।

कृषि में आईटी उपकरणों को और राज्यों तथा केंद्र शासित प्रदेशों में सहयोग को मजबूत बनाना (आईआरआईएस नेट)

राज्यों की आईसीटी के उपयोग उन्नत सूचनाएं किसानों तक पहुंचाने में बहुत बड़ी भूमिका है। एग्रिसनेट को वर्तमान घटक को 11वीं योजना में जारी रखने तथा अधिक मजबूत बनाने का प्रस्ताव है। अभी तक 21 राज्यों ने एग्रिसनेट के तहत सहायता का उपयोग किया है। इन राज्यों में भी एटीएमए सीमित ई- गवर्नेंस के प्रयोग के लिए राशि जारी की गई है। देश भर के किसानों को उन्नत सूचनाएं प्रदान करने के लिए योजना के कई गुना विस्तार की आवश्यकता है। 10वीं योजना के अनुभवों के आधार पर और अधिक सेवाओं को एग्रिसनेंट के अंतर्गत लाने का प्रस्ताव है।

किसान कॉल सेंटर

देश में किसान कॉल सेंटर योजना 21 फरवरी, 2004 को शुरू की गई। इसका उद्देश्य किसानों को शुल्क मुक्त नंबर 1880-180-1551 से ऑन लाइन सूचनाएं प्रदान करना है। इस सुविधा का प्रचार दूरदर्शन और रेडियो कार्यक्रमों के माध्यम से किया जा रहा है। एक ज्ञान प्रबंधन प्रणाली स्थापित करने का प्रस्ताव है। 11वीं योजना में इसे जारी रखने का प्रस्ताव है।

तिलहन, दलहन और मक्का प्रौद्योगिकी मिशन

केंद्र सरकार ने तिलहन की पैदावार बढ़ाने, खाद्य तेलों का आयात घटाने और खाद्य तेलों में आत्मनिर्भरता प्राप्त करने के उद्देश्य से 1986 में तिलहन प्रौद्योगिकी मिशन शुरू किया था। इसके बाद दलहन, आयल पाम और मक्का को भी क्रमश— 1990-91, 1991-92 और 1995-96 में प्रौद्योगिकी मिशन के अंतर्गत लाया गया। इसके अलावा राष्ट्रीय तिलहन और वनस्पति तेल विकास बोर्ड भी गैर-परंपरागत तिलहनों के नए क्षेत्र खोलकर तिलहन, दलहन और मक्का प्रौद्योगिकी मिशन के प्रयासों में सहयोग देता रहा है। यह वृक्षों से प्राप्त होने वाले तिलहनों को प्रोत्साहन दे रहा है। तिलहन, दलहन और मक्का प्रौद्योगिकी मिशन की निम्नलिखित योजनाएं लागू की गई हैं —
(i) तिलहन उत्पादन कार्यक्रम (ओपीपी); (ii) राष्ट्रीय दलहन विकास परियोजना (एनपीडीपी);
(iii) त्वरित मक्का विकास कार्यक्रम (एएमडीपी); (i1) फसल कटाई के बाद की प्रौद्योगिकी (पीएचडी); (1) आयल पाम विकास कार्यक्रम (ओपीडीपी); (1i) राष्ट्रीय तिलहन और वनस्पति तेल विकास बोर्ड (एनओबीओडी)।

तिलहन, दलहन और मक्का के लिए समन्वित योजना

फसलों की विविधता को प्रोत्साहन देने के कार्यक्रमों के प्रति केंद्रीभूत दृष्टिकोण अपनाने के लिए राज्यों को क्षेत्रीय विशिष्टताओं के आधार पर उनके कार्यान्वयन में छूट देने के उद्देश्य से पहले से लागू चारों कार्यक्रमों-ओपीपी, ओपीडीपी, एनपीडीपी और एएमडीपी का विलय अब केंद्र द्वारा प्रायोजित एक ही योजना में कर दिया गया है, जिसे “तिलहन, दलहन आयल पाम और मक्का फसलों का समन्वित कार्यक्रम” कहा जाता है। यह कार्यक्रम दसवीं पंचवर्षीय योजना में एक अप्रैल, 2004 से कार्यान्वित किया जा रहा है। इसे तिलहन और दलहन की खेती करने वाले 14 प्रमुख राज्यों और मक्का के लिए 15 राज्यों तथा पाम आयल के लिए 10 राज्यों द्वारा लागू किया जा रहा है।
“तिलहन, दलहन, आयल पाम और मक्का फसलों के समन्वित कार्यक्रम” (आईएसओपीओएम) की विशेषताएं इस प्रकार हैं-(i) अपनी पसंद की फसलों के चुनाव और कार्यक्रमों के कार्यान्वयन में धन खर्च करने के मामले में राज्यों के प्रति लचीलापन; (ii) वार्षिक कार्ययोजना राज्य सरकारों द्वारा तैयार करके भारत सरकार की मंजूरी के लिए भेजा जाना; (iii) कुल स्वीकृत राशि का 10 प्रतिशत भाग राज्य सरकारों की ओर से शुरू किए जाने वाले नए कार्यक्रमों और उपायों के लिए खर्च करने की छूट; (i1) राज्य सरकारों को कुल निर्धारित वित्तीय प्रावधान का 15 प्रतिशत हिस्सा निजी क्षेत्र के सहयोग से कार्यक्रमों के कार्यान्वयन पर खर्च किए जाने की छूट; (1) केवल बीजरहित संघटकों के मामले में 20 प्रतिशत धनराशि के अंतर-घटक विचलन की छूट; तथा (1i) कृषि और सहकारिता विभाग की पूर्व अनुमति के साथ बीजयुक्त से बीजरहित संघटकों के लिए धन हस्तांतरण।
तिलहन उत्पादन कार्यक्रम के क्रियान्वयन से तिलहन की पैदावार बढ़ाने में मदद मिली है। वर्ष 1985-86 में तिलहन का उत्पादन 108.30 लाख था जो 2008-09 में बढ़कर 281.57 (IV अग्रिम अनुमान) लाख टन हो गया। देश में दलहन का उत्पादन 1989-90 में 128.60 लाख टन से बढ़कर 2008-09 में 146.62 (IV अग्रिम अनुमान) लाख टन हो गया। आयल पाम की खेती का क्षेत्र 1992- 93 के अंत तक 8585 हेक्टेयर था जो वर्ष 2008-09 तक बढ़कर 26178 हेक्टेयर हो गया है। ताजे फलों (एफएफबी) का वास्तविक उत्पादन वर्ष 2008-09 में 355480.36 टन था जिससे करीब 59007.40 टन कच्चे पाम आयल (सीपीओ) का उत्पादन हुआ। 1994-95 में मक्का का उत्पादन 88.84 लाख था जो वर्ष 2008-09 में (IV अग्रिम अनुमान) बढ़कर 192.87 लाख टन हो गया।

विस्तार

विस्तार सुधार के लिए राज्य विस्तार कार्यक्रम सहयोग

विस्तार सुधारों को जिला स्तर पर संचालित करने के लिए यह योजना 2005-06 के दौरान शुरू की गई। योजना का उद्देश्य एक कृषि प्रौद्योगिकी प्रबंधन एजेंसी (एटीएमए) के रूप में प्रौद्योगिक प्रसार के लिए सांस्थानिक प्रबंधन के जरिए विस्तार प्रणाली को किसान सहयोगी और जवाबदेह बनाना है। एजेंसी जिला और उसके निचले स्तर पर कार्यरत किसानों/किसान समूहों, एनजीओ, केवीके, पंचायती राज संस्थाओं तथा अन्य अंशधारकों के साथ सक्रिय भागीदारी करेगी। जारी होने वाला फंड राज्य सरकारों द्वारा तैयार राज्य विस्तार कार्य योजना (एसईडब्लुपी) पर आधारित है। 586 एटीएमए स्थापित किए जा चुके हैं; 517 से अधिक राज्य विस्तार कार्य योजनाएं बनाई जा चुकी हैं तथा किसान आधारित गतिविधियों के जरिए 17.97 लाख महिला किसानों (19.74 प्रतिशत) सहित 91 लाख किसान लाभ उठा चुके हैं और योजना की शुरूआत से अब तक 42.060 “किसान हित समूह” (एफआईजी) सक्रिय हो चुके हैं। इस कार्यक्रम के तहत 30 अगस्त, 2009 तक 474.62 करोड़ रूपये जारी हो चुके हैं।

कृषि के लिए मास मीडिया सहयोग

इस योजना के तहत दो पहल के ऊपर ध्यान केंद्रित किया जा रहा है। पहली पहल के रूप में किसान समुदाय को कृषि संबंधी सूचना और ज्ञान प्रदान करने के लिए दूरदर्शन का उपयोग शामिल है। जिसके तहत क्षेत्रीय केंद्रों द्वारा सप्ताह में पांच दिन 30 मिनट के कृषि कार्यक्रम प्रसारित किए जाते हैं। राष्ट्रीय प्रसारण के तहत सप्ताह के छह दिन कार्यक्रम प्रसारित किए जा रहे हैं। शनिवार को सफलता की कहानियां, नूतन खोज आदि की फिल्में कृषि एवं सहकारिता विभाग दूरदर्शन को मुहैया कराता है। रबी/ खरीफ अभियान, किसान कॉल सेंटर, किसान क्रेडिट कार्ड सुविधा जैसे मौजूदा मुद्दों पर ऑडियो/ विजुअल स्पॉट फ्री कमर्शियल टाइम (एफसीटी) पर प्रचारित किए जाते हैं तथा राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा मिशन (एनएफएसएम) का प्रचार अभियान भी किया गया। मास मीडिया पहल के तहत अन्य भाग के रूप में 96 एफएम का उपयोग शामिल है।

किसान कॉल सेंटर (केसीसी)

21 जनवरी, 2004 से शुरू किसान कॉल सेंटर देश के लगभग हर क्षेत्र में 14 विभिन्न स्थानों पर कार्य कर रहे हैं। वर्तमान में केसीसी में 144 एजेंट कार्यरत हैं जो 23 स्थानीय भाषाओं में किसानों के प्रश्नों के जवाब दे रहे हैं। देशभर में सातों दिन सुबह 6 बजे से रात के 10 बजे तक एक ही टोल फ्री नंबर 1551 और शुल्क मुक्त नंबर 1800-80-1551 पर डायल करके संपर्क किया जा सकता है। केसीसी की गतिविधियों की निगरानी हेतु प्रत्येक केसीसी के लिए राज्य स्तरीय निगरानी समिति (एसएलएमसी) बनाई गई है जिसमें सचिव (कृषि), कृषि एवं अन्य विकास विभागों के निदेशक, बीएसएनएल के प्रतिनिधि तथा केसीसी के नोडल अधिकारी केसीसी को चलाने में मदद करे रहे हैं। मांग के अनुरूप 25 स्थानों पर केसीसी सुविधा का विस्तार किया जा रहा है। कृषि और सहयोग विभाग ने किसान ज्ञान प्रबंधन प्रणाली केकेएमएस के रूप में एक डाटा निर्माण विकसित करने की पहल की है। केसीसी का प्रचार डीडी/एआईआर/डीएवीपी, सेमेटि, राज्यों/केंशाप्र के जरिए किया जा रहा है। जुलाई, 2009 तक किसान कॉल सेंटरों में 36 लाख से अधिक कॉलें प्राप्त हुईं।

कृषि विपणन

देशभर में कृषि जिन्सों के व्यवस्थित विपणन को प्रोत्साहित करने के लिए बाजार को नियंत्रित किया गया था। अधिकतर राज्य और केंद्रशासित प्रदेशों ने कृषि जिन्सों के विपणन को नियंत्रित करने के लिए एक अधिनियम (एपीएमसीएक्ट) बनाया था। साप्ताहिक बाजारों में से करीब 15 प्रतिशत बाजार इस अधिनियम के तहत कार्य करते हैं। नियंत्रित बाजारों की शुरूआत से उत्पादकों/विक्रेताओं को एक जगह इकट्ठे होकर थोक बिक्री में काफी सहूलियत हुई है, परंतु अभी भी सामान्य साप्ताहिक ग्रामीण बाजारों और खासकर आदिवासी बाजार इस व्यवस्था का लाभ नहीं उठा पा रहे हैं।
देश के ग्रामीण क्षेत्रों में विकास, रोजगार बढ़ाने और आर्थिक समृद्धि के लिए कृषि क्षेत्र में व्यवस्थित बाजार की बहुत आवश्यकता है। बाजार प्रणाली को अधिक गतिशील और कार्यकुशल बनाने के लिए फसल के बाद के विकास में अधिक से अधिक निवेश करने और किसानों के लिए खेतों के आस-पास ही कोल्ड स्टोरेज बनाने की आवश्यकता है। इस निवेश के लिए निजी क्षेत्र से अपेक्षा की जाती है जिसके लिए उचित कानून और नीतियां बनाने की आवश्यकता है। इसके साथ ही खेतों से या किसानों से सीधे ही कृषि उत्पाद खरीदने को प्रोत्साहित करने के लिए नीतियां बनाने की आवश्यकता है और कृषि उत्पादों और फुटकर विक्रेताओं और खाद्य प्रसंस्करण उद्योग के बीच एक प्रभावी संबंध बनाने की आवश्यकता है। देश में विपणन व्यवस्था को अनियंत्रित करने के लिए राज्य एपीएमसी कानून में आवश्यक सुधार करने का भी सुझाव दिया गया है ताकि विपणन, मूलभूत ढांचा और सहकारिता क्षेत्र में निवेश को प्रोत्साहन मिल सके।
कृषि मंत्रालय ने राज्य सरकारों के लिए कृषि विपणन के लिए दिशा-निर्देश बनाने और उन्हें अपनाने के लिए एक मॉडल कानून बनाया है। इस मॉडल कानून के अंतर्गत देश में कृषि बाजार के विकास और प्रबंधन में सार्वजनिक और निजी क्षेत्र की भागीदारी को प्रोत्साहित करने तथा कृषि उत्पादों की सीधी बिक्री के लिए उपभोक्ताओं/किसानों, प्रत्यक्ष क्रेता केंद्रों, निजी बाजार/यार्ड को स्थापित करना है। इस कानून के अंतर्गत ही कृषि उत्पादों की गुणवत्ता प्रमाणीकरण और मानकीकरण और विभिन्न स्तरों को प्रोत्साहित करने के लिए राज्य कृषि उत्पाद विपणन मानक ब्यूरो के गठन का प्रावधान किया गया था। इससे पूंजी निवेश, सीधी खरीद और भविष्य में कदम उठाने में काफी मदद मिलेगी। 13 राज्यों/केंशाप्र ने अपने एपीएमसी अधिनियम में संशोधन किया है और बाकी राज्य संशोधन कर रहे हैं। 153वें एनडीसी प्रस्ताव के अनुसरण में, कृषि मंत्रालय ने मॉडल कानून पर ही आधारित ड्राफ्ट मॉडल रूल तैयार कर संबंधित राज्यों/केंशाप्र को भेजे हैं। 7 राज्यों ने अपने एपीएमसी नियमों में संशोधन किया है।

मूलभूत ढांचे की आवश्यकता

देश में बाजार, भंडारण के विकास और कोल्ड स्टोरेज स्थापित करने की दिशा में बहुत अधिक निवेश की आवश्यकता है। विपणन के मूलभूत ढांचे के विकास में निवेश को प्रेरित करने के लिए मंत्रालय ने इन कार्यक्रमों और योजनाओं को कार्यान्वित किया है।
(i) पूंजी निवेश की सहायता योजना के लिए “ग्रामीण गोदामों का निर्माण” नामक एक योजना को एक अप्रैल, 2001 से लागू किया गया है। इस योजना के मुख्य उद्देश्य कृषि उत्पादों के भंडारण, प्रसंस्करण, कृषि आदानों और बाजार ऋण उपलब्ध कराने के लिए किसानों की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए ग्रामीण क्षेत्रों में नई तकनीक से युक्त भंडारण जैसी सुविधाएं स्थापित करना है। मूल योजना के अंतर्गत परियोजना की पूंजी लागत के 25 प्रतिशत तक बैंक एडिड सब्सिडी उपलब्ध कराई गई थी। पूर्वोत्तर राज्यों, पहाड़ी इलाकों और अनुसूचित जाति एवं जनजाति के उद्यमियों के लिए परियोजना की 33.33 प्रतिशत सब्सिडी का प्रावधान था। इस परियोजना में 20 अक्तूबर, 2004 से संशोधन कर दिया गया। नई योजना में किसानों, कृषि स्नातकों, केंद्रीय भंडारण निगमों (सेंटर वेयरहाउसिंग कॉपरेटिव)/राज्य भंडारण निगमों को 25 प्रतिशत की सब्सिडी दी जाती है। व्यक्तिगत तौर पर चलने वाली निजी कंपनियों और सहकारी कंपनियों की अन्य सभी श्रेणियों में आने वाली कंपनियों को परियोजना लागत की 15 प्रतिशत की सब्सिडी दी जाती है। यह सब्सिडी सामान्य इलाकों में 50 मीटर और पहाड़ी इलाकों में 25 मीटर के आकार के छोटे गोदाम बनाने के लिए किसानों की मदद के लिए बनाई गई थी। छोटे किसानों के लिए 5 लाख टन भंडारण की क्षमता को सुरक्षित बना लिया गया है। योजना को नाबार्ड और एनसीडीसी द्वारा लागू किया जा रहा है। नाबार्ड और एनसीडीसी द्वारा 1 अप्रैल, 2001 से क्रियान्वित योजना में 30 जून, 2009 तक 240.87 लाख भंडारण क्षमता वाली भंडारण परियोजनाओं को 553.80 करोड़ रूपए की सरकारी सहायता के साथ मंजूरी दी गई।
(ii) “बाजार अनुसंधान और सूचना नेटवर्क” नामक केंद्रीय योजना के अंतर्गत देश में सभी प्रमुख कृषि बाजारों में कीमतों और बाजार संबंधी सूचनाओं के तीव्र संकलन और प्रसार के लिए देशव्यापी सूचना नेटवर्क स्थापित किया गया है। योजना के अंतर्गत 3024 बाजार केंद्र और 175 राज्य/विपणन बोर्ड तथा विपणन निदेशालय एवं निरीक्षण कार्यालयों को इस नेटवर्क से जोड़ा गया है, जाहां 300 वस्तुओं और 2000 किस्मों की कीमतों की रिपोर्ट आती है। 11वीं योजना में 36 थोक बाजारों को जोड़ने की कृषि 87 योजना है। व्यापाक बाजार पहुंच अवसर उपलब्ध कराने और बेहतर मूल्य की जानकारी के लिए योजना का दायरा नियमित रूप से मजबूत किया जा रहा है।
(iii) “कृषि विपणन ढांचे का विकास/सुदृढ़ीकरण ग्रेडिंग और मानकीकरण” नाम की एक और योजना कृषि मंत्रालय द्वारा चलाई जा रही है। योजना के अंतर्गत सभी राज्यों में हरेक परियोजना के लिए विपणन की मूलभूत विकासात्मक परियोजना के लिए 25 प्रतिशत सब्सिडी दी जाती है जो अधिकतम 50 लाख रूपये तक सीमित है तथा पूर्वोत्तर राज्यों, पहाड़ी इलाकों और अनुसूचित जाति एवं जनजाति के उद्यमियों के लिए 33.3 प्रतिशत सहायता दी जाती है जो अधिकतम 60 लाख रूपये तक है। राज्य सरकारों/राज्य स्तरीय एजेंसियों की मूलभूत परियोजनाओं के लिए योजना के अंतर्गत ऊपरी परिसीमन नहीं रखा गया है। यह योजना उन राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों में संशोधित करके लागू की जा रही है जहां कृषि उत्पादन विपणन नियमन कानून के तहत निजी और सहकारी क्षेत्रों में प्रतियोगी कृषि बाजार स्थापित करने, सीधे विपणन करने, अनुबंधित खेती का प्रावधान है। योजना के अंतर्गत, आंध्रप्रदेश, पंजाब, केरल, तमिलनाडु, मणिपुर, सिक्किम, मध्य प्रदेश, हिमाचल प्रदेश, नगालैंड, राजस्थान, छत्तीसगढ़, आंध्र प्रदेश, अरूणाचल प्रदेश, उड़ीसा, महाराष्ट्र, बिहार, असम, त्रिपुरा, गुजरात, कर्नाटक, गोवा और केंद्रशासित प्रदेश अंडमान और निकोबार, दमन और दीव, चंडीगढ़ और दादर एवं नागर हवेली को सहायता मिलने के लिए अधिसूचित किया गया है। देश 31 मार्च, 2009 तक बैंकों/नाबार्ड, एनसीडीसी के माध्यम से 3265 ढांचागत परियोजनाएं 141 करोड़ रूपए सरकारी सहायता से मंजूर की गई हैं और 748 परियोजनाओं का 9.50 करोड़ रूपए की सरकारी सहायता से सहकारिता क्षेत्र में विकसित किया गया है। इस निदेशालय ने राज्य की एजेंसियों की 289 ढांचागत परियोजनाओं को लगभग 84 करोड़ रूपए की सरकारी सहायता के साथ स्वीकृति प्रदान की है। अधिसूचित राज्यों/केंद्रशासित प्रदेशों में 31 मार्च, 2009 तक एनआईएएन ने 530 प्रशिक्षण और जागरूकता कार्यक्रम चलाए हैं।
(i1) देश के सभी प्रमुख शहरी केंद्रों में फल, सब्जियों और जल्दी खराब होने वाली वस्तुओं के विपणन के लिए आधुनिक टर्मिनल वाले बाजारों को प्रोत्साहित करने के लिए विभाग ने कई कदम उठाए हैं। इन बाजारों में इलेक्ट्रॉनिक ऑक्शन, कोल्डवेन जैसी आधुनिक सुविधाएं उपलब्ध हैं। यह बाजार किसानों की पहुंच में हैं और सुविधाजनक क्षेत्रों में स्थापित हैं। टर्मिनल बाजारों को जल्दी ही नष्ट होने वाली वस्तुओं की खरीद और बिक्री के लिए राज्य सरकारों और निजी उद्यमियों के बीच बातचीत करके स्थापित किया गया है। टर्मिनल मार्किट माल खरीदने वाले कई केंद्रों से जुड़ा रहता है और किसानों को उनके उत्पाद या फसल को बेचने के लिए उनकी पहुंच के अंदर रहता है। उपर्युक्त योजना के तहत परियोजना के लिए सरकारी सहायता देने के बारे में सुधार किया गया है। परियोजना लागत की 40' राशि सहायता के रूप में दी जाएगी जबकि निजी उद्यमियों टीएमसी की स्थापना के लिए 25' राशि दी जाएगी। सरकारी सहायता इकाई की 150 करोड़ लागत पर प्रति टीएमसी 50 करोड़ रूपए से अधिक नहीं होगी। किसानों के हितों की रक्षा और सेवा स्तर की गुणवत्ता के लिए उत्पादक संघों की भागीदारी का 26' इक्विटी के साथ प्रावधान किया गया है। तदनुसार प्रचालन दिशा-निर्देशों में सुधार कर जारी किया गया है जो वेबसाइट (222.ड्डद्दद्वड्डह्म्knet.niष्.in) पर उपलब्ध है।
कृषि एवं सहकारिता विभाग के अधीन तीन संगठन हैं — (1) विपणन एवं निरीक्षण निदेशालय, फरीदाबाद; (2) चौ. चरणसिंह राष्ट्रीय कृषि विपणन संस्थान, जयपुर; (3) लघु किसान कृषि व्यापार संघ, नई दिल्ली। 88 भारत-2010

विपणन एवं निरीक्षण निदेशालय

यह विभाग से जुड़ा संस्थान है और इसके अध्यक्ष कृषि विपणन सलाहकार होते हैं। इसका मुख्यालय फरीदाबाद (हरियाणा) में है और शाखा कार्यालय नागपुर (महाराष्ट्र) में है। देशभर में इसके 11 क्षेत्रीय कार्यालय, नागपुर में केंद्रीय एग्मार्क प्रयोगशाला, 26 उपकार्यालय और 16 एग्मार्क प्रयोगशालाएं हैं। निदेशालय के प्रमुख कार्य इस प्रकार हैं — राज्यों/केंद्रशासित प्रदेशों को कृषि उत्पादों के विकास और प्रबंधन के लिए वैधानिक नियमों के अनुसार सलाह देना, कृषि उत्पादों (ग्रेडिंग और मार्किंग) कानून 1937 के अंतर्गत कृषि और उसके सह उत्पादों के मानकीकरण और ग्रेडिंग को प्रोत्साहन देना, बाजार अनुसंधान, सर्वेक्षण और योजना बनाना, कृषि विपणन में प्रशिक्षण देना, बाजारों का विस्तार, कृषि विपणन सूचना नेटवर्क, ग्रामीण गोदामों का निर्माण तथा कृषि विपणन के लिए मूलभूत ढांचे का विकास।

ग्रेडिंग और मानकीकरण

कृषि उत्पाद (ग्रेडिंग और मार्किंग) कानून 1937 सरकार द्वारा तय गुणवत्ता मानकों, जिन्हें “एग्मार्क” नाम से जाना जाता है, को मजबूत करने के लिए बनाया गया था। अब तक 182 कृषि और उसके सहउत्पादों की ग्रेडिंग करके अधिसूचित किया जा चुका है। खाद्य मिलावट निरोधक कानून 1954, और भारतीय मानकीकरण ब्यूरो 1986 के अंतर्गत शुद्ध मानकों पर ध्यान दिया जाता रहा है। कोडेक्स अंतर्राष्ट्रीय मानक संगठन द्वारा तैयार अंतर्राष्ट्रीय मानक पर भी ध्यान दिया जाता है ताकि भारतीय उत्पाद अंतर्राष्ट्रीय बाजार में अपनी पहचान बना सके।
डीएनआई एगमार्क के तहत घरेलू कृषि उत्पादों पर प्रमाणीकरण योजना लागू कर रहा है, जिनके लिए ग्रेडिंग मानकों को अधिसूचित किया जा चुका है। डीएमआई यूरोपीय यूनियन के देशों के लिए ताजा फलों और सब्जियों के निर्यात के लिए निरीक्षण और प्रमाणीकरण संस्था है। यह कार्य स्वैच्छिक है। एगमार्क के तहत यूरोपीय यूनियन के देशों को अंगूर, प्याज और अंतर का प्रमाणीकरण किया जा रहा है। वर्ष 2009-10 में (30 जून, 2009 तक) वनस्पति तेल ग्रेडिंग और मार्किंग (संशोधन) नियम 2009 की अंतिम अधिसूचना भारत के असाधारण गजट के भाग-2, खंड-3, उप खंड (1) में 3 जून, 2009 को उसी तिथि के आदेशानुसार प्रकाशित हो चुकी है। अकार्बनिक कृषि उत्पादों की ग्रेडिंग और मार्किंग नियम 2009 की अंतिम अधिसूचना विधि और न्याय मंत्रालय की पुष्टि के बाद मंत्रालय को भारत के गजट में प्रकाशन के लिए भेजी जा चुकी है।
करंजा बीज ग्रेडिंग और मार्किंग नियम 2009 की प्रारंभिक प्रारूप अधिसूचना, पुवाद बीज ग्रेडिंग और मार्किंग नियम, 2009 की प्रारंभिक प्रारूप अधिसूचना भारत के 11 जून, 2009 के असाधारण गजट में भाग-2, खंड-3, उप खंड (1) में 4 जून, के आदेशानुसार प्रकाशित हो चुकी है। इसी दिन के गजट में 3 जून, 2009 के आदेश से सामान्य ग्रेडिंग और मार्किंग (संशोधन) नियम, 2009 (नौ फलों और सब्जियों के मानकों सहित, जिसे अरोडा की स्थायी समिति ने स्वीकृति प्रदान की है) विधि और न्याय मंत्रालय के राज भाषा ब्यूरो को हिंदी अनुवाद के लिए भेज दिया गया है।

लघु किसान कृषि व्यापार संगठन

सोसायटी रजिस्ट्रेशन एक्ट 1860 के अंतर्गत 18 जनवरी, 1994 को कृषि एवं सहकारिता विभाग द्वारा लघु किसान कृषि व्यापार संगठन (एसएफएसी) की स्थापना की गई थी। इसके सदस्यों में रिजर्व बैंक, भारतीय स्टेट बैंक, आईडीबीआई, एक्सिम बैंक, ओरिएंटल बैंक ऑफ कामर्स, नाबार्ड, केनरा बैंक, नैफेड, यूनाइटेड फासफोरस लिमिटेड हैं।
लघु किसान कृषि व्यापार संगठन कीअध्यक्षता केंद्रीय कृषि मंत्री द्वारा की जाती है जिसमें 20 सदस्यों का बोर्ड रहता है। संगठन द्वारा 18 राज्य स्तरीय लघु किसान कृषि व्यापार संस्थान स्थापित किए गए हैं। इस संगठन का प्रमुख उद्देश्य कृषि परियोजनाओं में निजी निवेश को प्रोत्साहित करने के लिए, ग्रामीण क्षेत्रों में आय और रोजगार अवसर बढ़ाने के लिए नए सुझावों को लागू करना है। एसएएफसी ने समग्र कोष योगदान 21 राज्य स्तरीय एसएएफसी की स्थापना की है। इसका उद्देश्य ग्रामीण क्षेत्रों में कृषि व्यापार में निजी निवेश बढ़ाकर केंद्रीय क्षेत्र की योजना को सरकार ने 19 जुलाई, 2005 को दसवीं योजना की शेष अवधि में क्रियान्वयन के लिए 40 करोड़ रूपए आबंटित किए। योजना एसएफएसी कृषि व्यापार परियोजना के लिए वेंचर केपिटल सहायता और बेहतर विस्तृत परियोजना रिपोर्ट को तैयार करने वाले किसानों/उत्पादकों के समूहों को सहायता देने वाले व्यावसायिक बैंकों के साथ मिलकर लागू की जा रही है। इस योजना के प्रमुख उद्देश्य कृषि व्यापार परियोजना को स्थापित करने वाले निजी निवेशकों अौर बैंकों की भागीदारी से कृषि व्यापार को सुगम बनाना है जिससे उत्पादकों को सुनिश्चित बाजार उपलब्ध कराया जा सके, ग्रामीण आय और रोजगार के अवसर बढ़ाना, उत्पादकों के साथ कृषि व्यापार परियोजनाओं के लिए बेहतर माहौल बनाना, किसानों और उत्पादकों को सहायता देना, परियोजना विकास सुविधाओं के माध्यम से मूल्य कड़ी में भागीदारी बढ़ाने के लिए कृषि स्नातकों को सहायता देना और विशेष कृषि व्यापार परियोजनाएं स्थापित करने वाले कृषि व्यापारियों को प्रशिक्षण देना है। कृषि व्यापार परियोजनाओं के लिए वित्तीय सहायता लघु किसान कृषि व्यापार संघ पूंजी की भागीदारी के अनुसार करता है। वित्तीय सहायता परियोजना की लागत पर निर्भर करती है। और इसका निम्नतम होगी- बैंक द्वारा आकलित कुल परियोजना लागत का 10 प्रतिशत, परियोजना इक्विटी का 26 प्रतिशत, 75 लाख रूपये।
जिन परियोजनाओं को अधिक पूंजी की आवश्यकता है या जो परियोजनाएं दूरदराज और पिछड़े इलाकों, पूर्वोत्तर राज्यों, पहाड़ी इलाकों में हैं या राज्यों की एजेंसियों द्वारा जिनकी सिफारिश की जाती है उन्हें अधिक सहायता देने के लिए संघ द्वारा विचार किया जाता है।

राष्ट्रीय कृषि विपणन संस्थान

राष्ट्रीय कृषि विपणन संस्थान 8 अगस्त, 1988 से जयपुर (राजस्थान) में कार्य कर रहा है। यह कृषि विपणन के क्षेत्र में प्रशिक्षण, सलाहकार सेवा और शिक्षा प्रदान करता है। भारत की कृषि विपणन में शीर्ष संस्था होने के नाते सरकार के कृषि मंत्रालय के नीति सलाहकार के रूप में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है।
इस संस्थान का प्रबंधन कृषि मंत्री की अध्यक्षता में एक सरकारी संगठन तथा कृषि एवं सहकारी विभाग के सचिव की अध्यक्षता में एक कार्यकारी समिति करती है। प्रशिक्षण कार्यक्रम का उद्देश्य वर्तमान कृषि विपणन कर्मियों की कुशलता को बढ़ावा। कार्यक्रम में अंतर्गत गुणवत्ता मानक, फसलोपरांत प्रबंधन, अनुबंध खेती, कृषि विपणन सुधार, बाजारोन्मुख विस्तार एवं जोखिम प्रबंधन, खाद्य सुरक्षा, सूचना प्रौद्योगिकी, महिला सशक्तिकरण, वैज्ञानिक भंडारण, विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) आदि आते हैं। वर्ष 2008-09 में संस्थान ने 50 प्रशिक्षण कार्यक्रम आयोजित किए और 2009-10 में 50 प्रशिक्षण का आयोजन करेगा।
कृषि और बागवानी विभागों कृषि उद्योग, राज्य विपणन बोर्ड, कृषि उत्पाद विपणन समितियों, शीर्ष स्तर की सहकारी संस्थाओं, वस्तु बोर्ड, कृषि और प्रसंस्कारित खाद्य उत्पाद विकास प्राधिकरण
निर्यात संस्थाओं व्यावसायिक बैंकों और गैर सरकारी संगठनों के वरिष्ठ और मध्यम स्तर के अधिकारियों को प्रशिक्षण देता है।
संस्थान ने कई राज्यों कृषि विपणन विकास के लिए योजनाएं बनाई हैं। यह टर्मिनल बाजारों और कृषि आधारित परियोजनाओं के लिए परियोजना रिपोर्ट भी तैयार करता है।
संस्थान ने भूटान की शाही सरकार के लिए मास्टर विपणन योजना 2008 में पूरी की। एनआईएएम बहुल राज्यीय कृषि स्पर्धी परियोजना (एमएसएसीपी) के तहत विश्व बैंक छूट सहायता के लिए राज्य सरकारों को प्रस्ताव तैयार करने में सहायक शीर्ष संस्थान है। एनआईएएम ने 2008-09 में असम कृषि स्पर्धी परियोजना के विपणन घटकों के बारे में रिपोर्ट दी है। इनके अलावा संस्थान ने भारत के कृषि विपणन प्रणाली को मजबूत बनाने के लिए यूएसएआईडी के साथ समझौते का क्रियान्वयन किया है। संस्थान कृषि वस्तु व्यापार के विभिन्न पहलुओं के बारे में डब्लूएटीएस, नाम से एक पत्रिका का प्रकाशन करती है।
एनआईएएन अपने अध्यापकों और छात्रों के माध्यम से कृषि विपणन के विभिन्न मुद्दों पर व्यावहारिक अनुसंधान करवाता है। संस्थान एआईसीटीई द्वारा स्वीकृत दो वर्षीय स्नातकोत्तर डिप्लोमा कार्यक्रम चला रहा है। इसमें अखिल भारतीय केंद्रों पर एनआईएएमएटी परीक्षा के माध्यम से पाठ्यक्रम में प्रवेश दिया जाता है।

No comments:

Post a Comment